आप पहले पर्यावरण कार्यकर्ता थे। अब पर्यावरण प्रशासक हो गए हैं, दोनों भूमिकाओं में
क्या अंतर देखते हैं?
हां, यह तो है कि अब मैं प्रशासक हो गया हूं तो भूमिका में थोड़ा सा बदलाव हुआ है। एक पर्यावरणविद के रूप में बहुत स्वतंत्रता है, बोलने की भी और करने की भी। पर इसका मतलब यह न निकाला जाए कि पर्वायवरणविद कुछ भी बोलता है या उसे कुछ भी करने की छूट है। पर्यावरणविद भी जवाबदारी से बोलते हैं। वह भी समाज के व्यक्ति हैं। लेकिन सरकार में आने के बाद एक बंधन तो हो ही जाता है। ऐसे ही किसी जगह मैंने बात करते हुए कहा था, यह बंधन ऐसा हो गया है कि पहले मैं पिता के घर में एक लडक़ी-सा था और अब विवाह के बाद ससुराल आ गया हूं। घर की स्वतंत्रता अलग थी। ससुराल की अलग है। प्रशासक के तौर पर हमेशा सजग और मुद्दों पर संतुलित राय की जरूरत होती है। समय के साथ भूमिकाएं बदलती हैं और मैं समझता हूं बदलनी भी चाहिए। जो जवाबदारी मुझे मिली है यह काफी बड़ी है। इस जवाबदारी को समझते हुए जो कुछ अच्छा हो सकता है वह करने की कोशिश कर रहा हूं और करता रहूंगा।
भारत पर क्लाइमेट चेंज को लेकर पेरिस समिट का जो वैश्विक दबाव है, भारत इससे कैसे निपटेगा?
ऐसा कोई दबाव है, कम से कम मैं ऐसा नहीं मानता। इस पर विचार मंथन चल रहा है। भारत नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में किसी भी प्रकार का दबाव नहीं मानता यह बात स्पष्ट है। रही निर्णय लेने की तो हम किसी भी दबाव में आकर निर्णय नहीं लेंगे।
आम लोगों तक पर्यावरण की अलख जगाने के लिए आपके मन में क्या खाका है?
मेरी दृढ़ मान्यता है कि आम भारतीय नागरिक स्वभाव से ही पर्यावरणविद है। पर्यावरण की सुरक्षा के विषय को लेकर उसके अंदर चेतना है। वह स्वभावगत रूप से अनजाने भी पर्यावरण की सुरक्षा करता रहता है। लेकिन अभी इसमें पूर्णता आना बाकी है। हमें इससे भी आगे जाने की जरूरत है। मैं चाहता हूं, लोग अपनी स्वस्थ परंपरा न छोड़ें। नदियों, पहाड़ों, पशु-पक्षियों की देखभाल की, उन्हें पूजने की, सहेजने की। यह परंपराएं ही चलती रहीं तो बहुत कुछ बदल जाएगा। जो टूटन है उसे सुधारने की जरूरत है। जैसे किसान गेहूं काटने के बाद डंठल जला देता है। इससे न सिर्फ पर्यावरण नष्ट हो रहा है बल्कि मिट्टी की जैव विविधता भी कम हो रही है। इस अभ्यास को खत्म करना मेरी प्राथमिकता है।
गलत अभ्यास को रोकने के लिए क्या उपाय हैं। समझाइश, भारी जुर्माना, सजा या कुछ और?
मुझे लगता है, सजा बहुत बाद का विषय होना चाहिए। कानून तो बाद में बनना चाहिए। सती प्रथा के विरोध में राजा राममोहन राय का आंदोलन बड़ी बात थी। पहले स्वप्रेरणा होनी चाहिए। लोक जागरण आएगा तो सब ठीक होगा। भारत कभी भी तानाशाहों से नहीं चला है। यह जब भी चला है, प्रजातांत्रिक तरीके से चला है। यह समझना होगा कि नियम बनें पर पहले लोक चेतना, जागरण जरूरी है। लोक मानस के मन में बात आएगी तो कानून की जरूरत नहीं होगी।
भारत में कचरा निस्तारण बड़ी समस्या है। जगह-जगह कचरे के पहाड़ हैं, कचरे के विभाजन के बारे में भी लोगों को समझ नहीं है?
