पिछले पखवाड़े रांची के हटिया और पड़ोसी जिले खूंटी में दो लोगों की हत्या हुई, तब इन्हें आम हत्याकांड माना गया। लेकिन पुलिस तफ्तीश के दौरान जब यह बात सामने आई कि इनमें नक्सलियों का हाथ है, तो एकबारगी पुलिस के साथ-साथ आमलोग भी भौंचक रह गए। अचरज इसलिए हुआ कि मारे गए लोग जमीन के कारोबार से जुड़े थे और हत्या करनेवाले भी इसी कारोबार से जुड़े थे, लेकिन वे नक्सली संगठन में सक्रिय हैं। पहली बार पुलिस इस नतीजे पर पहुंची कि ये हत्याएं केवल व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता में की गईं।
अब तक नक्सलियों द्वारा लेवी के लिए हत्या किए जाने की बात सामने आती रही थी, लेकिन पहली बार पता चला कि बड़ी संख्या में नक्सली अब कारोबारी बन गए हैं। झारखंड पुलिस ने जो जानकारी एकत्र की है, उससे पता चला है कि राज्य में सक्रिय कम से कम एक दर्जन बड़े नक्सलियों ने कारोबार के क्षेत्र में खुद को स्थापित कर लिया है और उनके पास करोड़ों की संपत्ति है। करीब सात साल पहले खुफिया रिपोर्ट आई थी कि झारखंड से नक्सली हर साल करीब तीन सौ करोड़ रुपये की लेवी वसूलते हैं। इसके बाद नक्सलियों ने नशे के कारोबार की तरफ ध्यान देना शुरू किया। राज्य के लातेहार और चतरा जिलों में उन्होंने अफीम की खेती करानी शुरू की। अफीम की खेती के लिए लाइसेंस की जरूरत होती है, लेकिन नक्सलियों ने बंदूक के बल पर ग्रामीणों को इसकी खेती करने के लिए मजबूर किया। इस खेती से ग्रामीणों को अच्छी आमदनी होने लगी, तो वे इस धंधे में उतर गए।
नक्सली खुद को जनता के अधिकारों का पहरुआ मानते हैं, लेकिन कम से कम झारखंड में अब यह स्थिति नहीं है। झारखंड में सक्रिय नक्सली संगठनों द्वारा इन दिनों सैकड़ों की संख्या में 10 से 16 साल की उम्र के बच्चों को हथियार चलाने और बारूदी सुरंग बिछाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है। जिस उम्र में बच्चों के हाथों में कलम और किताब होनी चाहिए थी, अब घातक हथियार हैं। इन बाल दस्तों को नक्सली अपने हितों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। चतरा इलाके में सक्रिय सब जोनल कमांडर आकाश जी के अनुसार गरीबी, अशिक्षा और शोषण की मार सहनेवाले इन बच्चों को संगठन में शिक्षा देने का भी काम होता है। लेकिन जांच के दौरान यह दावा पूरी तरह गलत साबित हुआ है। वास्तव में नक्सली संगठनों में इन बच्चों से कैरियर का काम लिया जाता है। हथियार ढोने से लेकर नशे का सामान लाने-पहुंचाने का काम बच्चों से लिया जाता है। लड़कियों का यौन शोषण आम बात है।
नक्सलियों के चंगुल से बच निकली लड़कियों ने यौन शोषण की कहानियां बताई हैं। उन्होंने यह जानकारी भी दी है कि नक्सली अब आरामतलब होने लगे हैं। उनके पास अब महंगी गाड़ियां भी हैं और वे संपन्नता के दूसरे साधनों से भी लैस हैं।
नक्सली समस्या का गहन अध्ययन करने वाले बताते हैं कि नक्सलियों ने अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए कई तरह के मुखौटे पहन लिए हैं। अफीम की खेती से लेकर ठेकेदारी और जमीन का कारोबार तक इसमें शामिल है। अपने धंधे को चमकाने के लिए ये बंदूक का सहारा खुलेआम लेते हैं। इतना ही नहीं, नक्सली अपने व्यावसायिक प्रतिद्वंद्वियों की हत्या भी करने लगे हैं। नक्सली यह जान चुके हैं कि दुनिया के सबसे निर्दोष समाज कहे जाने वाले आदिवासी समाज को बरगलाना बेहद आसान है। कुछ समय पहले, सर्वहारा और आदिवासी हितों की रक्षा की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले नक्सलियों का संबंध देशविरोधी संगठनों, मसलन पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और आईएसआईएस से होने का भी खुलासा हुआ है। इससे पता चलता है कि अपने कारोबारी मुखौटे को बचाने के लिए नक्सली अब किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं।
झारखंड पुलिस ने नक्सलियों के बारे में जो जानकारी एकत्र की है, उसमें यह बात शामिल है कि झारखंड में कम से कम दो दर्जन ऐसे नक्सली हैं, जिनके बैंक खातों में करीब चार सौ करोड़ रुपए जमा हैं। उन खातों से नियमित रूप से लेन-देन भी होता है। इसका मतलब यह है कि नक्सली अवैध रूप से जमा की गई रकम को वैध बनाने लगे हैं। झारखंड में सक्रिय नक्सली संगठनों का एक और मजबूत आर्थिक स्रोत है, उद्योगपतियों से मिलनेवाली रकम। यह रकम उन्हें उद्योगपतियों को जमीन दिलाने और जमीन पर कब्जा दिलाने के एवज में मिलती है। यानी नक्सली अब गरीब ग्रामीणों को घर-जमीन से बेदखल करने का काम भी करने लगे हैं। यह काम महानगरों में भाई लोग करते हैं। हाल ही में रामगढ़ के पास गोला में इनलैंड पावर कंपनी में हुए बवाल की जांच के दौरान यह बात सामने आई कि इलाके के कुछ लोगों को मनमाफिक दर पर कंपनी ने ठेका नहीं दिया, तो उन्होंने एक संगठन खड़ा कर हंगामा कराया। इसी तरह सरायकेला-खरसावां और लातेहार जिलों में भी सैकड़ों आदिवासियों को जमीन से बेदखल कराने में नक्सलियों के नाम आए। हजारीबाग, चतरा और दूसरे जिलों से भी ऐसी खबरें यदा-कदा आती रहती हैं। नक्सलियों के इस बदलते स्वरूप से सवाल उठने लगा है कि क्या जंगलों में बसने वाले निर्दोष आदिवासियों के जीवन में कभी सुबह आएगी?