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संघ की सत्ता या सत्ता का संघ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस वर्ष विजयादशमी पर अपना 91 वां स्थापना दिवस मना रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए यह यात्रा इतनी आसान और आरामदायक नहीं थी। दो बड़े प्रतिबंधों के बावजूद अपने मजबूत संगठन के सहारे यह न सिर्फ उठ खड़ा हुआ बल्कि पूरे देश में 50 हजार से ज्यादा शाखाएं स्थापित कीं
संघ प्रमुख मोहन भागवत के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

सड़कों पर चूने की लकीरों के अंदर बैंड की धुन पर चलतीं अनुशासित कतारें, हाथों में लाठियां और तलवारें। पहले इन्हें कौतूहल से देखा जाता था और अब सत्ता के भागीदारों के रूप में। यह संघ के स्वयंसेवक हैं जो हर साल विजयादशमी यानी दशहरे के दिन लगभग हर शहर में पथ संचलन का आयोजन करते हैं। विजयादशमी को सन 1925 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आम लोगों के बीच चर्चित आरएसएस का काम शुरू हुआ तब से आज तक इस संस्था ने उत्तरोत्तर प्रगति ही की है। आरएसएस पर लगातार सांप्रदायिक होने के आरोप लगे लेकिन यह संगठन अपनी ताकत बढ़ाता रहा। समाज का एक वर्ग संघ की विचारधारा के करीब होता गया जबकि एक दूसरी विचारधारा थी जिसने संघ को ‘रहस्यमय’ संस्था घोषित कर उसे एक अतिवादी हिंदू संगठन करार दे दिया। हालांकि संघ ने इस दूसरी विचारधारा की कभी परवाह नहीं की और इसके द्वारा किए जा रहे प्रचार के खिलाफ कभी बढ़-चढ़ कर खंडन भी जारी नहीं किया। संघ अपने कामों में लीन रहा और अपने तमाम प्रकल्पों के सहारे भारत में अपनी राजनीतिक सत्ता कायम करने के साथ-साथ सेवा का एक बड़ा संगठन भी खड़ा कर लिया।

वीएचपी के दिवंगत नेता अशोक सिंघल के साथ भागवत एवं राजनाथ सिंह

आरएसएस के लिए यहां तक पहुंचना कतई आसान नहीं रहा। महात्मा गांधी की हत्या के तत्काल बाद 4 फरवरी, 1948 को सरकार ने इस संगठन पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगा दिया कि बापू के हत्यारे संघ से जुड़े थे। हालांकि सरकार को एक साल बाद ही अप्रैल, 1949 में यह प्रतिबंध हटाना पड़ा। इसके बाद आपातकाल के दौरान एक बार फिर इसे प्रतिबंधित किया गया। लेकिन सत्ता परिवर्तन (जनता पार्टी शासन) के साथ प्रतिबंध हटा दिया गया। पहले प्रतिबंध से संघ को गहरा झटका लगा था क्योंकि तब जनमत भी पूरी तरह उसके खिलाफ हो गया था। इसके बावजूद उसने खुद को फिर से खड़ा किया। आपातकाल के समय प्रतिबंध में लाखों स्वयंसेवक भूमिगत रह कर सरकार के खिलाफ काम कर रहे थे। इस प्रतिबंध ने संघ को और मजबूत ही बनाया क्योंकि आपातकाल हटने के बाद उससे जुड़े नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी को पहली बार सत्ता का स्वाद चखने को मिला। इससे संघ की ताकत पहले से बहुत बढ़ गई। इसी ताकत और राजनीतिक रणनीतियों के बूते संघ अपने राजनीतिक चेहरे भारतीय जनता पार्टी को अगले दो दशकों में सत्ता के केंद्र में लाने में कामयाब रहा। इसके बावजूद समाज का एक बड़ा तबका अब भी इससे दूरी बनाए हुए था।