आज से तीस साल पहले घरों में जो डस्टबिन है, वह या तो होता नहीं था और होता भी था तो आज के वक्त का आधा था। यह सारा कचरा पिछले 10-15 सालों की देन है। कचरा बढ़ रहा है, पैकेजिंग, प्रोसेसिंग और प्रोडक्शन से। तीनों ही प्रक्रिया में हम बहुत कचरा निकाल रहे हैं। यह बात पश्चिम से आई है कि कचरे का सेग्रीगेशन यानी विभाजन करना चाहिए। सेग्रीगेशन में प्लास्टिक और पर्यावरण में स्वत: नष्ट न होने वाले पदार्थ सबसे बड़ी समस्या है। हमारे यहां ऐसे उत्पाद ही नहीं थे जिनमें यह चीजें हैं। पहले कचरे का मतलब सब्जियों के डंठल और ऐसा ही छोटा-मोटा कचरा होता था। बाद में हमारे यहां पैकेट में जब सामान आने लगा तो कचरा बढ़ा। समझना होगा कि क्या वाकई पैकेजिंग में कई स्तरों की जरूरत है? अब फिर समाज में जाकर समझाना होगा और जागृति लानी होगी। प्रधानमंत्री स्वच्छता अभियान चला रहे हैं। लेकिन अभी इसे लंबा चलाना होगा। कचरे के निस्तारण से पहले कचरा कम करने की आदत पर्यावरण को ज्यादा फायदा पहुंचाएगी। खुद की सफाई से ही राह निकलेगी। गांधी जी का संदेश याद कीजिए जिसमें शौचालय खुद साफ करने का विनम्र अनुरोध है। अपने बच्चों के लिए रोल मॉडल बनिए। ताकि आने वाली पीढ़ी को पता चले कि घर साफ करने से ही बाहर की सफाई जुड़ी हुई है। फिर सडक़ पर कचरा फेंकना बंद करना, दफ्तर साफ रखना लोग खुद ब खुद सीखेंगे। स्वच्छता स्वभाव बन जाए तो आधी समस्या हल हो गई समझिए।
भारत ने हाल ही में जीन संवर्धित सरसों (जेनेटिकली मॉडीफाइड मस्टर्ड) के लिए हामी भरी है। पूरी दुनिया में सिर्फ 18 देशों ने खाद्य पदार्थो के लिए जीन संवर्धित फसलों की अनुमति दी है। फिर भारत को ऐसी क्या जल्दी है?
जीएम सरसों के लिए सरकार ने कोई अनुमति नहीं दी है। उसको लेकर मंत्रालय की जो उप समिति है उसकी रिपोर्ट को अभी पब्लिक डोमेन में रखा गया है।
निजी तौर पर इस बारे में आप क्या मानते हैं?
दिमाग बंद करके कुछ नहीं करना चाहिए। देश, भूमि, किसान, उपभोक्ता सभी के हित में जो ठीक हो वही होगा। इस विषय पर विशेषज्ञों से भी बात करेंगे। हम प्रयोगधर्मी समाज हैं। प्रयोग के दरवाजे बंद नहीं करना चाहिए। लेकिन खाने की वस्तुएं, दवा के संबंध में परिणाम देख कर ही निर्णय लिया जाएगा। जीन संवर्धित खाद्य पदार्थों का मनुष्य के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ रहा है उसका मूल्यांकन करने के बाद ही सरकार कोई काम करेगी।
सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट को आप लगभग ‘धोखा’ मानते हैं। क्यों?
मेरा ऐसा मत इसलिए है क्योंकि इस तरह के प्लांट चलाने के लिए जो सुविधाएं चाहिए वह नहीं हैं। इसकी रनिंग कॉस्ट यानी चलाने की प्रक्रिया के लिए बिजली चाहिए वह है कहां? न शहरों के निगम के पास इतनी सुविधा और बिजली है, न ही नदी किनारे खड़े किए गए प्लांटों के पास। आप खुद एसटीपी प्लांटों की स्थिति देख लीजिए। प्लांट के केवल ढांचे बना कर खड़े कर दिए गए हैं, वे चालू हालत में नहीं हैं। हमें कम ऊर्जा खपत करने वाले मॉडल्स खोजने चाहिए। ऐसे मॉडल्स जो काम कर सकें।
अगले साल के लिए क्या लक्ष्य है?
100 दिन की कार्यवाही, समय सीमा के लक्ष्य इन सबको मैं सही गर्वनेंस का तरीका नहीं मानता। हर दिन नया लक्ष्य है और हर दिन मैं इसे पाना चाहता हूं। ऐसा नहीं होना चाहिए कि गांधी का चित्र तो दीवार पर रहे लेकिन गांधी कहीं न रहें। यह भाव दोबारा लौटें यही लक्ष्य है।