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जड़वाद

दस कहानी एवं तीन कविता संग्रह, तीन उपन्यास, सात बाल उपन्यास, अध्यात्म, धर्म-दर्शन पर चार पुस्तकें। कुल छत्तीस पुस्तकें प्रकाशित। फोन-0120 2547982
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पिछले दिनों से लगातार इन पहाड़ों के दृश्य, घाटियों और पेड़-पौधों के बारे में सोचता आ रहा हूं। ऊंचाइयों पर खड़े पेड़ों की स्वस्थ काया को ठंडी हवाओं में झूमते देखता हूं तो अनायास मन डोलने लगता है। घाटियां हैं कि दूर तक लंबी पसर गई हैं और उन पर खिंची सड़क किसी पसरी चीज को बांधने का उपक्रम जैसी लगती है।

अचानक यहीं लाल जी साहब से मुलाकात हो जाती है। आश्चर्य है कि गले तक पैसे में डूबा आदमी यहां कैसे आ पहुंचा है। मुझे देख लाल जी खुश हुए। बोले, ‘तुम यहां?’

‘हां, मैं यहीं का रहने वाला हूं, यहीं पास में मेरा घर है।’ बोले, ‘यह अच्छी जगह है।’

पहली बार लाल जी के मुंह से कुछ अच्छा होने की बात सामने आई है, वरना उनके लिए पैसे से अच्छी कोई दूसरी चीज नहीं।

अन्ना को लाल जी साथ लाए हैं। पिछले कुछ वर्षों से अन्ना के लिए किसी ठंडी जगह की तलाश उन्हें करनी पड़ती है। लेकिन इतने दिन अन्ना के साथ वे रह नहीं पाते। तब तक उसके साथ नौकर या रिश्तेदार-संबंधी कोई घूमने आता है तो अन्ना उसी के साथ रह लेती है।

लाल जी साहब ने अन्ना के लिए असंभव को भी संभव कर दिखाया है। इतना कुछ उसे दे दिया, जिसे वह ले न सकी। आदमी दुख के बोझ को झेल नहीं पाता, लेकिन सुख-सुविधाएं भी किसी को क्या दे पाती हैं। लगता है जरूरत से ज्यादा मिलने वाली सुविधाओं ने अन्ना को जड़ बना दिया है। अन्ना को कोई बीमारी नहीं। बात इतनी है कि सब कुछ होते हुए भी उसके मन में कोई इच्छा पैदा नहीं हो रही। जैसे सभी इच्छाएं समय से पहले पूरी हो चुकी हैं। इसलिए वह चुप रहती है, मस्तिष्क में सन्नाटा है। ठहरे हुए उस महाशून्य में चेतना नाम की कोई चीज नहीं। अन्ना बिलकुल बीमार नहीं। वह पहले से कहीं ज्यादा शांत और गंभीर हुई है, जैसे तपस्वी एकदम निर्विकार रहता है।

‘कहां ठहरे हैं?’ पूछा तो बोले, ‘चलो, ले चलता हूं।’

जंगल के बीच दुबके गांव और कहीं बाजार की यादें ताजा करती चंद दुकानें। यहां सभी कुछ है। दूर से देखने पर लगता है कि जंगल के सिवा कुछ नहीं। लेकिन इसी जंगल में घने पेड़ों के बीच पाइंस होटल भी सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है।

लाल जी अन्ना के बारे में मेरी राय जानना चाहते हैं। कितनी अच्छी जगह हो, कितना अच्छा मौसम, आदमी के पास हर जगह शिकायत होती है। लाल जी की बातों का उत्तर मैं नहीं देना चाहता। कुछ कहूंगा तो भड़क उठेंगे। उनका यही कहना होगा कि जिन लोगों के पास पैसा नहीं है, उन्हें पैसे में खराबियां ही नजर आती हैं।

उनकी बात को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन पैसा ही सब कुछ है, यह भी सच नहीं। पैसा बड़ी चीज है, लेकिन वह उतनी ही छोटी चीज क्यों नहीं हो सकती। मैंने कई बार पैसे को बदनाम और नाकारा होते देखा है।

