संयुक्त राष्ट्र के साथ मिलकर आप जो कार्यक्रम चलाने जा रहे हैं उसके बारे में कुछ जानकारी दें।
मुझे बहुत खुशी है कि आज मुझे आउटलुक के कार्यालय में आप लोगों के साथ बात करने का मौका मिला है। अभी तीन-चार दिन पहले मैं अमेरिका से लौटा हूं और वहां जो संयुक्त राष्ट्र संघ का अधिवेशन चल रहा है उसके कुछ सत्रों में मेरी भागीदारी थी। पिछले वर्ष संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने एक आयोग का गठन किया था जिसका नाम है यूएन कमीशन फॉर फाइनेंसिंग ऑफ एजुकेशन। इस आयोग का काम यह देखना है कि दुनिया भर में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए वित्तीय स्रोतों को कैसे मोबिलाइज किया जाए क्योंकि टिकाऊ विकास यूएन का बड़ा लक्ष्य है और इसके लिए एक समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर उनका जोर है। यह शिक्षा सिर्फ प्राथमिक स्तर पर ही नहीं बल्कि सेकेंडरी स्तर पर भी देने की बात है क्योंकि 2030 तक हर बच्चे को सेकेंडरी स्तर तक की शिक्षा देने का लक्ष्य रखा गया है। इसके लिए 40 अरब डॉलर (करीब दो लाख 70 हजार करोड़ रुपये) के अतिरिक्त फंड की जरूरत है। यह एक बड़ी चुनौती के साथ-साथ एक बड़ा अवसर भी है। कई देशों के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, यूनेस्को के महासचिव, यूनिसेफ के प्रमुख और दुनिया की कुछ चुनिंदा हस्तियां इस आयोग में शामिल हैं। मुझे भी इसमें शामिल किया गया है। पिछले एक वर्ष में इस आयोग की तीन बैठकें हुई हैं और इसमें इस बात पर विचार किया गया है कि किस तरह हम दुनिया की राजनीतिक इच्छाशक्ति, कॉरपोरेट हाउसों को इस फंड को जुटाने के लिए मोबिलाइज कर सकते हैं और क्या इसके लिए किसी तरह का टैक्स आदि लगाने की जरूरत होगी। इसकी फाइनल रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र में जमा होनी है। इस आयोग में मेरा रोल यह था कि समाज के हाशिए पर पड़े बच्चों के एजेंडे को इसमें कैसे शामिल किया जाए? ऐसे बच्चे जो व्यवस्थित हिंसा, दासता, वेश्यावृत्ति का शिकार हैं। उदाहरण के लिए 16 करोड़ 80 लाख बच्चे रोजगार में धकेल दिए गए हैं जिनमें से करीब साढ़े आठ करोड़ बहुत बुरी तरह का श्रम कर रहे हैं। साढ़े सात करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ने के लिए बाध्य हैं। अच्छी बात यह है कि ईश्वर की कृपा से मुझे जो मौका मिला है उसका फायदा उठाते हुए इन बच्चों का मुद्दा इस आयोग के सामने मैंने उठाया और इसके कारण आयोग की रिपोर्ट में इन बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता में रखा गया है। इस काम के लिए मैंने कई राष्ट्राध्यक्षों से भी बात की है।
लेकिन जब हम समाज के हाशिए के बच्चों की बात करते हैं तो क्या यह ज्यादा बेहतर नहीं होगा कि ऐसे बच्चों को नियमित की बजाय किसी तरह की रोजगारपरक दक्षता वाली शिक्षा दी जाए ताकि वह इसके जरिए रोजी-रोटी कमा सकें?
हमें यह समझना होगा कि नियमित शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है। रोजगारपरक शिक्षा देना अच्छी बात है मगर जिस तेजी से दुनिया बदल रही है उसमें कोई भी दक्षता चंद सालों में ही पुरानी हो जाएगी और उससे रोजगार मिलना बंद हो जाएगा। उदाहरण के लिए हमारे देश में आप वेल्डिंग का काम रोजगार के लिए सिखाते हैं मगर दुनिया के बड़े देशों में कंपनियां यह काम ज्यादा दक्षता से मशीनों से करनी लगी हैं। भारत में भी कई कंपनियां ऐसा कर रही हैं तो इस दक्षता से कितने दिन रोजगार मिल पाएगा। जब हम यह कहते हैं कि सभी बच्चों को एक समान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलनी चाहिए तो यह समझा जाना चाहिए कि बुनियादी शिक्षा हर बच्चे का हक है। स्किल उसके साथ सिखाएं तो ठीक है मगर बुनियादी शिक्षा की कीमत पर स्किल नहीं सिखाया जा सकता।
मगर कई पेशे ऐसे हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि उनमें बच्चे पारंपरिक रूप से आते हैं जैसे कि बुनकरी का पेशा, जिसमें माता-पिता से बच्चे सीखते हैं।
यह दरअसल बहुत बड़ा मिथ है। अगर हम बुनकरी की बात करें तो भारत में जो कालीन उद्योग है वह दरअसल ईरान से आया है। पहले ईरान की कालीन पूरी दुनिया में मशहूर थी मगर जब ईरान में तेल के कारण समृद्धि आई तो यह धंधा वहां से भारत और पाकिस्तान में आ गया। भारत में जम्मू-कश्मीर और उत्तर प्रदेश के बनारस से सटे इलाकों में यह काम जोर पकड़ गया। भदोही, बनारस, मिर्जापुर आदि में कई दशक पहले यह पेशा पारंपरिक रूप में था, यानी बाप से बेटा यह काम सीखता था। मगर बाद में यहां बिहार-झारखंड से बच्चे आने लगे और उनके आने के बाद इस पेशे से जुड़े लोगों के बच्चे बेहतर शिक्षा हासिल करने लगे जबकि काम में लगे बच्चे बंधुआ मजदूरी करने लगे। हालांकि बचपन बचाओ आंदोलन तथा अन्य संगठनों के कारण अब स्थिति में बेहद सुधार है। 80 के दशक के अंत में कालीन उद्योग में भारत में करीब 3.5 लाख बच्चे काम कर रहे थे जो कि अब घटकर 30 हजार से भी कम रह गए हैं।
जब हम बाल श्रमिकों की बात करते हैं तो एक समस्या यह देखी गई है कि जिन बच्चों को मुक्त कराया जाता है उनका पुनर्वास ठीक से नहीं होता जिसके कारण ऐसे बच्चे दोबारा बाल श्रम के धंधे में धकेल दिए जाते हैं। इसका क्या उपाय हो सकता है?