संघ की शाखा में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी

26 मई 2014 को तमाम राजनीतिक पंडितों की भविष्यवाणी से ऊपर जाकर गुजरात के कद्दावर मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली तो अचानक आम जनता की दिलचस्पी भारतीय जनता पार्टी के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में बढ़ गई। इंटरनेट सर्च इंजन पर संघ को खोजने की होड़ लग गई और लोगों को लगने लगा कि इस ऐतिहासिक घटना में संघ की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। यह सच है कि सत्ता में आने के बाद भाजपा का आधार बढ़ा। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सदस्य संख्या 10 करोड़) से आगे भाजपा ने अपनी सदस्य संख्या (11 करोड़) कर ली है। दुनिया की सबसे बड़ी सदस्य संख्या वाली पार्टी होने के बावजूद भाजपा में संगठन से लेकर सत्ता तंत्र तक संघ का वर्चस्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। अगर संघ के सदस्यों की सत्ता में मौजूदगी की बात की जाए तो सबसे पहले तो गिनती प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से ही शुरू करनी होगी। मोदी खुद संघ के पूर्णकालिक प्रचारक रहे हैं। उनकी सरकार के कई मंत्री मसलन राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, मनोहर पर्रिकर, रविशंकर प्रसाद, उमा भारती, अनंत कुमार, बंडारू दत्तात्रेय, सदानंद गौड़ा, श्रीपद नाईक, फग्गन सिंह कुलस्ते, अनिल माधव दवे, राजन गोहैन आदि या तो सीधे-सीधे संघ के प्रचारक रहे हैं या संघ से जुड़े किसी संगठन में लंबे समय तक काम किया है। पार्टी के कई मुख्यमंत्री और राज्यपाल तक संघ की शाखा में दीक्षित हुए हैं। केंद्र में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अपनी पूर्ण बहुमत में आई सरकार के बाद संघ का दखल बिना शक सत्ता में बढ़ा है। मोदी सरकार ने जिन आधा दर्जन राज्यपालों की नियुक्ति की है वे संघ के खांटी स्वयंसेवक रहे हैं और पूर्णकालिक के रूप में काम करते रहे हैं। फिर भी संघ चाहता है कि उसे राजनैतिक संस्था के बजाय सेवा कार्यों की संस्था के रूप में ही जाना जाए। यह चाह ऐसे ही नहीं है। संघ लंबे समय से विभिन्न प्रकल्पों के माध्यम से सेवा कार्यों में जुटा रहा है। संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख डॉ. मनमोहन वैद्य संघ पर चल रही बहसों को बहुत तवज्जो नहीं देते। संतुलित बोलने वाले डॉ. वैद्य कहते हैं, ‘संघ सिर्फ शाखा चलाता है। वह सेवा कार्यों को प्राथमिकता देता है। पूरे भारत में संघ का प्रभाव बढ़ रहा है, इससे कतई इनकार नहीं किया जा सकता। जो शाखाएं सन 2012 में 34,800 थीं सन 2014 में 39,400 हुईं और सन 2016 में इनकी संख्या 50,700 हो गई है। संघ सिर्फ राजनीति करता है ऐसा नहीं है, यह कुटुंब को साथ लेकर चलता है। संघ से व्यक्ति नहीं परिवार जुड़ता है।’ यह सभी जानते हैं कि संघ समाज के लिए काम कर के ही अपनी पहचान बनाना चाहता है। लंबे समय तक संघ से जुड़े रहने के बाद भाजपा में आए एक नेता कहते हैं, ‘सेवा कार्यों में पूरे समर्पण से जुटे रहने के बावजूद स्वयंसेवकों को इस बात का मलाल रहा है कि उसके सेवा कार्यों को नजरंदाज करते हुए केवल हिंदूवादी विचारधारा तक सीमित कर देखा जाता है। अब सरकार के जरिए संघ न केवल अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ा रहा है बल्कि समाज के निचले तबके को आगे लाने के लिए पं. दीनदयाल उपाध्याय अंत्योदय विचारधारा को सरकार के एजेंडे में शामिल भी करा रहा है।’ जब भाजपा सरकार बनी थी तब कयास लगाए जा रहे थे कि संघ और भाजपा के बीच टकराहट की संभावना बढ़ेगी क्योंकि संघ से पुराना नाता और सरसंघचालक मोहन भागवत के गुरुभाई होने के नाते संघ मोदी पर दबाव बनाए रखेगा। लेकिन संघ के साथ नरेन्द्र मोदी ने ‘फाइन ट्यून’ करने की कुशलता हासिल कर ली है। शुरुआती दौर में सरसंघचालक मोहन भागवत के बयानों से भाजपा मुश्किल में जरूर आई थी मगर अब संघ के बयान सरकार को मुसीबत में डालने वाले नहीं होते हैं।

केंद्रीय मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और पार्टी अध्यक्ष के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 

