ऑफिस जाने को बस स्टैंड पर खड़ा था। पीछे से कोई बोला, “भाई साहब!” मैंने मुड़कर देखा कोई दिखाई नहीं दिया। फिर आवाज आई, “सुनेंगे भाई साहब?” मैंने फिर पीछे गौर से देखा नाटे कद का, पीले कपड़े पहने, सिर पर फूलों का ताज लगाए एक आदमी खड़ा था। मैंने पूछा, तुम कुछ पूछ रहे हो? वह बोला, “हां।” मैंने कहा, जल्दी बोलो, बस आने वाली है। देर हो गई तो खाली-पीली में अफसर से झड़प हो जाएगी। वह मेरी बात पर तनिक हंसा और बोला, “मुझे कोई अच्छा-सा बाग-बगीचा बता दीजिए। कुछ दिन मैं अपना डेरा वहां लगाना चाहता हूं।”
मैंने उसे फिर ऊपर से नीचे तक देखा और बोला, कौन हो तुम? वह थोड़ा मुस्कराकर उत्साह से बोला, “मैं वसंत हूं।”
वसंत! कौन वसंत?
“जी मैं वसंत हूं, ऋतुओं वाला वसंत। मैं शहर में आ तो गया, लेकिन मुझे कहीं खिलने का स्थान दिखाई नहीं दे रहा।” वह बोला।
मैंने कहा, अच्छा तुम कहीं वह तो नहीं, जिसके बारे में मैंने दूसरी कक्षा में ‘आया वसंत, आया वसंत, वन-उपवन में छाया वसंत’ कविता पढ़ी थी?
वह खुश होकर बोला, “आपने सही पहचाना, मैं वही वसंत हूं।”
मेरी हंसी छूट गई। मैं हो-हो कर हंसने के बाद बोला, लेकिन तुम यहां कहां आ गए। शहर में किसे फुर्सत है तुम्हें जानने-पहचानने की?
“क्यों क्या शहर में जीवन नहीं है? आदमी नहीं रहते? प्रकृति अपनी छटा नहीं बिखेरती?” वसंत बोला। शहर में ऐसा कुछ नहीं होता। मेरा कहा मानो तो अपनी तशरीफ का टोकरा तुम कहीं और ले जाओ।
“आखिर क्यों? यहां के पार्क, बाग-बगीचे और हरियाली क्या मेरे लिए नहीं है? तुम वसंत पंचमी को तो जानते होंगे।” वह बोला।
मैंने कहा, हां नाम तो सुना है, लेकिन यह नहीं जानता इस दिन होता क्या है।
वह बोला, “कमाल है, इतने व्यस्त हो गए। थोड़ा प्रकृति से जुड़ो, वरना जीवन नीरस हो जाएगा। मेरा अहसास ही आपके भीतर उत्साह और उमंग भर सकता है। खैर, मुझे कोई रास्ता बताओ, जो किसी उपवन की तरफ जाता हो।”
मैं बोला, यहां जितनी भी सड़कें देख रहे हो, वे सब कांक्रीट से बनी इमारतों में जाती हैं। मुझे किसी कुंज वन का पता नहीं है। किसी गलत बस में बैठ गए तो किसी सरकारी दफ्तर में पहुंच जाओगे। इससे अच्छा कहीं गांवों में चले जाओ। वहां तुम्हें फिर भी कोई स्वागत-सत्कार करने वाला मिल जाएगा।
“लेकिन इन सड़कों के जाल में मुझे गांव का रास्ता भी दिखाई नहीं देता। फिर मुझे वहां तक जाने में देर भी हो जाएगी। वसंत पंचमी कल ही तो है। मैं कैसे जाऊंगा? इस बार मुझे शहर में ही खिल जाने दो।”
मैंने खिलने से कब रोका है। यदि शहर में खिल सकते हो तो खिल जाओ। मेरा रूखा उत्तर सुनकर वसंत निराश हो गया। वह उदास भाव से बोला, “क्या आपके साथ चल सकता हूं?”
लेकिन मैं तो दफ्तर जा रहा हूं। वहां सबकुछ यंत्रवत, बेजान-सा है। मारा-मारी, उठा-पटक तथा रिश्वतखोरी का खुला खेल चलता है। वहां कभी वसंत नहीं आता। लोगों के चेहरे भ्रष्टाचार के वसंत से खिलते हैं। तुम्हारे प्रकृतिवादी रूप से कोई परिचित नहीं है। फिर तुम्हारे आ जाने से होता भी क्या है?
“क्या मतलब?” उसने आश्चर्य से पूछा।
मतलब यह कि सब-कुछ पैसों से चल रहा है। लोग पैसों के पीछे पागल हो रहे हैं। जा-बेजा जिस भी तरीके से यह प्राप्त हो सकता है, उसे प्राप्त करने की होड़ मच रही है। तुमने जाकर कहीं फूल खिला भी दिए तो कोई कद्रदान नहीं होगा। मेरी बात सुनकर वह घबरा गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि क्या करे, क्या न करे? वह फिर हिम्मत कर बोला, “तुम्हारे घर रुक सकता हूं कुछ दिन? तुमसे कुछ नहीं लूंगा। बस तुम्हारे घर के किसी गमले में चुपचाप बैठकर खिला रहूंगा और थोड़े दिन बाद लौट जाऊंगा अपने घर।”
मुझे लगा, बात तो वसंत ठीक कह रहा है। बेचारा शहर में आकर भटक गया है। कुछ दिन घर पर लगे गमलों में गुजार लेगा तो हर्ज क्या है। तो ठीक है फिर तुम शाम तक यहीं मेरी प्रतीक्षा करो। शाम को दफ्तर से लौटूंगा तो तुम्हें अपने साथ घर ले जाऊंगा।
तभी मेरी बस आ गई। मैं दौड़कर उसमें चढ़ गया। शाम को लौटा तो मुझे वसंत उस बस स्टैंड पर नहीं मिला। एक पल को तो लगा जैसे मैंने कुछ खो दिया। लेकिन अगले ही क्षण मैं आश्वस्त भाव से घर की ओर चल दिया। पता नहीं वसंत महानगर में कहां भटक रहा होगा?