अगला लोकसभा चुनाव ज्यों-ज्यों नजदीक आ रहा है, राजनैतिक दलों की चुनाव जीतने की रणनीति भी बदलती जा रही है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, अगर चुनाव देश के आम आदमी के जीवन को बेहतर बनाने के मुद्दों के बजाय भावनात्मक मुद्दों पर जीतने की कोशिश की जाए। इस समय हो रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टियों और उनसे जुड़े संगठनों की गतिविधियां, प्राथमिकताएं, कार्यशैली और बयानबाजी इसके ट्रेलर की तरह हैं। इसमें धार्मिक मुद्दे, सामाजिक पृष्ठभूमि, न्यायपालिका सभी को घसीटा जा रहा है लेकिन बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, आम आदमी, महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था की बेहतरी जैसे मुद्दे गौण होते गए हैं। उनकी जगह परिजनों पर टिप्पणी, धर्म और गोत्र की खोज, जाति श्रेष्ठता जैसे मसले हावी हो गए हैं। राजनैतिक दलों का यह रुख देश के लिए स्वस्थ संकेत नहीं है।
भले भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खुलकर इसे स्वीकार न करें, लेकिन यह बहुत हद तक साफ है कि अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा चुनावी फायदे हासिल करने की कोशिश का ही हिस्सा है। जिस तरह हाल के दौर में इस मुद्दे को तूल दिया गया, वह बहुत तार्किक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या में विवादित स्थल के मालिकाना हक की सुनवाई जनवरी में करने के आदेश पर बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है। ऐसी प्रतिक्रिया आरएसएस, उसके सहयोगी संगठन, विश्व हिंदू परिषद और भाजपा के साथ ही उसके सहयोगी दल शिवसेना ने भी व्यक्त की। लेकिन इसमें चिंताजनक पहलू तब जुड़ जाता है जब कुछ केंद्रीय मंत्री हिंदुओं के धैर्य की परीक्षा न लेने की बात करने लगते हैं। इसी तरह की बात आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने हाल में एक कार्यक्रम में कही। उन्होंने यह भी कहा कि सरकार को कानून बनाकर अयोध्या में राम मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। फिर, जिस तरह अयोध्या में भारी भीड़ जुटाकर विश्व हिंदू परिषद ने धर्मसभा की, वह भी चिंता बढ़ाने वाली थी। हालांकि वहां भीड़ अपेक्षा से कम जुटी।
इस तरह के आयोजन सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ सकते हैं। इसके परिणाम देश 1992 में भुगत चुका है। उस समय बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद देश भर में भड़के सांप्रदायिक दंगों में सैकड़ों लोगों की जान चली गई थी और लाखों करोड़ रुपये की आर्थिक हानि भुगतनी पड़ी थी। उसके 26 साल बाद एक पीढ़ी बदल चुकी है और देश ऐसी जोखिम मोल लेने की स्थिति में नहीं है। यह देखकर भी चिंता बढ़ती है कि मुख्य विपक्षी पार्टी भी कथित तौर पर साफ्ट हिंदुत्व के संकेत दे रही है।
देश संविधान से चलता है और न्यायपालिका उसकी संरक्षक है, जिसमें बहुसंख्यकवाद की कोई जगह नहीं है। कोई भी फैसला तथ्यों पर और संविधान के दायरे में ही होना चाहिए। इसलिए सभी पक्षों को न्यायालय के फैसले का इंतजार करने के साथ उसे स्वीकारने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। किसी भी वर्ग में यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि उसके साथ न्याय नहीं हुआ है। वैसे भी आस्था के आधार पर न्यायालय फैसले नहीं दे सकता है।
संबंधित पक्षों को भी यह देखना चाहिए कि जो फैसला उनको पसंद हो, वही सही है, ऐसा संभव नहीं होता है। मसलन, सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर फैसला सुनाया तो भाजपा और आरएसएस ने तब आस्था का खयाल रखने की बात नहीं की, बल्कि उसका स्वागत किया। लेकिन सबरीमला में हर आयु की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति का फैसला सुनाया तो आस्था हावी हो गई। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन संगठनों को डर है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उनके लिए स्थिति असहज हो सकती है। इसलिए सरकार पर कानून बनाकर राम मंदिर का मार्ग प्रशस्त करने का दबाव बनाया जा रहा है। इन संगठनों के कई लोग तो इसके लिए समय तय होने का दावा तक कर रहे हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि हाल की चुनावी रैलियों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों में भी राम मंदिर मुद्दा जगह बनाने लगा है, जबकि पिछले कई चुनावों में वे इससे परहेज करते रहे और विकास के मुद्दों को तरजीह देते रहे। ऐसे में उनके भाषणों में इस मुद्दे का जुड़ना संकेत देता है कि कहीं न कहीं उनकी पार्टी भाजपा अपने मातृ संगठन के साथ सुर मिलाने की ओर बढ़ रही है।
अगर यह स्थिति बनती है तो बहस अलग दिशा में चली जाएगी, जिसमें जिसकी संख्या अधिक होगी सब कुछ उसकी इच्छा से तय होगा। यह रवैया देश की लोकतांत्रिक छवि को कमजोर करेगा, क्योंकि लोकतंत्र संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करता है, न कि बहुसंख्यक हितों के मुताबिक चलता है। ऐसे में दबावों की राजनीति के बजाय स्वस्थ मूल्यों और मानदंडों को मजबूत करने की जरूरत है और इसका दायित्व सत्तारूढ़ दल के साथ ही दूसरे राजनैतिक दलों पर भी है। पार्टियों को चुनावी राजनीति से ऊपर उठकर देशहित और बेहतर समाज निर्माण को प्राथमिकता देने की जरूरत है।