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राफेल सौदा: असली फायदा कॉरपोरेट को

फ्रांस के साथ लड़ाकू विमानों की खरीद के हफ्ते भर के भीतर दो बड़ी कंपनियों के बीच उत्पादन समझौते को लेकर उठने लगे सवाल
समझौताः खरीद के करार के बाद भारतीय रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर और फ्रांस के ज्यां वेस ला ड्रियां

ठीक एक साल पहले की बात है। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने रक्षा सौदों के मसौदे को लेकर चल रही एक उच्च स्तरीय बैठक में कहा था, ‘मैं भी चाहता हूं कि मैं बीएमडब्ल्यू और मर्सिडीज में बैठूं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि खरीद नहीं सकता। इसलिए 126 राफेल विमानों की खरीद भारत के लिए महंगा सौदा है। इसकी जरूरत नहीं है।’ तब एनडीए सरकार को यह तय करना था कि पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा राफेल विमानों की खरीद के इरादे को वह आगे बढ़ाए या नहीं। दरअसल, पर्रिकर का वह बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा पिछले साल की शुरुआत में की गई एक घोषणा से प्रेरित था। भारतीय रक्षा उद्योग के लिए योजनाएं घोषित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि हम हथियारों की दुनिया का सबसे बड़ा आयातक होने का दर्जा नहीं चाहते। हम चाहते हैं कि सैन्य जरूरत का 70 फीसद भारत में बने।

डेढ़ साल बीतते न बीतते केंद्र की मोदी सरकार इस नीति पर यू-टर्न करती दिखी, जब फ्रांस के साथ 36 राफेल विमानों की खरीद के करार को अंतिम रूप दे दिया गया। आठ बिलियन अमेरिकी डॉलर का यह करार अब तक का सबसे महंगा करार माना जा रहा है। 36 विमानों की खरीद के हफ्ते भर के भीतर राफेल बनाने वाली फ्रांस की कंपनी दसाल्ट के साथ रिलायंस डीफेंस ने इन विमानों को भारत में बनाने के लिए 22 हजार करोड़ रुपए का अनुबंध कर लिया। संयुक्त उपक्रम की घोषणा की गई है- दसाल्ट रिलायंस एयरोस्पेस।

इस कंपनी के लिए भारत सरकार ने नागपुर के पास 100 एकड़ जमीन देने का वादा किया है। सूत्रों के अनुसार, भारत में निर्मित राफेल भी उसी कीमत पर मिलेंगे, जिसपर फ्रांस ने भारत को 36 विमान बेचे हैं। 50 फीसद ऑफसेट अनुबंध किया गया है, जिसका आशय यह है कि कारोबार से होने वाली आय का आधा हिस्सा भारत में ही निवेश करना होगा। भारत में बनने वाले राफेल का 74 फीसद भारत से निर्यात किया जाएगा।

जाहिर है, कॉरपोरेट सेक्टर को राफेल की मलाई का बड़ा हिस्सा मिलने जा रहा है। डेढ़ साल में इस महंगे रक्षा खरीद को लेकर सरकार के यू-टर्न के पीछे कॉरपोरेट दबाव रहा- यह अब खुलकर सामने आ गया है। इस कारोबारी नफा-नुकसान की जंग में रक्षा विशेषज्ञ इस सौदे के तकनीकी पहलुओं को लेकर बहस-मुबाहिसे में उलझे हैं। अहम मसला यह है कि राफेल विमानों से ताकत तो बढ़ेगी, लेकिन वायुसेना को ज्यादा स्क्वाड्रनों की जरूरत भी पड़ेगी। भारत ने फ्रांस के साथ जिन 36 राफेल विमानों की खरीद का करार किया है, उनको वायुसेना में शामिल किए जाने से दो स्क्वाड्रन और बढ़ जाएंगे। लेकिन ये विमान 2019 से 2023 के बीच भारत को मिलेंगे। सेवारत मिग विमानों के फेज आउट होने के बाद बेड़े (स्क्वाड्रन्स) की संख्या और घटने वाली है। ऐसे में देशी तकनीक और मेक इन इंडिया के नारे चाहे लाख लगाए जाएं, भारत की उम्मीदें अमेरिका, स्वीडन और रूसी कंपनियों से भविष्य में होने वाले विमान खरीद सौदों पर ही टिकी हैं। विदेशी कंपनियों पर निर्भरता के मामले में ‘यू-टर्न’ के बावजूद एक बात अच्छी मानी जा रही है कि बेड़े के लिए राफेल समेत अब जिन विमानों की तरफ सरकार की निगाहें हैं, वे परमाणु हथियार ले जा सकते हैं और दाग सकते हैं। साथ ही इन विमानों से दागे जाने वाले मिसाइलों की मारक क्षमता भी संदेह से परे है। इन तथ्यों से सेना के अधिकारी भले खुश हो रहे हैं, लेकिन कॉरपोरेट को मुनाफा पहुंचाने की कवायद पर देर-सवेर बावेला मचना तय है।