दरार, तकरार, करार

यह न कहीं लिखा गया है न बोला गया है। लेकिन दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ पढ़ा जा सकता है। संघ और भाजपा के बीच न तुम बोले न मैंने कुछ सुना की तर्ज पर कुछ मुद्दों पर बात बिलकुल नहीं होती है। गैर भाजपाई सरकार के दिनों में संघ राममंदिर मुद्दा, समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 पर अक्सर बयानबाजी करते हुए दिखाई देता था। भाजपा के जम्मू-कश्मीर में पीडीपी की सरकार बनने के बाद भी संघ ने अनुच्छेद 370 पर स्पष्टता की मांग की थी। फिर अचानक सब कुछ ठंडे बस्ते में चला गया। अब यह मुद्दा जनता के मंच पर या उनके सामने आने के बजाय सिर्फ बैठकों की चर्चा तक सीमित रह जाता है। संघ के कुछ वरिष्ठ पदाधिकारी अभी भी अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता पर बात और बहस चाहते हैं। लेकिन सूत्र बताते हैं कि नागपुर ने इस मसले पर लाल झंडी ठोंक रखी है। यही वजह है कि अब संघ न मंदिर मुद्दे पर सरकार को घेरता है न अनुच्छेद 370 पर। संघ से जुड़े वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘मंदिर बनाना सरकार का काम है और वह बखूबी जानती है कि उसे यह कदम कब उठाना है। यह भी सोचना गलत है कि संघ अध्यापक की तरह छड़ी लेकर भाजपा को छात्र समझ कर उसके पीछे पड़ा रहता है। संघ का काम अलग है, सरकार का अलग और इसे लेकर कोई असमंजस नहीं है।’ अनुच्छेद 370 पर वह कोई टिप्पणी नहीं करते। हालांकि विश्व हिंदू परिषद अब भी यदाकदा सरकार को मंदिर मुद्दे को लेकर घेर लेती है लेकिन विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण भाई तोगड़िया के विचारों को उग्र हिंदूवादी मान कर छोड़ दिया जाता है। फिर तोगड़िया और मोहन भागवत में बहुत अंतर है। मोहन भागवत का किसी भी मुद्दे पर बोलना सुर्खियों में आ जाता है और सरकार सीधे-सीधे जवाबदेह हो जाती है क्योंकि माना जाता है कि संघ और भाजपा सरकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संघ के किसी भी क्रियाकलाप से यह नहीं लग रहा है कि अब वह मंदिर मुद्दे पर कोई आंदोलन छेड़ेगा। अगले साल उत्तर प्रदेश में चुनाव होने हैं, लेकिन इस बार चुनाव का रंग अलग है। राम से जुड़े भगवा रंग को धूसर रंग के मेक इन इंडिया के मशीनी शेर ने ढक लिया है।

संघ के स्वयंसेवकों के साथ नरेंद्र मोदी

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार होने के कारण भाजपा की स्थिति मजबूत है और पिछली सरकार (1998) के मुकाबले संघ सरकार के प्रति नरमी बरत रहा है। संघ प्रमुख ऐसी कोई बयानबाजी नहीं कर रहे जिससे सरकार मुसीबत में आए। संघ का अड़ियल रवैया भी बदला है और यदि कोई काम उसकी इच्छा के विपरीत हो भी रहा है तो वह उग्र होने के बजाय उसे शांतिपूर्ण ढंग से करने को प्राथमिकता दे रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इसकी एक वजह नरेन्द्र मोदी का खुद का दबंग व्यक्तित्व भी है। अटल बिहारी वाजपेयी मोदी के मुकाबले ‘सबमिसिव’ प्रधानमंत्री थे। इस बार संघ से जुड़े लोगों को मोदी ने अच्छे पद देने में भी कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता हल्के-फुल्के अंदाज में कहते हैं, ‘एक म्यान में एक ही तलवार रह सकती है। जाहिर सी बात है म्यान मोदी जी की है सो तलवार भी उन्हीं की रहेगी।’ देश में भारतीय जनता पार्टी पहली राजनीतिक पार्टी थी, जिसने पिछले चुनावों में वायदा किया था कि सत्ता में आने पर वह समान नागरिक संहिता कानून बनाएगी। भाजपा सरकार ने 2016 में विधि आयोग से कहा कि वह समान नागरिक संहिता लागू करने के मुद्दों पर कानूनी प्रारूप तैयार करे। वैसे यह मुद्दा 1985 से विवादों में रहा है। शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पर्सनल लॉ पर भी समान नागरिक संहिता लागू करने संबंधी फैसला दिया था, लेकिन राजीव गांधी सरकार ने संसद में प्रस्ताव पारित कर कोर्ट के फैसले को बदलवा दिया था।

