आगरा में एक दलित किशोरी को दिन-दहाड़े जला दिया जाता है क्योंकि वह दो गुंडों द्वारा अपने साथ की जा रही अभद्रता का विरोध कर रही थी। समय-समय पर देश के विभिन्न स्थानों से लगातार बलात्कार और महिलाओं के चेहरों पर तेजाब डालने और बहुओं को घर के भीतर दहेज के लिए जलाने की खबरें आती रहती हैं, अपनी इच्छा से जाति-धर्म से बाहर प्रेम और विवाह करने के कारण प्रेमी या विवाहित जोड़ियों को मार डालने की घटनाएं भी अखबारों की सुर्खियों में छाई रहती हैं। केरल के सबरीमला मंदिर में रजस्वला स्त्रियों के प्रवेश पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद हंगामा मचा हुआ है। ये सब घटनाएं समाज, धर्म, विचारधारा और आस्था में अनुस्यूत उस व्यवस्था का प्रतिफलन हैं जिसे आम तौर पर पितृसत्ता कहा जाता है। इस व्यवस्था के मूल में हमारे परिवार की संरचना और उसकी नींव में प्रतिष्ठित यह धारणा है कि परिवार का मुखिया पुरुष है और परिवार के सभी सदस्यों को उसके द्वारा दिए गए आदेश और व्यवस्था को मानना होगा।
इसी के साथ यह धारणा भी जुड़ी है कि स्त्री का दर्जा हर हाल में दोयम और पुरुष से नीचे है और स्त्री-पुरुष संबंधों में पुरुष की इच्छा ही सर्वोपरि है। स्त्री का कर्तव्य हर हाल में उसे मानना है। पितृसत्ता भारत में ही नहीं, कमोबेश दुनिया के सभी देशों और समाजों में वर्चस्व जमाए हुए है। इतना अंतर जरूर है कि विकसित देशों में इसके स्थूल रूप तो समाप्त होते जा रहे हैं या फिर कमजोर पड़ रहे हैं लेकिन सूक्ष्म रूपों में यह अभी भी प्रभुत्वकारी है। कम विकसित देशों और समाजों में पितृसत्ता आज भी बेहद मजबूत है।
अपने परिवारों में हम हर रोज इस पितृसत्ता का अनुभव करते हैं। बहुत कम परिवार होंगे, जिनमें बेटे और बेटी के बीच भेदभाव न किया जाता हो और बेटे को हर बात में तरजीह न दी जाती हो। बचपन से ही यह बात बच्चों के मन में कूट-कूट कर भर दी जाती है कि लड़का, लड़की से श्रेष्ठ है। यही व्यवस्था विवाह के बाद जारी रहती है। फैसले लेने में महिलाओं की भूमिका अक्सर नगण्य होती है। यूं भी पितृसत्ता के मूल में ही स्त्री को सभी अधिकारों से वंचित करके उसे पूर्णत: पुरुष पर निर्भर और उसके अधीन बना देने की धारणा है। इसका शिकार पुरुष भी होते हैं और पितृसत्ता को आत्मसात करके अक्सर स्त्रियां भी स्वेच्छा से उसी के मूल्यों का पालन करती हैं। पिता दशरथ की आज्ञा मानकर निरपराध होते हुए भी चौदह साल के वनवास की सजा को स्वीकार करके राम का वन जाना और पिता जमदग्नि की आज्ञा शिरोधार्य करके परशुराम का अपनी माता रेणुका का फरसे के एक वार में शिरच्छेद कर देना भी इसी पितृसत्ता के अमानवीय चेहरे पर रोशनी डालता है। चारों पांडव भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव अपने सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर के फैसले और आदेश मानने के लिए बाध्य थे, चाहे वे फैसले और आदेश कितने ही अव्यावहारिक या मूर्खतापूर्ण क्यों न हों।
पितृसत्ता समाज और विचारधारा को गढ़ने वाला सिद्धांत है और इसी के आधार पर हमारे पूरे सामाजिक और वैचारिक जगत का संचालन होता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि परिवार और निजी संपत्ति के अस्तित्व में आने से पहले ही पितृसत्ता अस्तित्व में आ चुकी थी। यानी आबादी के आधे हिस्से की गुलामी के बीज प्रागैतिहासिक युग में ही पड़ने लगे थे।