राफेल विमान

 

वायुसेना के लिए और सौदे हों

कपिल काक एयर वाइस मार्शल (रि.)

हाल में किए गए राफेल डील को आज के सामरिक हालात और वायुसेना की जरूरतों के आईने में समझने की जरूरत है। पहली बात तो यह है कि किसी भी तरह की लड़ाई हो- वायुसेना के बगैर युद्ध नहीं कर सकते। चाहे वह पारंपरिक लड़ाई हो या सीमित युद्ध हो या फिर चौथी पीढ़ी का युद्ध। सीमित युद्ध के लिए भी मजबूत वायुसेना जरूरी है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सब कुछ जानने के बावजूद हमारी सरकारों ने वायुसेना के 40 से ज्यादा स्क्वाड्रन्स को 32 तक पहुंचा दिया है। पिछले 35 साल से वायुसेना में नए स्क्वाड्रन जोड़ने की कोई कवायद नहीं की गई। 1996 में आखिरी लड़ाकू विमान वायुसेना में जोड़ा गया था।

मौजूदा सामरिक हालात में देश में पुलिस से लेकर अर्द्धसैनिक बल और सेना सतर्क है। लेकिन लड़ाई छिड़ जाने पर बगैर वायुसेना के यह सर्तकता किस तरह के नतीजे देगी- इस पर सोचना चाहिए। ऐसे में हम इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते कि राफेल जैसे जेट्स हमें बगैर कोई समय गंवाए चाहिए। 36 राफेल विमान खरीदने का सौदा हुआ है। हमें और 90 तुरंत प्रभाव से चाहिए। दुनिया की चौथी सबसे बड़ी वायुसेना मानी जाती है- भारतीय वायुसेना। सबसे बड़ी चुनौती लड़ाकू विमानों की कमी की है। स्वदेशी लड़ाकू विमान के नाम पर तेजस परियोजना शुरू की गई, लेकिन इस रास्ते से हमें कुछ भी नहीं मिला।

राफेल को लेकर वर्ष 2000 से बातचीत चल रही थी। 2007 में सौदे पर बात शुरू की गई और चार साल लगे 36 विमानों को खरीदने का फैसला करने में। यह बहुत उचित डील हुई है। लेकिन सिर्फ 36 आए हैं। वह भी इनके आने में पांच साल या कम से कम साढ़े चार साल लगेंगे। तब तक मन बहलाने के लिए हमारे पास तेजस विमान हैं, जिन्हें वायुसेना में शामिल किया जाना शुरू किया गया है। इनमें तेजस मैक-1 विमान एक तरह से अप्रासंगिक माने जा रहे हैं, लेकिन स्वदेशी और मेक इन इंडिया के नाम पर उनसे काम चलाया जा रहा है। तेजस मैक-1 ए विमान वायुसेना के लिए फिट हैं।

बहरहाल, बड़ा सवाल स्क्वाड्रन्स में लगातार आ रही कमी का है। पुरानी तकनीक वाले जिन विमानों को फेज आउट किया जा रहा है, उससे स्क्वाड्रन्स की संख्या और कम होगी। 2018 से शुरू करके आठ साल के दौरान वायुसेना अपने सभी मिग-21 और मिग-27 विमानों को बेड़े से हटा देगी। भारत के पास लगभग दो सौ सुखोई-30 विमान हैं, लेकिन उनमें से सिर्फ आधे को ही हम मिशन के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। मिराज 2000 विमानों को छोड़ दें तो हम ढंग के विमानों की जबरदस्त कमी से जूझ रहे हैं। ऐसे में जरूरत राफेल जैसे और विमानों को खरीदने की है। लेकिन इस नाम पर एफ-16 खरीदने की जो बात चल रही है, उससे भी खास फायदा नहीं होने वाला। यह 70 के दशक का प्लेटफार्म है जो पूरी दुनिया में अप्रासंगिक हो चुका है।