 

युवा लक्ष्य

संघ की नजर युवाओं पर है जो भारत की आबादी में बड़ी संख्या में हैं। हाल ही में संघ ने दिल्ली विश्वविद्यालय से ‘उड़ान’ नाम के एक कार्यक्रम की शुरुआत की है। इसकी कमान सह-सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल खुद संभाल रहे हैं। इस कार्यक्रम में संघ की विचारधारा में यकीन रखने वाली नामी फिल्मी हस्तियों को जोड़ा गया है। इनमें अनुपम खेर, मालिनी अवस्थी, अद्वैता काला, डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी शामिल हैं। अगले साल से इस कार्यक्रम को भारत भर के शैक्षणिक संस्थानों में करने का लक्ष्य है। कृष्णगोपाल छात्रों के साथ सहजता के साथ घुलते-मिलते हैं, उन्हें राष्ट्रवाद का महत्व समझाते हैं और कला के माध्यम से देश से जुड़ने का आह्वान करते हैं। उड़ान के समापन समारोह में कृष्ण गोपाल ने रामनगर की रामलीला से लेकर पूर्वोत्तर के रुक्मिणी विवाह नाटक को लेकर भारत की सांस्कृतिक एकता की बात कही। उद्देश्य स्पष्ट था, युवाओं को संघ की विचारधारा से जोडऩा। 

 

संघ के कार्यक्षेत्र

देश के 33,222 स्थानों पर करीब 50,700 शाखाएं संचालित, जिनकी संख्या 90,000 तक पहुंचाने का लक्ष्य है।

करीब 4 हजार प्रचारकों की संख्या

संघ से जुड़ी प्रमुख संस्थाएं :

विश्व हिंदू परिषद

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद

भारतीय मजदूर संघ

भारतीय किसान संघ

हेडगेवार ब्लड बैंक, करीब 3000 स्वास्थ्य केंद्र और करीब 400 मोबाइल क्लिनिक

केशव सहकारी बैंक

वनवासी कल्याण आश्रम (संबद्ध स्कूलों में 1,00,000 छात्र और 7,000 छात्र छात्रावासों में पढ़ते हैं)

एकल विद्यालय (करीब 52,000 गांवों में)

विद्या भारती (करीब 20,000 स्कूल,22,00,000 छात्र और 93,000 शिक्षक)

सरस्वती शिशु मंदिर

सेवा भारती, विज्ञान भारती, संस्कार भारती, बालकुलम

 

माधव सदाशिव गोलवलकर

समान नागरिक संहिता की आवश्यकता नहीं : गुरु गोलवलकर

20 अगस्त 1972 को दिल्ली में दीनदयाल शोध संस्थान का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री माधव सदाशिव गोलवलकर जी (गुरुजी) ने अपने भाषण में कहा कि समान नागरिक संहिता के प्रश्न का, राष्ट्रीय एकात्मता की समस्या या राष्ट्रीयता की भावना से कोई संबंध नहीं। उसी दिन दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक अखबार ‘मदर लैंड’ के संपादक के. आर. मलकानी को दी गई भेंटवार्ता में श्री गुरु गोलवलकर जी ने अपने उपरोक्त मत को दोहराया। प्रस्तुत हैं उसी इंटरव्यू के अंश :

 

राष्ट्रीयता की भावना के पोषण के लिए क्या आप समान नागरिक संहिता को आवश्यक नहीं मानते?

मैं नहीं मानता। इससे, आपको या अन्य बहुतों को आश्चर्य हो सकता है। परंतु यह मेरा मत है और जो सत्य मुझे दिखाई देता है वह मुझे कहना ही चाहिए।

क्या आप यह नहीं मानते कि राष्ट्रीय एकता की वृद्धि के लिए देश में एकविधता आवश्यक है?

