हर बार नया साल कुछ नई उम्मीदें और नई संभावनाएं लेकर आता है, लेकिन वह बीते साल की घटनाओं से भी जुड़ा होता है। हिंदी साहित्य के लिए पिछला साल युवा लेखकों विशेषकर लेखिकाओं की बढ़ती उपस्थिति के लिए भी रेखांकित किया जाएगा। युवा लेखकों ने अपनी रचनाशीलता से यह साबित करने का प्रयास किया है कि वे अपना रास्ता खुद बनाएंगे। मुकेश वर्मा, अनुज लुगुन, अंबर पांडेय, सुशोभित शक्तावत, मोनिका कुमार और तिथि दानी की कविता की नई पुस्तकों ने एक उम्मीद जगाई है। अनुराधा सिंह, ज्योति शोभा जैसी कवयित्रियों ने गत वर्ष अधिक ध्यान खींचा तो कथा साहित्य में विजयश्री तनवीर, सपना सिंह, सोनाली मिश्र, दिव्या विजय, रश्मि, तारिका जैसी नई कहानीकारों ने भी आकर्षित किया। गरिमा श्रीवास्तव की देह ही देश की भी चर्चा रही। पिछले साल के काव्य संग्रहों में लीलाधर मंडलोई का जलावतन, गगन गिल का मैं जब तक आयी बाहर, सुमन केसरी का पिरामिडों की तह में, निलय उपाध्याय का मुंबई की लोकल, पवन करण का स्त्री शतक, अनूप सेठी का चौबारे पर एकालाप और ज्योति चावला का जैसे कोई उदास लौट जाए दरवाजे से उल्लेखनीय रहा।
गिरिराज किशोर, सुधीश पचौरी, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रभु जोशी, सूर्यबाला, नासिरा शर्मा, गीतांजली श्री, मधु कांकरिया, सुधाकर अदीब, रजनी गुप्त, वंदना गुप्ता, शैलेंद्र सागर, राजेंद्र दानी, विमलेश त्रिपाठी, वीरेंद्र सारंग जैसे लेखकों ने अपने उपन्यासों से हिंदी को समृद्ध किया, तो कुंवर नारायण का कहानी संग्रह मरणोपरांत प्रकाशित हुआ। जितेंद्र भाटिया, शीला रोहेकर, कुंदन सिंह परिहार, क्षमा शर्मा, जयश्री रॉय, रामजन्म पाठक, शशिभूषण द्विवेदी और गौरव सोलंकी के कहानी संग्रह भी पिछले साल आए।
लेकिन हिंदी साहित्य की दुनिया धीरे-धीरे ऐसे लोगों से महरूम होती जा रही है जिन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से नए लोगों को प्रेरित किया और उनका नेतृत्व भी किया है। पिछला एक साल तो हिंदी के लिए अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण रहा। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित केदारनाथ सिंह और वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे के अलावा दूधनाथ सिंह जैसे बहुमुखी प्रतिभा के लेखक, अत्यंत संवेदनशील और विवेकशील पत्रकार-लेखक राजकिशोर, प्रखर दलित आलोचक डॉ. धर्मवीर और हिंदी-उर्दू की कड़ी काजी अब्दुल सत्तार को काल के क्रूर हाथों ने हमसे छीन लिया। ये वे लेखक थे, जिन्होंने पिछले तीन-चार दशकों से अपने श्रेष्ठ लेखन से साहित्य को समृद्ध किया और समाज को नई रोशनी दी थी और नए मूल्य बनाए थे। ये अपने समय के ढहते मूल्यों और जर्जर होते रास्तों के आगे हम सबको नया रास्ता दिखा रहे थे। कृष्णा सोबती और नामवर सिंह जैसे साहित्यकार 90 पार के हो चुके हैं। विश्नाथ त्रिपाठी भी 85 पार कर चुके हैं, ज्ञानरंजन और अशोक वाजपेयी भी 75 पार के हो चुके हैं इसलिए अब हिंदी साहित्य में नेतृत्त्व का गहरा संकट पैदा हो गया है।
यह केवल इस नए साल के लिए चिंता का विषय नहीं है, बल्कि आने वाले दिनों के लिए भी। भविष्य में साहित्य की दिशा क्या होगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसका नेतृत्व कौन करता है। यह भी सच है कि हम सब एक नायकविहीन दौर से गुजर रहे हैं। वैसे भी साहित्य का नायक राजनीति के तथाकथित नायकों से बड़ा होता है। यह दौर बौने राजनीतिकों का है, तो क्या अब हम अपने पुरखों को याद करके ही उनसे प्रेरणा लेते रहेंगे? लेकिन साहित्य में अब अपने प्रतीक पुरुषों के प्रति लगाव कुछ कम होता जा रहा है। अब वर्तमान में जीने और खुद को स्थापित करने की लालसा या विचारधारा और गुट इतना हावी हो गया है कि कई लेखकों को उनकी जन्मशती पर कायदे से