पिछले दिनों #मीटू आंदोलन ने बहुत सशक्त ढंग से सामाजिक विमर्श में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी। उसका केंद्रीय सरोकार भी यही था कि किसी भी प्रकार के संबंध में स्त्री की इच्छा और उसकी सहमति अनिवार्य है। पुरुष उस पर अपनी मर्जी नहीं थोप सकता, विशेषकर शारीरिक संबंध स्थापित करने के मामले में। इस संदर्भ में महाभारत के आदिपर्व के अंतर्गत आने वाले ‘संभवपर्व’ में ऋषि उद्दालक और उनके पुत्र श्वेतकेतु की कथा का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा। एक दिन एक ब्राह्मण आया और बलपूर्वक श्वेतकेतु की माता को खींच कर ले जाने लगा। इस पर श्वेतकेतु ने अपने पिता से पूछा कि वह इसका विरोध क्यों नहीं करते, तो उन्होंने कहा कि यही सनातन धर्म है। इस प्रकार खुल्लमखुल्ला अपनी माता की इच्छा के विरुद्ध उन पर बलात्कार होते देखकर क्रुद्ध हुए श्वेतकेतु ने बड़े होकर विवाह की मर्यादा बांधी और विवाहेतर संबंध बनाने के लिए पति और पत्नी को समान रूप से दोषी निर्धारित किया। लेकिन इसके पीछे भी एक पितृसत्तात्मक प्रेरणा काम कर रही थी, क्योंकि श्वेतकेतु ने स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसके साथ शारीरिक संबंध बनाने पर तो प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन संतानोत्पत्ति करने में असमर्थ पति यदि उसे किसी अन्य व्यक्ति के साथ नियोग करने की आज्ञा दे, चाहे पत्नी की उस व्यक्ति के पास जाने की इच्छा हो या न हो, तो पत्नी उसे मानने के लिए बाध्य थी। यानी एक प्रकार के बलात्कार से निकाल कर स्त्री को दूसरे प्रकार के बलात्कार में झोंकने में ऋषि श्वेतकेतु को भी कोई झिझक नहीं हुई। स्त्री की सहमति या असहमति उनके लिए भी कोई बुनियादी मूल्य नहीं बनी, जिन्हें अपनी मां के साथ उनकी इच्छा के विरुद्ध शारीरिक संबंध बनते देखकर असह्य पीड़ा और क्रोध का अनुभव हुआ था।
वर्चस्व और प्रभुत्व केवल शक्ति के बल पर ही कायम नहीं किए जाते, उनकी वास्तविक प्रतिष्ठा तब होती है जब उन्हें उनकी गिरफ्त में आने वाला भी आत्मसात कर लेता है। भारत में औपनिवेशिक शासकों की सबसे बड़ी विजय यही थी कि भारतीयों ने अपने-आपको अंग्रेजों की तुलना में हीन समझना शुरू कर दिया था और बहुत हद तक आज भी समझते हैं। इसी तरह पितृसत्ता की सबसे बड़ी विजय यही है कि इसके वर्चस्व के कारण स्त्रियां भी खुद को पुरुषों के सामने हीन महसूस करने लगती हैं। परिवार के भीतर पितृसत्तात्मक विचारों को बच्चों के मन में माताएं और बहनें ही भरती हैं।
कबीर जैसे विद्रोही संत माया के ठगिनी रूप का वर्णन अनेक देवताओं की पत्नी के रूप में तो करते ही हैं, साथ में यह भी कहते हैं: “नारी की झांई परत, अंधा होत भुजंग। कह कबीर तिन की गति, जो नित नारी संग।।” (नारी की परछाईं पड़ने मात्र से भुजंग यानी सांप अंधा हो जाता है, फिर उनकी क्या गति होती होगी जो हमेशा नारी के साथ रहते हैं !) तुलसीदास की अमर कृति रामचरितमानस का केवल एक दोहा उनके स्त्री-विरोधी रूप को दर्शाने के लिए प्रचलित है: “ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।” लेकिन उनकी इस कृति में इस प्रकार की सूक्तियां बिखरी पड़ी हैं। राम के वनवास पर जाने के बाद अयोध्या आकर जब भरत को इस घटना की जानकारी मिलती है, तो वे अपनी माता कैकयी को धिक्कारते हुए कहते हैं: “ विधिहूं न नारि हृदय गति जानी। सकल कपट अघ अवगुन खानी।।” यही नहीं, स्वयं स्त्री होते हुए भी शबरी कहती है: “अधम ते अधम, अधम