समरसता (हारमनी) और एकविधता (यूनीफार्मिटी) दो अलग-अलग बातें हैं। एकविधता जरूरी नहीं है। भारत में सदा अपरिमित विविधताएं रही हैं। फिर भी अपना राष्ट्र, दीर्घकाल तक अत्यंत शक्तिशाली और संगठित रहा है। एकता के लिए एकविधता नहीं, अपितु समरसता आवश्यक है।

पश्चिम में राष्ट्रीयता का उदय, कानूनों में एकवाक्यता और अन्य एकविधताएं स्थापित करने का काम, साथ ही हुआ है।

यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व-पटल पर यूरोप का आगमन अभी हाल की घटना है और वहां की सभ्यता भी अभी नई ही है। पहले उसका कोई अस्तित्व नहीं था और हो सकता है कि भविष्य में वह सभ्यता न भी रहे। मेरे मतानुसार प्रकृति अत्यधिक एकविधता नहीं चाहती। अत: भविष्य में ऐसी एकविधताओं का पश्चिमी सभ्यता पर क्या परिणाम होगा, इस संबंध में अभी से कुछ कहना बड़ी जल्दबाजी होगी। आज और अभी की अपेक्षा हमें बीते हुए सुदूर अतीत में झांकना चाहिए और सुदूर भविष्य की ओर भी दृष्टि दौड़ानी चाहिए। अनेक कार्यों के परिणाम सुदीर्घ, विलंबकारी एवं अप्रत्यक्ष होते हैं। इस विषय में सहस्रावधि वर्षों का हमारा अनुभव है, प्रमाणित सिद्ध हुई समाज-जीवन की पद्धति है और इनके आधार पर हम कह सकते हैं कि विविधता और एकता साथ-साथ रह सकती है तथा रहती है।

संविधान के निर्देशक सिद्धांतों में कहा गया है, राज्य, समान नागरिक संहिता के लिए प्रयत्न करेगा?

यह ठीक है। ऐसा नहीं कि समान नागरिक संहिता से मेरा कोई विरोध है, किंतु संविधान में कोई बात होने मात्र से ही वांछनीय नहीं बन जाती। फिर यह भी तो है कि अपना संविधान कुछ विदेशी संविधानों के जोड़-तोड़ से निर्मित हुआ है। वह न तो भारतीय जीवन दृष्टिकोण से रचा गया है और न उस पर आधारित है।

क्या आप यह मानते हैं कि समान नागरिक संहिता का विरोध मुसलमान केवल इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखना चाहते हैं?

किसी वर्ग, जाति अथवा संप्रदाय द्वारा निजी अस्तित्व बनाए रखने से मेरा तब तक कोई झगड़ा नहीं है जब तक कि वह इस प्रकार का अस्तित्व राष्ट्रभक्ति की भावना से दूर हटाने का कारण नहीं बनता। मेरे मत से कुछ लोग समान नागरिक संहिता की आवश्यकता इसलिए महसूस करते हैं कि उनके विचार में मुसलमानों को चार शादियां करने का अधिकार होने के कारण उनकी आबादी में असंतुलित वृद्धि हो रही है। मुझे भय है कि समस्या के प्रति सोचने का यह एक निषेधात्मक दृष्टिकोण है। मेरा दृष्टिकोण पूर्णत: भिन्न है। जब तक मुसलमान इस देश और यहां की संस्कृति से प्यार करता है, उसका अपनी जीवन-पद्धति के अनुसार चलना स्वागत योग्य ही है। मेरा निश्चित मत है कि मुसलमानों को राजनीति खेलनेवालों ने खराब बनाया है। कांग्रेस ही है जिसने केरल में मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित कर देश भर में मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है।

इन्हीं तर्कों के आधार पर क्या यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदू-कोड का निर्माण किया जाना भी अनावश्यक और अवांछनीय है?

मैं निश्चित रूप से मानता हूं कि हिंदू-कोड, राष्ट्रीय एकता और एकसूत्रता की दृष्टि से पूर्णत: अनावश्यक है। युगों से अपने यहां असंख्य संहिताएं रही हैं किंतु उनके कारण कोई हानि नहीं हुई। अभी-अभी तक केरल में मातृसत्तात्मक पद्धति थी। उसमें कौन सी बुराई थी? प्राचीन और आधुनिक सभी विधिशास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि कानूनों की अपेक्षा रूढ़ियां अधिक प्रभावी होती हैं और यही होना भी चाहिए। ‘शास्त्राद् रूढ़िर्बलियसी’ शास्त्रों ने कहा है कि रूढ़ियां शास्त्रों से अधिक प्रभावी हुआ करती हैं तथा रीतियां स्थानीय या समूह-संहिता हुआ करती हैं। स्थानीय रीति-रिवाजों या संहिताओं को सभी समाजों द्वारा मान्यता प्रदान की गई है।

यदि समान नागरिक कानून जरूरी नहीं है तो समान दंड-विधान की भी क्या आवश्यकता है?

