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जवाबी नतीजे भी दिखने लगे

महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्यस्थल की मांग पर पितृसत्ता की प्रतिक्रिया भी दिखाने लगी तेवर
#मीटू

#मीटू दो अलग-अलग मौकों पर भावनात्मक तूफान की तरह भारत को झकझोर गया। लेकिन यह न समझिए कि यह कोई सामान्य-सा “पल” था जो बीत गया और अब हमें नई सुर्खियों का इंतजार है। यह ऐसा जटिल मुद्दा है जो समाज की जीवन-धारा में बना रहेगा, आचार-विचार में परिवर्तन लाएगा, धीरे-धीरे माहौल बदलेगा, अपना असर कई रूपों में दिखाएगा और सब कुछ सहज नहीं होगा। महिलाओं के, एक तबके के पुरुषों के अनुचित आचरण के खिलाफ खुलकर आवाज उठाने, कुछेक मामलों में सबूतों के साथ, के दो महीने बाद चुपचाप बदले की एक उलटी धारा बहती दिखती है। यह कई स्तरों पर दिख रहा है। अकेली महिलाएं बोलने की कीमत चुका रही हैं, उन्हें ‘दिक्कत पैदा करने वाली’ बताया जा रहा है। और, दुर्भाग्य से, इसका दूरगामी असर आम तौर पर महिलाओं पर पड़ सकता है, भले खुल्लमखुल्ला न हो। कई कंपनियां महिलाओं को भर्ती करने में सावधानी बरत रही हैं और महिला कर्मचारियों की तादाद घटाने के बारे में अनौपचारिक बातें करने लगी हैं। फिर, संकेत ये भी हैं कि कार्यस्‍थलों पर स्‍त्री और पुरुषों के बीच मेलजोल में भी काफी सतर्कता बरती जाने लगी है। यानी, संभव है, पुरुषों के अनैतिक आचरणों के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन की परिणति आखिरकार कई मायने में महिलाओं को ही नुकसान पहुंचा जाए। 

ये हालात तब पैदा हो रहे हैं, जब महिलाओं के दावों की सच्चाई कोर्ट केस और संस्थानों की आंतरिक जांच में गवाहियों के आधार पर तय की जानी है। अरे की संपादक और लेखिका पॉलोमी दास, जिन्होंने एक साथी पत्रकार पर आरोप मढ़ा, कहती हैं, “असली परीक्षा तो यह है कि कितने संस्थान महिलाओं के लिए दफ्तर को सुरक्षित जगह बनाने में गंभीर हैं, यह इस पर निर्भर है कि वे ऐसे पुरुषों के खिलाफ क्या कार्रवाई करते हैं। ईमानदारी से कहूं तो उस दिशा में कुछ खास होता नहीं दिखता है क्योंकि दो महीने बाद ऐसे पुरुषों को किसी न किसी तरीके से बचा लिया जाएगा।”

एक पब्लिक रिलेशन फर्म में काम करने वाली नंदिनी देसाई (परिवर्तित नाम) कहती हैं, “हम वास्तव में अलग-थलग महसूस कर रहे हैं। मेरे बॉस बहुत अच्छे हैं और अच्छे मेंटर भी हैं। लेकिन इधर कुछ समय से उन्होंने मुझसे और दूसरी महिला सहयोगियों से कन्नी काटनी शुरू कर दी है। हमें कोई भी अच्छा असाइनमेंट नहीं दिया जा रहा क्योंकि उसमें पुरुष सहकर्मियों के साथ यात्रा करनी पड़ेगी।”  

कार्यस्थलों में महिला-पुरुष सहकर्मियों के बीच हल्की-फुल्की बातें और चुहल वगैरह भी बंद होती दिख रही हैं। लेखिका और कम्युनिकेशन एक्सपर्ट नीलम कुमार कहती हैं, “अब दफ्तरों में बेहद सतर्क, औपचारिक और कुछ असहज-सा माहौल है। पुरुष आशंकित रहते हैं कि न जाने कब सामान्य दोस्ती गलत समझ ली जाए और #मीटू आरोप में बदल जाए।”  

