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हाईड्रोजन बना परमाणु का विकल्प

भारत समेत दुनिया के सात देश पानी से हाईड्रोजन के अणु अलग कर ‘हैवी वाटर’ तैयार करने में जुटे। भारत में परियोजना पर 25 हजार करोड़ निवेश
फ्रांस में ताप नाभकीय प्रायोगिक संयंत्र

भारत के परमाणु ऊर्जा आयोग के चैयरमैन रह चुके देश के मशहूर परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर कहते हैं, ‘हमें ऊर्जा तैयार करने के लिए काफी मात्रा में पानी की जरूरत है। पानी से हाईड्रोजन के अणु अलग कर और हाईड्रोकार्बन के अवक्षय (डिप्लीशन) से भारी मात्रा में ऊर्जा बनाने की परियोजना पर काम चल रहा है।’ दरअसल, गैर - पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों की तलाश मेंनॉन-फॉसिल फ्यूल विकसित करने (पेट्रोलियम पदार्थ, रेडियोधर्मी तत्व आदि से अलग हटकर) का काम जोरों पर चल रहा है।

क्या ऊर्जा के नए स्रोतों का इस्तेमाल रक्षा आयुध निर्माण में भी किया जा सकता है? जिस परमाणु ऊर्जा का विकल्प हाईड्रोजन ऊर्जा को बनाने की तैयारी की जा रही है, वह क्या परमाणु बम का भी विकल्प बन सकता है? फ्रांस में अंतरराष्ट्रीय तापनाभिकीय प्रायोगिक संयंत्र (इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटरल रिएक्टर या आईटीईआर) नामक विशाल रिएक्टर में हाईड्रोजन बम के सिद्धांत पर ऊर्जा उत्पन्न करने का प्रयोग घोषित तौर पर चल रहा है। इस प्रयोग में भारत, अमेरिका, रूस, जापान समेत यूरोपीय समुदाय के कई देश शामिल हैं। बताया जा रहा है कि इसमें पहला प्लाज्मा ऑपरेशन 2018 में संभव होगा। इसमें उसी प्रकार से ऊर्जा मिलेगी, जैसे पृथ्वी को सूर्य या अन्य तारों से मिलती है। इस प्रक्रिया में हाईड्रोजन के अणुओं को 10 करोड़ डिग्री सेंटीग्रेड तापमान तक गर्म किया जाता है। इस तापमान पर हाईड्रोजन के एटम आपस में जुड़कर हीलियम के परमाणु को जन्म देते हैं और भारी ऊर्जा पैदा होती है।

वैश्विक स्तर पर चल रही इस कवायद में भारत तो शामिल है ही, भारत का परमाणु ऊर्जा आयोग भी पानी के हाईड्रोजन के अणुओं को अलग कर उनसे ऊर्जा बनाने के मिशन पर काम कर रहा है। जिन अनिल काकोदकर की ऊपर चर्चा की गई है, उन्होंने परमाणु ऊर्जा आयोग में बतौर अध्यक्ष (1996-2000) अपने कार्यकाल में भारत को परमाणु ईंधन के लिए आत्मनिर्भर बनाने के मिशन पर काम किया था। तब भारत थोरियम की उपलब्धता के मामले में स्वनिर्भरता की ओर बढ़ा। तब भारत ने एडवांस्ड हैवी वाटर रिएक्टर्स की डिजाइन तैयार करना शुरू किया, जिसमें ऊर्जा तैयार करने में 75 फीसद तक थोरियम का इस्तेमाल होने लगा। इस योजना से वर्ष 2020 तक 20 हजार मेगावाट परमाणु बिजली देश में बनने लगेगी। कई श्रेणी के ऐसे रिएक्टर्स विकसित करने पर काम चल रहा है। इसी के तहत हाईड्रोजन गैस तैयार करने और उससे ऊर्जा बनाने का मिशन भी चल रहा है।

भारत सरकार के टेक्नोलॉजी विजन 2035 में पानी को लेकर विशद सर्वे किया गया है, जिसमें पानी के इस्तेमाल, उसकी गुणवत्ता और पानी का इस्तेमाल ऊर्जा निर्माण में करने को प्रमुखता दी गई है और इस मिशन के लिए भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर को नोडल एजेंसी बनाया गया है। कॉम्पैक्ट हाई टेम्परेचर रिएक्टर विकसित किया जा रहा है, जो पानी से हाईड्रोजन के अणुओं को अलग कर हाईड्रोकार्बन के अवक्षय (डिप्लीशन) से ऊर्जा तैयार करेगा। आने वाले दिनों में रेडियोऐक्टिव ऊर्जा का विकल्प हाईड्रोजन ऊर्जा को माना जा रहा है। हाईड्रोजन ऊर्जा प्रणाली के जरिए थोरियम प्रणाली वाले ऊर्जा निर्माण के मॉडल और रेडियोऐक्टिव कचरा की चुनौतियों से निजात पाने की उम्मीद जताई जा रही है। घोषित तौर पर भारत अपनी परमाणु क्षमता का इस्तेमाल ‘शांतिमूलक कार्यों (बिजली पैदा करने, चिकित्सा आदि)’ के लिए करता रहा है। लेकिन अंतरराष्ट्रीय खुफिया एजेंसियां मानती रही हैं कि परमाणु शक्ति का इस्तेमाल भारत ने आयुध निर्माण में भी किया है और भारत के पास अच्छी-खासी संख्या में न्यूक्लियर वॉरहेड्स हैं और उन्हें डेटोनेट करने की क्षमता भी।