मेरी नजर में पैसा सभी बुराइयों की जड़ है। वह हत्यारा है, बलात्कारी है, दुनिया में आतंक बनकर फैलने वाला एक मात्र पैसा ही तो है। ऐसे आतंकवादी की सजा सिर्फ मौत ही हो सकती है। सोचकर एक दिन भावुकता में आकर मैंने शुद्ध चांदी का रुपया रेल की पटरी पर रख दिया। इंजन का पहला दबका पड़ते ही वह फुटभर लंबा खिंच गया। पैसे की उस लाश को दिखाकर मैं लोगों से कहता रहा कि आज पैसा मर गया है, अब डरने की जरूरत नहीं। पर देखता हूं कि वह मरा नहीं, वह आज भी जिंदा रहकर सभी को डस रहा है।

उस दिन लाल जी का कहना था कि पैसे से सभी कुछ है। और मेरा कहना कि पैसा ही सब कुछ करता है तो अन्ना को अब तक ठीक हो जाना चाहिए था। डॉक्टरों को मुंह मांगा पैसा देने के बावजूद अन्ना की जड़ता अब तक बनी हुई है।

होटल में लाल जी ने एक स्पेशल सुईट बुक करा लिया था। कमरे में जाकर देखा कि अन्ना खिड़की के पास पलंग पर बैठी मिली। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें दूर तक घाटियों में फैल रही थीं। कमरे में हमारे आने का आभास भी उसे न हुआ। लाल जी साहब पलंग के पास पहुंचे, अन्ना के गाल पर हथेली रख उन्होंने मेरी तरफ उसका मुख फेर कर पूछा, ‘इन्हें जानती हो?’ अन्ना की खुली आंखें लगातार मुझे देखने लगीं। जैसे पहचानने की कोशिश कर रही हों। मुझे लगा कि उन आंखों में पहचान खो गई है। भीतर खाली पड़ा हो तो आंखों में कोई तसवीर नहीं बनती।

लाल जी साहब खुश थे। उस दिन मेरी तारीफ ही करते रहे। मेरी अगली-पिछली बातें भी उन्हें ठीक लगने लगीं। बोले, ‘तुम ठीक कहते हो, पैसा ही सब कुछ नहीं है, पैसा अपना नहीं होता। वक्त पर जो काम आए वही अपना है।’ लाल जी में अचानक परिवर्तन का कारण मैं समझ न सका। अन्ना उस वक्त सामने है। मन ही मन उस पर तरस आता है। एक समय था जब उसके चेहरे पर फैली मुस्कान को झेलना मुश्किल पड़ता था। अन्ना को कई तरह के शौक थे। नौकर को साथ रख मेजबानी करना, बच्चों के साथ बैठ हंसने-हंसाने और बूढ़े-बुजुर्गों की बातें ध्यान देकर सुनने में वह खासी दिलचस्पी रखती। लाल जी उसकी आदतों के बारे में सभी कुछ बताते गए और अंत में याचना भरे लहजे में बोले कि ‘मुझे कुछ जरूरी काम से वापस जाना है, तुम कुछ दिन अन्ना के साथ रह सको तो तुम्हारा उपकार कभी न भूलूंगा।’

लगा कि लाल जी गए तो फिर उनका लौटना मुश्किल है। सुबह मेरे हाथ में एक पर्स थमाकर लाल जी निकल गए। उनके जाने के बाद मैं कमरे में लौट आया। वहीं बैठकर मैंने पर्स खोला तो हजार-हजार के नोटों की इंच भर मुस्कान देख मन का पंछी ऊंचाइयों पर उड़ने लगा। सुना था कि पैसे की दुनिया है। अपनी एक दुनिया मेरे भीतर चक्कर लगाने लगी। अन्ना साथ न होती तो मनमाने ढंग से इसका काम तमाम कर देता। लेकिन अन्ना के साथ रहते वह सब बेकार लगने लगा।