याद तक नहीं किया जाता। यह दायित्व साहित्य और भाषा से जुड़े संस्थानों, संगठनों तथा हिंदी विभागों का था। हिंदी के अप्रतिम नाटककार एवं देश के प्रथम संस्कृति पुरुष जगदीशचन्द्र माथुर की जन्मशती जिस तरह चुपचाप गुजर गई उससे पता चलता है कि हम अपनी परंपरा के प्रति कितने उदासीन और कृतघ्न हो गए हैं। संगीत नाटक अकादेमी ने उनकी स्मृति में एक कार्यक्रम तक नहीं किया, जिसकी स्थापना में उनका योगदान था। साहित्य अकादेमी ने दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज के साथ मिलकर एक गोष्ठी कर रस्म अदायगी कर दी। यही उसने प्रभाकर माचवे की जन्मशती के साथ भी किया। जिस व्यक्ति ने अकादेमी को गरिमा दिलाने में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, उसकी जन्मशताब्दी पर अधिक हलचल दिखाई न देना इस बात का सबूत है कि हम अपनी परंपरा को ठीक से जानना नहीं चाहते।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन और हिंदी भूषण शिवपूजन सहाय की 125वीं जयंती पर दो छोटे सेमिनार करके साहित्य अकादेमी ने अपना पल्ला झाड़ लिया। वर्धा में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ने इन दोनों पर एक राष्ट्रीय सेमिनार किया और भारतीय ज्ञानपीठ ने भी एक छोटी संगोष्ठी की। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछले वर्ष अपने महाधिवेशन में राहुल जी की जयंती देश भर में मनाने का फैसला किया और प्रगतिशील लेखक संगठन ने बिहार और राजस्थान में कई कार्यक्रम भी किए। यह पहला मौका है, जब किसी वामपंथी पार्टी ने किसी हिंदी लेखक की जयंती मनाने का फैसला किया। लेकिन जनवादी लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच ने पिछले साल तक कोई पहल नहीं की। जलेस के संस्थापक अध्यक्ष भैरव प्रसाद गुप्त की जन्मशती भी गत वर्ष शुरू हुई, लेकिन अभी तक उनको भी राष्ट्रीय स्तर पर याद करने का कोई बड़ा उपक्रम नहीं हुआ।
पिछले वर्ष हिंदी की दुनिया ने मुक्तिबोध को जरूर शिद्दत से याद किया और उन पर कई किताबें आईं। भारतीय ज्ञानपीठ, रज़ा फाउंडेशन, साहित्य अकादेमी, जलेस और जसम ने उनकी जन्मशती पर अलग-अलग कार्यक्रम किए, पर सभी लेखक संगठन मुक्तिबोध के नाम पर एकजुट नहीं हो सके। पुरस्कार वापसी की घटना से उम्मीद बनी थी कि सभी लेखक एकजुट होकर समाज को एक संदेश देंगे और सत्ता को चुनौती देंगे, लेकिन लेखक संगठनों की आपसी एकता गत वर्ष भी नजर नहीं आई। पिछले साल जनवरी में जलेस और प्रलेस ने लिटरेचर फेस्टिवल को सेलिब्रेटी फेस्टिवल बनाने की संस्कृति के विरोध में जयपुर लिट फेस्ट के सामानांतर अलग आयोजन किए, पर वे इस मामले में भी एकजुट नहीं हो सके। करीब 12 वर्ष पहले शुरू हुए जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल से देश में लिट फेस्ट की ऐसी बयार बही कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलूरू ही नहीं, देहरादून, इंदौर, पटना, लखनऊ और अजमेर जैसे शहरों में भी ऐसे समारोहों की बाढ़ आ गई। कई अखबार और टीवी चैनलों ने साहित्य को इवेंट और तमाशे में बदल दिया। इनमें युवा वर्ग के पाठक अधिक आकर्षित हुए और कई युवा लेखकों की पहचान बनी। अब तो देश में 300 से अधिक ऐसे फेस्टिवल हो चुके हैं। वैसे कुछ फेस्टिवलों में गहरे विवाद हुए तो कुछ में बहिष्कार की भी घटनाएं देखने को मिलीं। इन फेस्टिवलों में सेलिब्रिटी के आने से ग्लैमर और चकाचौंध अधिक बढ़ गई है। इनमें अब मोरारी बापू और जग्गी वासुदेव के प्रवचन भी होने लगे हैं। इस नई प्रवृत्ति की एक झलक दिनकर के गांव सिमरिया में भी देखने को मिली। ऐसे में यह प्रश्न भी उठने लगा है कि क्या बाजार साहित्य की आत्मा को बदलने लगा है और साहित्यिक कृतियां प्रोडक्ट बन गई हैं? क्या लेखक उत्पादक और पाठक उपभोक्ता में बदल गया है?