अति नारी”। एक दूसरी जगह तुलसी कहते हैं कि अपना प्रतिबिम्ब तो पकड़ा जा सकता है लेकिन नारी के दिल की थाह कोई नहीं ले सकता : “निज प्रतिबिम्ब बरकु गहि जाई। जानि न जाई नारि गति भाई।।” इस सबका उद्देश्य यह दर्शाना था कि स्त्री स्वभाव से ही कुटिल है और उसके हृदय की गति जानना विधाता के लिए भी संभव नहीं है, फिर पुरुष किस खेत की मूली है। यानी स्त्री स्वभाव से अविश्वसनीय है, उसका भरोसा नहीं किया जा सकता। और सभी जानते हैं कि इस पितृसत्तात्मक सिद्धांत को लगभग सभी क्षेत्रों में लागू किया जाता है और स्त्री की बुद्धि और क्षमता पर विश्वास नहीं किया जाता।
इसी के साथ स्त्री के संसर्ग से दूषित होने का विचार जुड़ा हुआ है। मासिक धर्म को अपवित्र और दूषित करने वाला मानने की परंपरा भारत में ही नहीं है, विश्व के अनेक समाजों में यह धारणा व्याप्त है। आज भी अधिकांश हिंदू परिवारों में मासिक धर्म के दौरान स्त्रियों को अलग रखा जाता है, उनका रसोई में प्रवेश वर्जित होता है और उनसे छुआछूत का बर्ताव किया जाता है। सबरीमला मंदिर में प्रवेश के मामले में भी यह धारणा अपनी भूमिका निभा रही है। इसी के साथ स्त्री की मोहिनी छवि भी जुड़ी है जिसका आधार यह है कि वह पुरुष को अपने मोहजाल में फंसा कर सन्मार्ग से विचलित करती है। इसी धारणा के कारण स्त्रियों के प्रवेश का विरोध किया जा रहा है कि उनकी उपस्थिति से आजन्म ब्रह्मचारी अयप्पा का व्रत भंग हो सकता है। यह धारणा तो आपत्तिजनक है ही, इसके कारण यह प्रश्न भी उठता है कि क्या देवता होते हुए भी अयप्पा में स्त्री के आकर्षण का सामना करने की शक्ति नहीं?
सभी धर्मशास्त्रों में मनुस्मृति सबसे अधिक प्रसिद्ध है। उसमें एक सामाजिक प्राणी के रूप में नारी की क्या परिकल्पना प्रस्तुत की गई है? आदर्श नारी कौन होगी और उसे कितनी और कैसी आजादी प्राप्त होगी? मनु इस मामले में नितांत स्पष्टतावादी हैं और किसी भी भ्रम की गुंजाइश नहीं छोड़ते। उनका कहना है कि लड़कपन में स्त्री की रक्षा उसका पिता करता है, यौवन में पति करता है और बुढ़ापे में पुत्र करता है। स्त्री किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता के योग्य नहीं है। “पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने। रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्र्यं अर्हति।।” हालांकि, जमाना कहां से कहां जा पहुंचा है, लेकिन क्या हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि आज भी भारतीय समाज के अधिकांश तबकों में इसी श्लोक पर अमल नहीं किया जा रहा? और इस मामले में चाहे हिंदू हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई-सभी धर्मों में पितृसत्ता की जड़ें एक जैसी ही गहरी हैं।
यह सही है कि वैदिक युग में स्त्रियों को काफी आजादी थी और अनेक स्त्रियां ब्रह्मवादिनी भी हुई हैं जिन्होंने बाकायदा सार्वजनिक शास्त्रार्थों में भी भाग लिया है, लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि केवल पुरुष होने के कारण उन पर अपना मत थोपने की प्रवृत्ति के दर्शन उस काल में भी होते हैं। वृहदारण्यक उपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य और गार्गी वाचकनवी के बीच हुआ लंबा शास्त्रार्थ जहां वाद-विवाद-संवाद की हमारी समृद्ध परंपरा से हमें परिचित कराता है, वहीं पुरुष प्रतिद्वंद्वी अपने-आपको चुनौती देने वाली स्त्री को किस तरह डपट कर चुप कराता है, इसकी झांकी भी हमें इसमें मिलती है। जब लंबे शास्त्रार्थ के अंत में ऋषि याज्ञवल्क्य ब्रह्मवादिनी गार्गी वाचकनवी के प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाए, तो उन्होंने उसे “अतिप्रश्न” बता कर गार्गी से कहा कि वह इसे पूछने का दुराग्रह न करे, वरना उसका मस्तक फट कर कई हिस्सों में विभाजित हो जाएगा।