इन दोनों में एक अंतर है। नागरिक संहिता का संबंध व्यक्ति एवं उसके परिवार से है, जबकि दंड-विधान का संबंध न्याय और व्यवस्था तथा अन्य असंख्य बातों से है। उसका संबंध न केवल व्यक्ति से है अपितु वृहद् रूप में वह समाज से भी संबंधित है।

अपनी मुस्लिम बहनों को पर्दे में बनाए रखना और बहुविवाह का शिकार होने देना क्या वस्तुत: योग्य है?

मुस्लिम प्रथाओं के प्रति आपकी आपत्ति यदि मानवीय कल्याण के व्यापक आधार पर हो तब तो यह उचित है। ऐसे मामलों में सुधारवादी दृष्टिकोण ठीक ही है। परंतु यांत्रिक ढंग से कानूनों जैसे बाह्यवर्ती उपचारों द्वारा सब में समानता लाने का दृष्टिकोण रखना ठीक नहीं होगा। मुसलमान स्वयं ही अपने पुराने नियमों-कानूनों में सुधार करें। मुसलमान यदि इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि बहु-विवाह प्रथा उनके लिए अच्छी नहीं है, तो मुझे प्रसन्नता होगी। किंतु अपना मत मैं उन पर लादना नहीं चाहूंगा।

तब तो यह एक गहन दार्शनिक प्रश्न बनता प्रतीत होता है?

निश्चित ही यह ऐसा है। मेरा मत है कि एकविधता, राष्ट्रों के विनाश की सूचना है। प्रकृति एकविधता स्वीकार नहीं करती। मैं, विविध जीवन-पद्धतियों के संरक्षण के पक्ष में हूं। फिर भी ध्यान इस बात का रहना चाहिए कि ये विविधताएं राष्ट्र की एकता में सहायक हों। राष्ट्रीय एकता के मार्ग में वे रोड़ा न बनें।

(23 अगस्त 1972, साभार : श्रीगुरुजी : समग्र दर्शन, खंड-6, प्रकाशक : भारतीय विचार साधना, नागपुर, प्रकाशन वर्ष 1974)

गुरु गोलवलकर के साथ अटल बिहारी वाजपेयी

‘जरूरी है सत्ता के मद पर नियंत्रण’

‘लोग यह भी अनेक बार बोलते हैं कि राजसत्ता का बड़ा प्रभाव होता है। किंतु राजसत्ता के कारण हमारा दिमाग ठीक रहेगा, बुद्धि ठीक रहेगी, इसका विश्वास कहां है? राजसत्ता प्राप्त होने पर, अनेक अच्छे-अच्छे लोग भी विकृति से भर गए। यह सत्ता का प्रभाव है। उसका परिणाम होता ही है। मद रहता है उसका। फिर अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए, भले-बुरे सभी प्रकार के मार्गों का अवलंबन करने की इच्छा होती जाती है। अत: अगर सत्ता मिल गई, तो वह इन सब प्रकार के दुर्गुणों की शिकार बनकर राष्ट्र के लिए संकट नहीं बनेगी, ऐसा विश्वास कैसे और कहां से आएगा? यह विश्वास लाने के लिए एक ही उपाय है कि समग्र समाज को अपने स्नेह के, आत्मीयता के, ध्येयवाद के नियंत्रण से अपने साथ लेकर चलनेवाला प्रबल, संगठित, सामर्थ्यशाली हिंदू-समाज यदि राष्ट्रव्यापी बनकर खड़ा रहा तो राजसत्ता नियंत्रित रहेगी। फिर उसकी हिम्मत न होगी कि सिद्धांत के विपरीत कुछ करे। चाहे कोई भी दल राजसत्ता पर बैठे, हमें इस दलीय झमेलों से कुछ लेना-देना नहीं। परंतु सबको प्रणाम यहीं करना पड़ेगा, जहां समाज की निस्वार्थ सेवा मूर्तिमन्त प्रकट हुई है, ऐसी स्थिति उत्पन्न करना है। तभी तो देश में चलनेवाली सभी प्रकार की भयंकर बातों का सामना करने की क्षमता अपने समाज में आएगी। इसमें हम लोग विजयशाली बनकर आगे बढ़ेंगे। फिर से एक बार अपना शुद्ध हिंदू राष्ट्र प्रस्थापित है, ऐसा विश्व के सामने हम लोग प्रकट कर सकेंगे। हमें सोचना चाहिए कि इतनी बड़ी विपत्तियों से लड़ने की शक्ति का संग्रह करने का अत्यंत श्रेष्ठ और कठिन दायित्व अपने ऊपर है। उसी के अनुरूप हमारे प्रयत्न होने चाहिए।’