(लेखक रक्षा विशेषज्ञ हैं और सेंटर फॉर एयर पॉवर स्टडीज के संस्थापक अतिरिक्त निदेशक हैं।)

 

खरीद का अर्थशास्त्र: रास्ता या मुसीबत

अभिजीत अय्यर-मित्रा

पाकिस्तान की वायुसेना के एक अफसर ने कुछ साल पहले मुझसे कहा था, ‘सर हम चाहते हैं कि आप राफेल खरीदें। आपका (भारत का) यह कदम पाकिस्तानी एयर फोर्स के लिए बेहतर होगा।’ कुछ साल पहले हल्के-फुल्के अंदाज में पाकिस्तानी वायु सेना के एक अफसर ने जब मुझसे यह कहा तो उसकी आंखों में चमक थी। तीन साल बाद हमने 36 विमानों के लिए 8.78 बिलियन यूएस डॉलर का सौदा कर लिया। सच में कहें तो यह बहुत बेहतर युद्धक विमान है। समस्या इसके अर्थशास्त्र को लेकर है।

एक भी ऐसा भारतीय विश्वविद्यालय नहीं है, जहां रक्षा अर्थशास्त्र पढ़ाया जाता है। कोई ब्यूरोक्रेट नहीं है, जिसके पास इस विषय में प्रशिक्षण या डिग्री है। समस्या यह है कि अन्य किसी भी अत्याधुनिक दो इंजनों वाले फाइटर की तरह ही राफेल बेहद महंगा और खर्चीला है। एक विमान की कीमत 244 मिलियन यूएस डॉलर है। राफेल सौदा भारतीय वायुसेना के इतिहास में अब तक सबसे महंगा सौदा है। जब 2012 में इस विमान की खरीद का कान्ट्रैक्ट मिला था, तब प्रति विमान कीमत 80 मिलियन यूएस डॉलर आंकी गई थी। 126 विमान 10 बिलियन यूएस डॉलर में खरीदे जाने थे। ताजा सौदा 300 फीसद ज्यादा कीमत पर हुआ है। फिर भी सरकार तर्क दे रही है कि कठोर तरीके से सौदेबाजी कर ढेरों पैसा बचाया गया है।

यह कहना कि फ्रांस ने कीमत में 50 फीसद कमी की है - आर्थिक लिहाज से संभव नहीं लगता। इसके लिए सौदे में ऑफसेट्स शब्द का इस्तेमाल किया गया है। सौदे के तहत भारत सरकार जो भुगतान करेगी, उसके 50 फीसद का निवेश भारत के उद्योग में किया जाना है। ऑफसेट्स वाले सौदों में अनुभव बेहद खराब रहा है। देश को 200 फीसद ज्यादा भुगतान कर सौदा करना पड़ा है - इस उम्मीद में कि आधी रकम आफसेट्स के तौर पर वापस मिल जाएगी, लेकिन ऐसा होता नहीं।

कुल 36 विमान खरीदे गए। लड़ाई की स्थिति में सिर्फ दो-तिहाई का इस्तेमाल किया जा सकता है। बाकी को मेंटीनेंस के लिए रखना पड़ता है। इस लिहाज से 24 या 36 विमानों का जखीरा लड़ाई की स्थिति में खास कुछ नहीं कर पाएगा। साथ ही एक लड़ाकू विमान अपने सेवाकाल में अपनी खरीद की कीमत का तीन गुना खर्च कराता है। इस लिहाज से राफेल विमान पर हमें अगले 30 साल में 35 बिलियन यूएस डॉलर खर्च करने होंगे। जाहिर है, इस सौदे को लेकर इस्लामाबाद में शैंपेन की बोतलें तो खुलेंगी ही।

(लेखक नई दिल्ली के इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज के सीनियर फेलो हैं।)

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