मैंने पर्स एक किनारे रख दिया। यही चीज है जिसने आदमी की दुर्गत बनाई है। लेकिन जिसके पास पैसा नहीं, वह भी सद्गति को प्राप्त नहीं होता। पैसा है तो यहां भी लाल जी ने सब तरह की सुविधाएं जुटा रखी हैं। जो यहां भी अन्ना का साथ नहीं छोड़ रही हैं। इन्हीं के कारण अन्ना की जड़ता बढ़ी है। लगा कि सुख-सुविधाओं के चरम विकास के बाद ही पतन का सिलसिला शुरू हुआ है। अन्ना में सब कुछ मरा नहीं है। देर से ही सही, वह बात को समझ तो जाती है। जैसा कहा, वैसा करने में भी उसे आपत्ति नहीं।

हफ्ते भर बाद लाल जी का संदेश मिला। कहते हैं कि तुम पर पूरा भरोसा है। जैसा ठीक समझो करोï। लेकिन अन्ना के लिए कुछ भी असंभव नहीं होना चाहिए। पैसे की चिंता नहीं। लाल जी ने अपने लौट आने की बात नहीं की। शायद अब लौटेंगे भी नहीं।

अगले दिन अन्ना को कमरे से बाहर निकाल लाता हूं। गेट से बाहर निकलते ही उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और जंगल की ओर जाने वाली कच्ची सड़क पर धीरे-धीरे कदम बढ़ाने लगी। शायद कुछ कदम चलने की उसकी इच्छा रही हो। डॉक्टरों की हिदायत के तहत उसका चलना-फिरना बंद कर रखा था। जिस कारण वह सुबह से शाम तक डनलप के मखमली गद्दों पर ही लेटी, बैठी या आड़े-तिरछे पड़ी रहती थी। लगा कि ऊबड़-खाबड़ उस कच्चे रास्ते पर चलना उसे अच्छा लग रहा है। पेड़ों से छनकर आने वाली हवा की नाजुक छेड़खानी से उसे कोई शिकायत नहीं। क्योंकि इन पेड़ों के घने, चमकीले पत्तों की नोक पर अटकी शबनम की बूंदों को अन्ना देख नहीं पाती। वे ठंडी बूंदें कई बार उसकी गरदन पर टपक चुकी हैं, अन्ना ने उन्हें पोंछने की कोशिश नहीं की।

होटल से कुछ दूर हम निकल आए हैं। एक लंबी सांस छोड़ अन्ना वहीं बैठ जाती है। वह थक चुकी है। उसका थक जाना अच्छा लगा। कुछ देर बाद उसे वापस लौटने को कहता हूं। अन्ना वापस लौटना नहीं चाहती। न सही, जितनी देर बैठना चाहे, बैठी रहे। लेकिन कुछ देर बाद यहां भी धूप आ जाएगी, पहाड़ों पर पड़ने वाली तेज धूप; तब उसे वापस लाना मुश्किल होगा। कुछ कदम आगे मोड़ पर दुकानें लगी नजर आईं। मन प्राणों को ताजगी से भर देने वाले मोड़ भी जीवन में कभी-कभी ही आते हैं। अन्ना को वहीं गोबर-मिट्टी से पुते एक घर में ले जाता हूं। कमरे में आते ही वह कच्चे फर्श पर पसर जाती है। उसकी अधखुली विवश आंखें। पहली बार आंखों ने उसके थक जाने की बात तो कही है, जबकि पहले उन आंखों में शून्य के सिवा कुछ था ही नहीं। कमरे के ऊबड़-खाबड़ फर्श पर उसका पसर जाना अच्छा न लगा। लाल जी साहब का कहना कि वह बहुत नाजुक हो चुकी है। नाजुक है पर इस तंगदस्ती से परेशान नहीं। न पाइंस होटल के रेशमी गद्दे ही उसे आराम पहुंचा सके हैं।