(संघ की प्रांतीय बैठक, भाग्यनगर में 2 दिसंबर 1970 को व्यक्त विचार का अंश। साभार : श्री गुरुजी : समग्र दर्शन, खंड-6, प्रकाशक : भारतीय विचार साधना, नागपुर, प्रकाशन वर्ष 1974)

 

सत्ता में संघ के पूर्व प्रचारक

नरेन्द्र मोदी ने विभिन्न राज्यों में राज्यपाल नियुक्त किए हैं, जिनका सीधे-सीधे संघ से जुड़ाव रहा है।

वी. षणमुगनाथन: मेघालय

पद्मनाभ आचार्य: नगालैंड

रामनाथ कोविद: बिहार

कप्तान सिंह सोलंकी: हरियाणा

ओ पी कोहली: गुजरात (हालांकि पहले सांसद भी रह चुके हैं। लेकिन कभी मंत्री नहीं रहे।)

तथागत रॉय: त्रिपुरा

आचार्य देवव्रत: हिमाचल

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी खांटी स्वयंसेवक रहे हैं और अब हरियाणा के मुख्यमंत्री हैं। वैसे भाजपा सरकार में मौजूद ऐसे मंत्रियों की सूची लंबी है, जो कभी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से जुड़े रहे थे या संघ की शाखाओं में नियमित जाते थे।

 

असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

पूर्वोत्तर में असम से आगाज

भारतीय जनता पार्टी के लिए पूर्वोत्तर में असम की जीत बहुत मायने रखती है। यह पहली बार है कि वहां भाजपा ने सरकार बनाई है। इस जीत का सेहरा भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सिर बांधा जाए लेकिन इस जीत का असली हकदार संघ ही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने लंबे समय जमीनी स्तर पर वहां काम किया और परिणाम के रूप में भाजपा की सरकार का जन्म हुआ। लंबे समय से पूर्वोत्तर में संघ के लिए काम कर रहे प्रांत प्रचारक सुनील मोहंती यह मानने में संकोच करते हैं कि भाजपा की इस जीत में संघ की भूमिका है। लेकिन वह यह जरूर मानते हैं कि संघ ने जमीनी स्तर पर लोगों को जोड़ा। पूर्वोत्तर में धनवंतरि सेवा यात्रा से संघ को अलग पहचान मिली। इस यात्रा में बाकी प्रदेशों से चिकित्सक पूर्वोत्तर के सुदूर गांवों में जाते हैं। मोहंती कहते हैं, ‘पूर्वोत्तर की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह खुद को अलग-थलग महसूस करता है। तिब्बत, म्यांमार, चीन की सीमा का वहां प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। लेकिन जब संघ ने वहां काम करना शुरू किया तब स्थानीय लोगों को समझाया गया कि वह इसी देश के बाशिंदे हैं और सीमा की सुरक्षा सिर्फ सेना का काम नहीं है। संघ ने वहां देशभक्ति की भावना को अलग रूप में सामने रखा। वहां लोगों के बीच पहचान बनाना जिसे आप आसानी से पैठ कह सकते हैं, के लिए जरूरी था वहां की संस्कृति को समझना।’ संघ ने काम बहुत साल पहले शुरू कर दिया था लगभग सन 1990 में। लेकिन सन 2010 में वनवासी कल्याण ने अरुणाचल प्रदेश में सीमा से सटे लोगों से मिलना शुरू किया। मोहंती कहते हैं, ‘किसी भी समुदाय के मूल धर्म की रक्षा महत्वपूर्ण है। इसी से स्वाभिमान जागता है। हम उस एकांतवास को खत्म करना चाहते थे जो पूर्वोत्तर के लोगों ने खुद के लिए चुन लिया था। वनवासी कल्याण ने संवाद बढ़ाया और जो उनकी छूटी हुई पहचान थी, विश्वास की जो डोर टूट गई थी उसे जोड़ने के लिए काम किया।’ पूर्वोत्तर में कई तरह के आदिवासी या कबीला समुदाय हैं। इन कबीलों के बीच अक्सर झड़पें होती रहती थीं। संघ ने इस बिंदु को न सिर्फ समझा और पहचाना इसे दूर करने के भी प्रयास किया। संघ के आनुषंगिक संगठनों ने मिल कर कबीलों के बीच सौहार्द का वातावरण बनाया। इसके बाद अरुणाचल से एक मुहिम शुरू की गई, ‘भारत मेरा घर।’ इसके तहत पूर्वोत्तर के लोगों को उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश जैसे अन्य प्रदेशों में लाया गया, घुमाया गया। उन्हें बाकी प्रदेशों की संस्कृति बताई गई। ठीक ऐसे ही दूसरे प्रदेशों के लोगों को पूर्वोत्तर ले जाया गया। इससे आपसी संबंधों में बहुत सुधार आया। संघ का मुख्य उद्देश्य उस एकांतवास को खत्म करना ही था जो सालों की मेहनत के बाद अब खत्म होने लगा है। संघ के आनुषंगिक संगठन वहां स्वावलंबी कार्यक्रम के तहत खेती भी सिखाते हैं। वहां के स्थानीय बाशिंदे अपने इतिहास पर गर्व कर सकें इसके लिए स्थानीय स्वतंत्रता आंदोलनकारियों के बारे में जानकारी दी जाती है। शिक्षा की व्यवस्था के लिए वहां विद्या भारती, विद्या निकेतन चलाता है। इन्हीं सब प्रयासों का नतीजा है कि भारतीय जनता पार्टी वहां कमल खिला पाई है।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय 