कई पुरुष अधिकारी अब कामकाज के सिलसिले में महिलाओं के साथ अकेले में यात्रा करने, मीटिंग करने या डिनर करने में सावधानी बरतने लगे हैं। इसका यह मतलब भी है कि महिलाएं ब्यॉज क्लब और ऐसी गप्पबाजियों से भी दूर होती जाएंगी जिनमें अमूमन “अंदरूनी कहानियों” का पता चलता है। महिला सहकर्मियों से बात करते हुए पुरुष बॉस अपने कमरे के दरवाजे खुले रखने लगे हैं, उनसे हाथ मिलाते हुए संकोच करते हैं और सोचने लगे हैं कि टीमड्रिंक के लिए महिलाओं को बुलाना ठीक है या नहीं। एक प्रमुख भारतीय कंपनी में चीफ मार्केटिंग और कम्युनिकेशन ऑफिसर स्वाति भट्टाचार्य कहती हैं, “एक मैनेजर ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसके दफ्तर में रहूं  क्योंकि उसे अपनी टीम की महिला सदस्य को फीडबैक देना था, लेकिन वह कुछ आशंकित था।”

इस तरह नुकसान दोहरा है। महिलाओं के लिए रोजगार बाजार के दरवाजे बंद होते जाएंगे या उन्हें उस अनौपचारिक नेटवर्क से अलग-थलग कर दिया जाएगा, जिसमें सक्रियता कॉरपोरेट सफलता के लिए जरूरी है। पुरुष श्रेष्ठता और अलगाव की पुरानी धारणाएं लौट आई हैं। स्त्रियों के प्रति विद्वेष की अदृश्य धारा पहले से ही उन्हें ‘खतरा’ मानती रही है, अब ‘समस्या’ की आशंका ने पुरुषों के नजरिए को और सख्त कर दिया है।

गुड़गांव में वरिष्ठ एचआर मैनेजर निमिषा दुआ अलग-थलग करने के इस रवैए पर कहती हैं, “हां, ऑफिस में बातचीत का तरीका बदल गया है। पुरुष सहकर्मी ज्यादा दोस्ताना और परिचय दिखाने से हिचकने लगे हैं। मुझे लगता है, यह फौरी प्रतिक्रिया है। लेकिन इसका महिलाओं की नौकरियां घटने जैसा कोई नाटकीय असर नहीं है।” वे इसलिए भी उम्मीदजदा हैं क्योंकि बहुत से संस्थानों के लिए स्‍त्री-पुरुष विविधता एक अहम पहलू है। (कुछ देशों में यह बताना जरूरी होता है कि कंपनी में महिला-पुरुष कर्मचारी का अनुपात क्या है।) लेकिन यहां दफ्तर के अंदर का माहौल महत्वपूर्ण है। सॉफ्टबैंक की कॉरपोरेट कम्युनिकेशन और पब्लिक अफेयर्स की वाइस प्रेसिडेंट परोमा रॉय चौधरी कहती हैं, “#मीटू के पैरोकारों को उसे महत्वहीन बनाने से बचना चाहिए। संस्थानों को समावेशी वातावरण बनाना चाहिए और बुरे व्यवहार को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। आखिर लोगों को अच्छा बर्ताव करने को कहने में भला क्या लगता है।”  दुआ कहती हैं, “दफ्तरों में बातचीत और मजाक के प्रति यह सतर्कता बेमतलब है। #मीटू के आरोपों पर गौर करें तो ये ऐसी छोटी-मोटी बातों से जुड़ी नहीं हैं कि “आज तुम सुंदर लग रही हो” लेकिन अधिकांश खुल्लमखुल्ला निर्लज्जता और उत्पीड़न के मामले हैं। इसलिए, उत्पीड़न के आरोपों और झूठी शिकायतों के खिलाफ उचित, विश्वसनीय आंतरिक जांच और सख्त दंडात्मक कार्रवाई ही मददगार हो सकती है।” भट्टाचार्य संतुलित टिप्पणी करती हैं, “मुझे पूरा यकीन है कि #मीटू मुहिम की दरकार थी। यही वक्त है कि महिलाएं अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के बारे में खुलकर बोलें। लेकिन इस सब के बीच मैंने कुछ महिलाओं को दूसरे कारणों से फायदा उठाने की कोशिश करते भी देखा है। मैं सही मामलों के साथ सौ फीसदी खड़ी हूं लेकिन दुर्भाग्य से, कुछ लोग इसे महत्वहीन बना दे रहे हैं। दरअसल, जवाबी रवैए के पीछे ऐसे ही मामले हैं।”