दरअसल यह कानून से संबंधित समस्या है। बचपन बचाओ आंदोलन के तहत हम जिन बच्चों को भी बचाते हैं उनका मामला उचित कानून के तहत दर्ज कराते हैं ताकि बाद में उनका सही से पुनर्वास हो और पुनर्वास के बाद भी फॉलोअप होता रहे। दिक्कत वहां आती है जहां पुलिस या दूसरे संगठन बस बच्चों को बाल श्रम से छुड़ाते हैं और बिना उचित कानूनों में मामला दर्ज किए उन्हें वापस भेज देते हैं। ऐसे बच्चों का बाद में क्या होता है इसका कोई हिसाब-किताब नहीं रखा जाता है। इसलिए बचपन बचाओ आंदोलन के तहत बचाए गए बच्चों के फिर से बाल श्रमिक के रूप में काम करने की घटनाएं एक फीसदी से भी कम है।
बच्चों की शिक्षा को लेकर भारत के एक अन्य नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन भी हर वर्ष स्कूलों से ड्रॉप आउट होने वाले बच्चों के बारे में सर्वे कर रिपोर्ट देते हैं और उनके अनुसार ड्रॉप आउट की दर बढ़ती जा रही है। क्या आप उनसे इस बारे में संपर्क में हैं?
जहां तक मेरी जानकारी है तो प्राइमरी स्तर पर तो नहीं मगर सेकेंडरी स्तर पर बच्चों के स्कूल छोड़ने की दर अधिक है। संयुक्त राष्ट्र के कुछ संगठन भी इस बारे में रिपोर्ट जारी करते हैं। अमर्त्य सेन जो काम कर रहे हैं, उस बारे में उनके साथ मेरी अभी कोई बातचीत नहीं हुई है। हां, मौका मिला तो मैं जरूर बात करूंगा।
आप बच्चों के मुद्दों पर दुनिया के दूसरे नोबेल पुरस्कार विजेताओं को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे हैं?
अभी इस बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी मगर हां, कई नोबेल विजेताओं को मैंने जब दुनिया में बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा, उन्हें बंधुआ बनाने जैसी जानकारी दी तो उन्हें बेहद आश्चर्य हुआ कि क्या आज के दौर में भी किसी को बंधुआ बनाने की घटना होती है। इनमें से कुछ ने इस मुद्दे पर मिलकर काम करने का भरोसा दिलाया है।
कैलाश सत्यार्थी फाउंडेशन के गठन की जरूरत क्यों पड़ी?
दरअसल बचपन बचाओ आंदोलन की अपनी सीमाएं हैं। बच्चों के खिलाफ हिंसा रोकने, बाल श्रम को रोकने आदि तक तो इस संगठन के जरिए काम किया जा सकता है मगर जब नीतिगत बदलावों के लिए पूरी दुनिया में काम करने की बात आई तो उसके लिए नए संगठन की जरूरत महसूस हुई। इस लिए कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेंस फाउंडेशन का गठन किया गया है जो एक थिंक टैंक की तरह काम करेगा। नोबेल विजेताओं को जोड़ने, भारत में पूरी दुनिया का अपनी तरह का पहला थिंक टैंक इंस्टीट्यूट बनाने जो सिर्फ बच्चों के मसलों पर विचार करेगा। भारत के असम जैसे राज्यों से युवतियों की ट्रैफिकिंग रोकने आदि जैसे कामों के लिए यह फाउंडेशन प्रयास कर रहा है।
आपके काम में भारत सरकार का कितना सहयोग मिल रहा है?
सरकारों का सहयोग तो है। उदाहरण के लिए असम में युवतियों की ट्रैफिकिंग रोकने और उनके पुनर्वास के लिए असम की पूर्ववर्ती तरुण गोगोई सरकार ने एक फंड गठन की मंजूरी दी थी। हालांकि इस बारे में केंद्र सरकार से किए गए अनुरोध का बहुत उत्साहजनक जवाब नहीं मिला।