अन्ना को लेकर मेरे मन में द्वंद्व उठ खड़ा हुआ है। सोचता हूं जब मन में दु:ख-दर्द और अभावों का संचार होगा, तभी सुख और आनंद की अनुभूति हो सकती है। यों सभी तरह के सुख-दुख आदमी के आसपास रहते हैं। यह उसकी क्षमता पर निर्भर करता है कि वह कहां से कितना कुछ ले पाता है।

अन्ना को यहीं रहना चाहिए। इसी जगह वह कुछ दिन रहेगी तो किसी निर्णय तक पहुंचा जा सकता है। सोचा, उसके खाने-रहने का अच्छा इंतजाम यहीं कर दिया जाए। लेकिन अच्छा क्या। यहां जो है, उतना ही ठीक है। जड़ता को सुविधाएं देकर उसे बरकरार रखना अपना काम नहीं है। जड़ता को तोड़ना है तो पांच सितारा होटलों की ऊंचाइयों से खींचकर उसे जमीनी सतह पर लाना जरूरी है। जंगल का यह अंधेरा कोना, गोबर-मिट्टी से संवारे गए घर और कच्चे फर्श पर फैली एक चटाई। अपने आप में कटु सत्य है। अन्ना को इस सत्य के करीब देखना चाहता हूं। पिछले दो दिनों से उसे खाने-रहने की वह सुविधा नहीं मिली। आइसक्रीम, जैम, बटर, मटन-चिकन जैसी बेहूदा चीजों की जगह खुश्क रोटी और उबला साग ही उसे मिला है। कभी दुकान से चना-चबेना लाकर सामने रखता हूं तो अन्ना उसे स्वाद से चबाने लगती है। लगता है भूख ने उसे होशियार कर दिया है।

समय और स्थितियां किसे कहां पटक दें, कुछ तय नहीं। कुछ भी बदलने में देर नहीं लगती। देखता हूं कि दस दिन में ही हर चीज के प्रति अन्ना की शिकायतें तेज होने लगी हैं। कभी खुश्क रोटी को लेकर तो कभी साग में मिर्च ज्यादा होने की शिकायत। बिछौने पर पड़ी गांठों के कारण नींद न आने की शिकायत वह तीसरे दिन से ही करने लगी थी। बोली कि आज की रात भी ठंड के कारण वह देर तक जागती रही है। मैंने उसे बताया कि यहां रात में ठंड बढ़ जाती है। तुम जब करवटें बदलती रही तो मैंने वह फटा कंबल तुम्हारे ऊपर डाल दिया था। अन्ना को याद आया, बोली ‘हां, लगा तो था कि तुमने कुछ कर दिया है। ठंड थी लेकिन उसके बाद गर्मी जब मिली तो मजे की नींद मैंने ली।’ लगा कि धीरे-धीरे अन्ना के भीतर खोया हुआ सभी कुछ लौटने लगा है। उस थोड़े समय में जब उसे अपनी स्थिति का बोध होने लगा तो एक दिन तीखे तेवर दिखाते बोली, ‘हम यहां कैसे आ पहुंचे हैं?’ ‘तुम्हीं चलकर यहां आई हो, तुम्हें यह जगह अच्छी लगी है।’ मैंने कहा।

अन्ना को वह सब अजीब-सा लगने लगा। कुल मिलाकर वह खुश थी। बोली, ‘जगह अच्छी है और तो यहां कुछ नहीं है।’

‘तुम ठीक कहती हो, यहां कुछ नहीं है, इसीलिए तुम्हें भूख लग रही है, नींद आ रही है, कुछ न होने के कारण तुम्हें कई दूसरी चीजों की जरूरत महसूस होगी। लेकिन अब हम यहां नहीं रहेंगे।’ अगली सुबह हम वापस होटल में लौट आए। आते ही उसने एक पत्र लाल जी के नाम लिखा और स्वयं उसे लेटर बॉक्स में डाल आई। अन्ना अब ठीक थी। चेतना लौटी तो उसका व्यक्तित्व भी निखर आया। लगा कि अब अन्ना के भीतर इच्छाओं के बांध तेजी से टूटने लगे हैं।

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