अपनी बात की तस्दीक करने के लिए भट्टाचार्य के पास एक वाकया भी है। वे बताती हैं, “मेरे एक दोस्त को उसकी सहकर्मी ने उसे प्रमोशन न देने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी। ऐसी ही बातें आंदोलन को कमजोर करती हैं। पर मैं ऐसा नहीं कहूंगी कि ऐसा ही हो रहा है। इस सब को सामान्य होने में थोड़ा वक्त लगेगा पर यह सामान्य हो जाएगा। और सुरक्षित दफ्तर इसका परिणाम होगा।”

वॉशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह #मीटू महिलाओं को नुकसान पहुंचा रहा है। उसका एक तात्कालिक परिणाम तो यह है कि वॉल स्ट्रीट पर पुरुष आधिपत्य होने से वे मेंटर पुरुषों को खो रही हैं। पुरुष बॉसेस को यह डर हो सकता है कि लोग जूनियर सहयोगी-सहकर्मियों के साथ उनकी दोस्ती यौन आकर्षण समझ कर गलत मतलब निकाल सकते हैं।

इस असमंजस से अलग, महिलाओं के प्रति भावना और बुरे लोगों की विदाई बाकी है। कई दक्षिण भारतीय कलाकारों ने प्रभावशाली नामों को सार्वजनिक किया और उन लोगों ने इसकी सजा भी भुगती। हिंदी-मलयालम फिल्मों की मुखर (और बेबाक) अभिनेत्री पार्वती ने काम न मिलने के बारे में बताया। पार्श्व गायिका चिन्मयी श्रीपद ने तो अपनी बेबाकी से लाजवाब ही कर दिया। उन्होंने कहा, “मुझे मेरे काम करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया है, यह मेरे बोलने का नतीजा है। गीतकार वैरामुथु का नाम सार्वजनिक करने के कारण मुझे चेन्नै में डबिंग यूनियन से बाहर कर दिया गया।”

कन्नड़ फिल्म अभिनेत्री श्रुति हरिहरन को भी अभिनेता अर्जुन सरजा का नाम लेने के लिए ऐसा ही खामियाजा भुगतना पड़ा। वह कहती हैं, “#मीटू का आफ्टर इफेक्ट ऐसा है कि एक बार जब आप बोल देते हैं तो वे लोग सुनिश्चित करते हैं कि पीड़ित बदचलन और झूठी हैं।” उनकी बात चेतावनी साबित हुई। वे आगे कहती हैं, “सुपरस्टार्स ने एक भी शब्द नहीं बोला। कर्नाटक फिल्म चेंबर ने मुझे बुलाया और धमकाया कि मैं इंडस्ट्री के बारे में एक भी शब्द न बोलूं।”

इस सब से आगे आने के लिए अभी गंभीरता बरतनी है। आरोपियों से लेकर ‘निर्दोष’ पुरुषों को बचाने तक। या फिर मामला शांत होने के बाद ‘यह तो होता ही रहता है’ कहना और सिस्टम से बाहर कर दिए गए आरोपी पुरुषों को बचाना इसमें शामिल है।