भारत समेत विश्व के जो देश हाईड्रोजन ऊर्जा के विकल्प पर काम कर रहे हैं, वे सैन्य शक्ति बढ़ाने में इस क्षमता का इस्तेमाल नहीं करेंगे- इस बात के संकेत अभी नहीं मिल रहे हैं। दरअसल, द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में अमेरिका और जर्मनी द्वारा हाईड्रोजन बम बना लिए जाने के बाद इसकी तबाही क्षमता को लेकर दुनिया भर में विवाद उठा। बाद में अमेरिका ने परमाणु बम का जापान के शहरों पर इस्तेमाल कर दुनिया भर में परमाणु होड़ की शुरुआत करा दी। लेकिन परमाणु होड़ के खौफनाक-दूरगामी और दीर्घमियादी नतीजों को ध्यान में रखकर वैकल्पिक स्रोत पर भी वैज्ञानिक बात करते रहे, जिसका नतीजा 2005 में फ्रांस के इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटरल रिएक्टर या आईटीईआर प्रोजेक्ट के रूप में सामने आया। यहां की विशेष मशीन में कई

शक्तिशाली चुंबकों की सहायता से हाईड्रोजन गैस के एक मिश्रण को 15 करोड़ डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जाता है। यह मिश्रण हाईड्रोजन के ड्यूटेरियम और ट्रीटियम कहलाने वाले दो आइसोटोप्स से प्राप्त किया जाएगा। इसे हैवी वाटर कहा जाता है।

भारत में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) के वैज्ञानिक घोषित तौर पर यही कर रहे हैं कि हम हाईड्रोजन को फॉसिल फ्यूल का विकल्प बना देंगे 2020 तक। अगले दशक में हाईड्रोजन वाणिज्यिक आधार पर उपलब्ध होगा- प्रोडक्शन, स्टोरेज और सप्लाई चेन तक ट्रांसपोर्टेशन के लिए। बीएआरसी के पूर्व निदेशक डॉ. एस. बनर्जी का दावा है, ‘हम 2020 तक हाईड्रोजन का इस्तेमाल ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत के तौर पर कर सकेंगे।’ 2017 तक छह सौ मेगावाट का हाई टेंपरेचर न्यूक्लियर रिएक्टर (थर्मल) की डिजाइन तैयार कर ली जाएगी और इसके लिए जरूरी सामग्री का निर्धारण कर लिया जाएगा। यह रिएक्टर पानी से हाईड्रोजन तैयार करेगा। प्रायोगिक इस्तेमाल के लिए कॉम्पैक्ट हाई टेंपरेचर डेवलपर रिएक्टर (सीएचडीआर) का निर्माण किया जा चुका है, जिससे हाईड्रोजन और ऊर्जा तैयार की जा रही है। बनर्जी के अनुसार, विभिन्न रसायन उद्योगों के बाय-प्रोडक्ट के रूप में भी हाईड्रोजन आसानी से उपलब्ध है। यही कारण है कि भारत के ऊर्जा सुरक्षा के लिए हाईड्रोजन के विकल्प पर ज्यादा जोर है। हाईड्रोजन का इस्तेमाल प्रज्ज्वलन में भी किया जा सकता है, जिससे किसी स्थिर, छोटे या फिर किसी वाहन की जरूरत लायक ऊर्जा तैयार की जा सकेगी।

भारत सरकार ने 2006 में नेशनल हाईड्रोजन एनर्जी रोड मैप (एनएचईआरएम) तैयार किया। बीएआरसी के अलावा इसरो, गैस अथॉरिटी, भेल, विज्ञान एवं तकनीकी विभाग, सीआईएसआर समेत दर्जनों एजेंसियां शोध में जुटी हैं। 2020 तक हाईड्रोजन आधारित 1000 मेगावाट तीन बिजलीघर बना लिए जाने की तैयारी है। घोषित तौर पर 25 हजार करोड़ रुपए का निवेश इस प्रोजेक्ट में किया जा रहा है।

पानी के अलावा उद्योगों के बॉय-प्रोडक्ट के तौर पर हाईड्रोजन तैयार करने का काम चल रहा है। क्योंकि वैज्ञानिक अभी से ही पानी के उपलब्ध स्रोतों पर पड़ने वाले दबाव की भी चिंता कर रहे हैं। अनिल काकोदकर का कहना है, ‘हमें संबंधित तथ्यों को समग्रता में देखना होगा। भविष्य में ऊर्जा के लिए पानी की जरूरत बढ़ने वाली है। लोगों तक पानी की उपलब्धता हो, साथ में हमें मौसम में आ रहे बदलाव के मद्देनजर नॉन-फॉसिल ऊर्जा के विकल्प की ओर जाना होगा। ऐसे में हम ‘लिक्विड फील्ड बॉयोमॉस’ की जगह सिर्फ हाईड्रोजन ऊर्जा पर निर्भर कर पाएंगे। तब पानी पर दबाव बढ़ेगा।’ कोयला खदानों से उत्सर्जित गैस, औद्योगिक इकाइयों के ऑर्गेनिक वेस्ट एवं बॉयो-मास आदि बॉयो-हाईड्रोजन ऊर्जा के अन्य विकल्पों में शुमार किए जा रहे हैं। लेकिन इनसे उत्सर्जित ऊर्जा परमाणु ऊर्जा का विकल्प नहीं बन पाएगी। 

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