जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में खरपोरा गांव के लोग बताते हैं कि 14 दिसंबर की सुबह 8 बजे गोलीबारी शुरू हुई और 15 मिनट में खत्म भी हो गई। इस मुठभेड़ में तीन आतंकवादी और सात दूसरे लोग मारे गए। इसमें सेना के एक जवान की भी जान चली गई। रिटायर्ड शिक्षक अब्दुल खलीक नजर गांव से लगे धान के खेतों की तरफ इशारा करके कहते हैं, “फौज मेरे दो और पड़ोसी के दो बेटों को उधर ले गई और एनकाउंटर के दौरान मानव ढाल की तरह उनका इस्तेमाल किया।”
जहां सात लोग मारे गए, उस जगह को दिखाते हुए गांववाले बताते हैं कि एनकाउंटर खत्म होने के बाद सेना ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं। गांववालों के मुताबिक यह भी कोरा झूठ है कि भीड़ सेना पर पत्थर फेंक रही थी और सेना ने बचाव में जवाबी कार्रवाई में गोलियां चलाईं। नजीर कहते हैं, “कुछ लड़के पत्थर फेंक भी रहे थे तो वे उनके पैरों पर गोली चला सकते थे, लेकिन गोली तो सीने पर मारी गई।” गांववालों का आरोप है कि यह घटना दक्षिण कश्मीर में हाल के पंचायत और नगर निकाय के चुनावों में कम मतदान के लिए “दंडित करने” जैसी थी। गांव के एक युवा का कहना था, “वोट न करना राजनैतिक राय की अभिव्यक्ति है। लेकिन हम अपनी अभिव्यक्ति की कीमत इस तरह खून-खराबे से चुकाते हैं।”
अक्टूबर में दक्षिण कश्मीर के चार जिलों शोपियां, कुलगाम, अनंतनाग और पुलवामा में 20 नगर पालिकाओं के लिए हुए नगर निकाय चुनाव में 40,004 मतदाताओं में से मात्र 600 लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया था। 1.6 फीसदी के साथ यह अब तक का सबसे कम मतदान था। इसी क्षेत्र में 11 दिसंबर को हुए पंचायत चुनावों में भी मतदान का प्रतिशत कम था। शोपियां और पुलवामा में तो मतदान हुआ ही नहीं। अप्रैल 2016 में जब से महबूबा मुफ्ती ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के लिए अनंतनाग संसदीय सीट से इस्तीफा दिया, तब से लोकसभा में दक्षिण कश्मीर का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। चुनाव आयोग ने अनंतनाग में 2017 में उपचुनाव टाल दिए थे, क्योंकि राज्य सरकार ने स्थिति अनुकूल न होने की बात कही थी।
घाटी की मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियां भी 14 दिसंबर की पुलवामा घटना को “कत्लेआम” बताती हैं और आगाह करती हैं कि पहले से ही खराब स्थितियां अब और बदतर हो जाएंगी। कश्मीर 2008 के बाद से इस साल सबसे ज्यादा हत्याओं का गवाह रहा है। मारे गए लोगों में 253 आतंकवादी, 84 आम लोग और 97 सरकारी कर्मचारी हैं। राजनैतिक पार्टियों को संदेह है कि पुलवामा की घटना को केंद्र सरकार विधानसभा चुनाव को और टालने के बहाने की तरह इस्तेमाल करेगी। इसी वजह से सभी पार्टियां जल्द चुनाव की मांग कर रही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला का कहना है कि राज्यपाल सत्यपाल मलिक को लोगों की जानमाल की सुरक्षा बरकरार रखने पर ध्यान देना चाहिए। वे कहते हैं, “दुखद है कि बस यही मौजूदा प्रशासन नहीं कर रहा है।” पीडीपी की महबूबा मुफ्ती भी इससे सहमत हैं। वे कहती हैं, “दक्षिण कश्मीर पिछले छह महीने से डर के साए में जी रहा है। गवर्नर शासन से हमें क्या यही अपेक्षा थी?” पुलवामा की घटना वाले दिन ही राज्यपाल ने 2019-20 के 88,911 करोड़ रुपये के बजट को मंजूरी दे दी। पार्टियां इसे केंद्र सरकार द्वारा लंबे समय तक राज्यपाल शासन के संकेत के रूप में देख रही हैं।
पीडीपी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, “सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश हैं कि राज्यपाल शासन के छह महीने के अंदर ही चुनाव करा लेने चाहिए। लेकिन चुनाव के बजाय राज्यपाल मलिक ने अगले छह महीने के लिए राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की है। इसका मतलब है विधानसभा चुनाव नहीं होंगे।” 20 दिसंबर को छह महीने के राज्यपाल शासन की समाप्ति के बाद राष्ट्रपति शासन शुरू हो चुका है।
इस जून में पीडीपी-भाजपा सरकार के गिर जाने और नवंबर में विधानसभा भंग होने के बाद से ही नेशनल कॉन्फ्रेंस बार-बार विधानसभा चुनाव कराने की मांग कर रही है। पार्टी के एक नेता पूछते हैं, “राज्यपाल शांतिपूर्ण ढंग से पंचायत और नगर निकाय चुनाव कराने का श्रेय ले रहे हैं तो फिर उनका प्रशासन विधानसभा चुनाव कराने की दिशा में कोई प्रतिबद्धता क्यों नहीं दिखा पा रहा है?”
2008 से 2014 के बीच कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार चलाने वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस हाल में हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस की जीत से बहुत उत्साहित है और उम्मीद कर रही है कि 2019 में भाजपा की राह आसान नहीं रहेगी। 2014 में भाजपा ने जम्मू क्षेत्र में 37 में से 25 सीटें जीत ली थीं।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने हाल ही में दावा किया था कि जम्मू-कश्मीर के लोगों को भाजपा पर पूरा विश्वास है और भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सदन में पहुंचेगी। इस दावे पर उमर पूछते हैं, “भाजपा लोगों के समर्थन के प्रति इतनी ही आश्वस्त है तो वह चुनाव घोषित करके अपने दावे की सच्चाई परख क्यों नहीं लेती?”
लेकिन सरकार इस प्रलोभन में फंसने को तैयार नहीं दिखती है। यकीनन, पुलवामा की घटना ने फिलहाल तो चुनावों को और दूर ही कर दिया है। हालांकि केंद्र अगर वाकई इसी राह पर बढ़ने की सोच रहा है तो यह खतरनाक हो सकता है।