कुछ महिलाएं सोचती हैं कि भारत में चल रहे फेमनिस्ट आंदोलन में #मीटू उनकी टोपी में एक कलगी की तरह है। पूर्व सिविल सर्वेंट और बांबे हाइकोर्ट में अधिवक्ता आभा सिंह कहती हैं, “आंदोलन के कुछ प्रमुख योगदानों में यह है कि यौन उत्पीड़न कानूनों के बारे में जागरूकता काफी बढ़ी है। संदिग्ध आचरण करने के पहले पुरुष अब दो बार सोचते हैं, कई दफ्तरों में आंतरिक शिकायत समितियों की स्थापना की जा रही है। हालांकि कई राजनैतिक दल, जिनमें कांग्रेस और भाजपा शामिल हैं,  अभी तक इस दिशा में कोई पहल नहीं कर रहे हैं।” महिलाएं अब निस्सहाय नहीं हैं। वे अपने कानूनी अधिकार जानती हैं। समाज और सोशल मीडिया में उनका अपार समर्थन है। हालांकि, आंदोलन को तार्किक निष्कर्ष पर पहुंचाने के लिए अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।

पत्रकार दिव्या कार्तिकेयन कहती हैं, “जब तक ऐसे पुरुषों का सार्वजनिक बहिष्कार नहीं होता, इसका समाधान आसान नहीं है। एक प्रमुख अखबार जिसने दागदार पुरुषों को अपने यहां जगह दी, दरअसल इस बात का उदाहरण है कि संपादक खुद को बचा रहे हैं।” शी द पीपल की संपादक किरण मृणाल कहती हैं, “मुझे नहीं लगता कि कोई महिला जब आवाज बुलंद करती है तो उसे यह एहसास नहीं होता कि उसे क्या भुगतना पड़ सकता है।”

इस मुहिम के लिए चर्चा में आईं पत्रकार गजाला वहाब कहती हैं, “यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि वह दौर बीत गया। #मीटू कोई क्रांति नहीं है और न कोई इस भ्रम में रहे कि भारतीय दफ्तरों का माहौल रातोरात बदल जाएगा।” 

क्या होना चाहिए?

-आंतरिक शिकायत समितियों को अपने संबंधित संगठनों में कथित यौन उत्पीड़नकर्ताओं के खिलाफ आवश्यक कार्रवाई करनी चाहिए।

-वकील आभा सिंह का कहना है कि #मीटू के मामलों की जांच की जानी चाहिए और यह आश्वस्त करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए कि घटना से उबरी लड़कियों को कथित उत्पीड़कों के संपर्क में न आना पड़े।

-महिलाओं को उनके करिअर की संभावनाओं में किसी भी अनुचित हस्तक्षेप को रोकने के लिए सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, यह ध्यान में रखते हुए कि अधिकांश नाम ताकतवर पुरुषों के हैं।

-कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए।

-पुलिस और न्यायिक तंत्र को अपराधियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करना चाहिए। आभा सिंह कहती हैं, “यह नहीं भूलना चाहिए कि #मीटू कानूनी प्रणाली में नियत विफलता का परिणाम है।”

-न्याय पाई हुई लड़कियों/महिलाओं को आगे आने वाले किसी भी तरह के प्रतिघात से बचाने के लिए राज्य को सक्रिय कदम उठाने चाहिए। केवल इसी तरह की सुरक्षा उन्हें दफ्तर के माहौल को बताने के लिए प्रेरित करेगी। आभा सिंह कहती हैं, “महिला और बाल विकास मंत्रालय ने मामलों की जांच के लिए एक समिति भी बनाई है। जांच निष्पक्षतापूर्ण तरीके से की जानी चाहिए।”

-अंत में, हमें याद रखना चाहिए कि समय आ गया है कि हम पुरुषों की भी सोचते हुए यौन उत्पीड़न नियमों को जेंडर न्यूट्रल बनाएं, क्योंकि पीड़ित पुरुषों की चुप्पी लंबे समय से अनसुनी रही है।

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