लेकिन इसके बाद स्त्री को बहस करने की तो क्या, छोटी-छोटी बातों में अपनी राय भी जाहिर करने की आजादी नहीं रही। पितृसत्तात्मक विचारधारा हमारी भाषा और रोजमर्रा की बोलचाल में कितनी गहरी पैठ बनाए हुए है, इसका पता इसी बात से चलता है कि आज भी किसी स्त्री के पति को उसका “मालिक” कहा जाता है या पत्नी को पति की “औरत” कहा जाता है। “मालिक” शब्द से ही स्पष्ट रूप से व्यंजित हो जाता है कि स्त्री अपने पति की संपत्ति है, वैवाहिक संबंध में शामिल बराबर का स्थान रखने वाली जीवनसाथी नहीं। महाभारत में जब युधिष्ठिर ने द्रौपदी को अपनी संपत्ति समझ कर जुए में दांव पर लगा दिया था, तब में और आज में क्या कोई अंतर आया है? हकीकत तो यह है कि आज भी कभी-कभार अखबारों में इस आशय की खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं जिनसे पता चलता है कि पत्नी को जुए में दांव पर लगाने या बेच देने की घटनाएं हो रही हैं। अवैध यौन व्यापार में तो कमसिन लड़कियों की खरीद-फरोख्त रोजाना की बात है।
अधिकांश धर्मों के कानूनों में स्त्रियों को संपत्ति के अधिकार से सैद्धांतिक या व्यावहारिक स्तर पर वंचित रखा जाता है। पिछली एक शताब्दी के दौरान इस स्थिति में थोड़ा-बहुत सुधार हुआ है लेकिन अभी भी पुरुष और स्त्री के बीच असमानता बनी हुई है। नौकरी करने वाली महिलाओं की स्थिति घर की चारदीवारी में रहने वाली महिलाओं के मुकाबले बेहतर तो है, लेकिन आर्थिक आजादी से वे भी महरूम हैं। अक्सर देखा जाता है कि स्त्री के वेतन पर उसके पिता या पति का ही कब्जा होता है, उसके खुद के हाथ में अपनी ही कमाई नहीं रह पाती। करगिल युद्ध के बाद सैनिकों की विधवाओं को जब मुआवजा और पेट्रोल पंप आदि मिलने की बात हुई, तब यह हकीकत उजागर हुई कि किस तरह मृतक के परिजन उसे हासिल करने में लगे थे और विधवा को उससे वंचित कर रहे थे। तलाक की स्थिति में पूर्व पत्नी को थोड़ा-सा भी गुजारा भत्ता देना पुरुषों को कितना नागवार लगता है, इसका पता भी शाहबानो मामले में चल गया था।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक यानी सर्वोच्च नेता मोहन भागवत ने भी कुछ समय पहले यह विचार प्रकट किया था कि स्त्रियों को घर का काम-धंधा ही संभालना चाहिए। सैन्यवादी राष्ट्रवाद यूं भी स्त्रियों को संतानोत्पत्ति के लिए अनिवार्य आवश्यकता से अधिक कुछ नहीं समझता। अभी कुछ ही दिन पहले हमारे सेनाध्यक्ष जनरल विपिन रावत ने विचार व्यक्त किया था कि महिलाएं सेना में युद्ध का काम नहीं कर सकतीं। अमेरिका और इजरायल समेत अनेक देशों की सेना में महिलाएं सभी तरह के दायित्व निभाती हैं, लेकिन हमारे सेनाध्यक्ष को उनके सामर्थ्य पर भरोसा नहीं है। पितृसत्ता की विचारधारा का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है? वह भी उस देश में जिसकी महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में हुए बांग्लादेश युद्ध में अब तक की सबसे बड़ी सैनिक विजय हासिल की गई थी!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, राजनैतिक और सांस्कृतिक विषयों के स्तंभकार हैं)