हिंदी में पुरस्कारों की बाढ़ में पिछले साल कुछ और नए पुरस्कार भी शुरू हुए तो कुछ पुरस्कारों को लेकर सोशल मीडिया में विवाद और असहमतियां भी देखने को मिलीं। इस बार अंग्रेजी के मशहूर लेखक अमिताभ घोष को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने पर साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त लेखक गिरिराज किशोर जैसे अनेक लेखकों ने आपत्ति की। उनका कहना था कि ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय भाषाओं के संवर्धन के लिए दिए जाते हैं तो पहली बार अंग्रेजी के लेखक को यह पुरस्कार देने की क्या जरूरत पड़ गई। मुल्कराज आनंद, राजा राव, खुशवंत सिंह, नयनतारा सहगल वगैरह को जब यह नहीं दिया गया तो अमिताभ घोष को क्यों दिया जा रहा है। ज्ञानपीठ न्यास ने तीन साल पहले पुरस्कार के नियमों में परिवर्तन कर अंग्रेजी भाषा को भी शामिल कर लिया। क्या यह भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व का प्रमाण है? चित्रा मुद्गल को उनके उपन्यास पोस्ट बॉक्स नंबर-203 नाला सोपारा के लिए साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया गया, जिसमें उन्होंने ट्रांसजेंडरों की पीड़ा को व्यक्त किया है। लेकिन सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने उनके नोटबंदी के समर्थन के कथित बयान को लेकर छींटाकशी भी की। व्यास सम्मान ममता कालिया को दुक्खम-सुक्ख्म उपन्यास पर मिला। युवा कविता के लिए सर्वाधिक प्रतिष्ठित भारत भूषण पुरस्कार अदनान कफील दरवेश को मिला और हंस कथा सम्मान प्रत्यक्षा को मिला। यूं तो हिंदी में पिछले वर्ष पुरस्कारों की एक लंबी सूची है, जिसका जिक्र करना अनपेक्षित होगा।
कुछ वर्षों से हिंदी में युवा प्रतिभाएं बड़ी संख्या में सामने आ रही हैं और उन्होंने साहित्य के परिदृश्य को बदलने की कोशिश भी की है। इनमें युवा लेखिकाओं ने अपना ध्यान विशेष रूप से खींचा है। भारत भवन में तो 2006 से ही युवा कार्यक्रम हो रहे हैं। इसमें हर बार 10 नए लेखक शामिल होते हैं। रज़ा फाउंडेशन भी तीन साल से युवा नाम का ही एक कार्यक्रम आयोजित करता है। इसमें 30-40 लेखक शामिल होते हैं। गत वर्ष भी युवा लेखकों की शिरकत रही। साहित्य अकादेमी ने भी अब युवा लेखकों के अधिक कार्यक्रम आयोजित करने शुरू कर दिए हैं। पिछले वर्ष भी उसने कई ऐसे कार्यक्रम किए। लेकिन भविष्य में इन युवा लेखकों को संबल देने वाला कौन बचा है? विष्णु खरे जैसे कवि की दिलचस्पी युवा कविता में अधिक थी। उनके निधन से युवा कविता को बहुत क्षति पहुंची है। केदार जी की कविता ने भी युवा कवियों को प्रेरित किया था। अब अशोक वाजपेयी युवा कार्यक्रम के जरिए यह काम कर रहे हैं, लेकिन उनके नेतृत्त्व को लेकर किंतु-परंतु हमेशा रहा है। सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि लेखक संगठन अधिक युवा लेखकों को अपनी ओर खींच नहीं पा रहे। उनमें नई कल्पनाशीलता का आकर्षण नहीं है। यह भी सच है कि अब बाजार तथा प्रतिष्ठान युवा लेखकों को अधिक मंच और अधिक अवसर दे रहे हैं।
कविता, कहानी, उपन्यास के अलावा अन्य विधाओं में भी अनेक किताबें आईं। इनमें बिरजू महाराज और पंडित जसराज पर मनीषा कुलश्रेष्ठ और सुनीता बुद्धिराजा की किताबें उल्लेखनीय हैं। इस तरह साहित्य में संभावनाओं के द्वार अब भी खुले हैं और किताबें नया समाज रचने की उम्मीदें जगाती हैं। नई पीढ़ी के लेखक इस उम्मीद को कितना पूरा करते हैं, यह हमारा समाज जानने को उत्सुक रहेगा, क्योंकि पूरी दुनिया में भारत में युवा सबसे अधिक संख्या में हैं। देखना है कि नए लेखक इस युवा वर्ग की आकांक्षाओं और स्वप्नों तथा तकलीफों का साहित्य में कितना चित्रण करते हैं और उन्हें पुरानी पीढ़ी के लेखक कितना संबल देते हैं।
(लेखक कवि और वरिष्ठ पत्रकार हैं)