एकात्म मानववाद वाले दीनदयाल

जनसंघ के अखिल भारतीय अध्यक्ष रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय का यह जन्मशती वर्ष है। हाल ही में कालीकट में हुई भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की कि दीनदयाल जी के विचारों को घर-घर पहुंचाना है। वंचित तबके तक पहुंचना सरकार का लक्ष्य है। इसे देखते हुए पार्टी ने गरीब कल्याण एजेंडा बनाया है। सभी भाजपा सांसदों-विधायकों को ताकीद की गई है कि वह इस एजेंडे को आगे बढ़ाने में कोताही न बरतें। संघ के नेता के तौर पर पहचाने जाने वाले पं. उपाध्याय के लिए तैयारियां बहुत पहले से शुरू हो गईं थीं। दीनदयाल शोध संस्थान के महासचिव अतुल जैन बताते हैं, ‘दीनदयाल जी के विचार, भाषण, लेख सभी बातों को एक जगह लाने का प्रयास काफी दिनों से चल रहा है। 15 खंडों में पुस्तक तैयार है। इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता को अर्पित करेंगे। पुस्तक के संपादक डॉ. महेश चंद्र शर्मा हैं।’ इतने खंडों पर काम करना आसान नहीं था। पिछले 30 सालों से इस पर काम चल रहा था। साढ़े चार हजार पेज की किताब पर संघ की छाप कितनी होगी यह वक्त ही बताएगा लेकिन सत्ता यानी सरकार के स्तर पर एक बात साफ है कि दीनदयाल जी के बहाने सरकार अपनी छवि भी अलग तरह से बनाने की जुगत लगाएगी। दीनदयाल शोध संस्थान जन्मशती वर्ष में पूरे साल होने वाले कार्यक्रमों में भारत के संस्कृति मंत्रालय का नॉलेज पार्टनर यानी सहयोगी रहेगा। पूरे साल सौ स्थानों पर अलग-अलग वक्ता उनके विचारों का संदेश युवाओं को देंगे। जो विचार दीनदयाल जी ने सालों पहले दिए थे अब उन्हें लोग मानने लगे हैं। उनके दर्शन से लोगों को अवगत कराने का फायदा सरकार को भी अपरोक्ष रूप से होगा ही।

 

भारतीय जनता पार्टी द्वारा संघ की विचारधारा पर आधारित पिछले कुछ चुनावों में रखी गई मांगें और लक्ष्य फिलहाल स्थगित

 

1.समान नागरिक संहिता

2. अनुच्छेद 370 की समाप्ति

3. गोवध पर प्रतिबंध

4. अल्पसंख्यकवाद का खात्मा

5. अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण

 मनमोहन वैद्य

संघ कुटुंब प्रबोधन में विश्वास करता है कुटुंब समूह क्रिकेट, फिल्म, राजनीति छोडक़र अन्य विषयों पर बात करते हैं।

मनमोहन वैद्य

अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख

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