हेमंत शर्मा ने अपनी सद्यः प्रकाशित दो पुस्तकों के माध्यम से अयोध्या और अयोध्या के विवादित ढांचे, मंदिर निर्माण आंदोलन एवं विवादित ढांचे के ध्वंस तथा उसके बाद की स्थितियों-परिस्थितियों, घटनाओं-परिघटनाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। मंदिर-मस्जिद जैसे विशुद्ध आस्था और परंपरा के प्रश्न का जब जहरीला राजनीतिकरण हो जाए तो देश की नई पीढ़ी के सामने सच आना चाहिए। खासकर तब, जब मुद्दों को दफन करने या जिंदा रखने की साजिश जारी है।
दो खंडों में यह पुस्तक, युद्ध में अयोध्या और अयोध्या का चश्मदीद राष्ट्रीय परिघटना को समझने, उन पर नई दृष्टि डालने को मजबूर करती है। दोनों पुस्तकों में समसामयिक घटनाओं का ब्योरा तो है ही, इसके पीछे छुपी राजनीतिक नीयत और उद्देश्यों को उधेड़ने का प्रयास भी किया गया है। भारत की विरासत, परंपरा, सांस्कृतिक इतिहास और धार्मिक मूल्यों में गहरे तक धंसे सच, इतिहास और वर्तमान के कालखंड को एक प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत करने का यह प्रयास है। युद्ध में अयोध्या में विवादित परिसर का ताला खुलने से लेकर उसके ध्वंस तक अयोध्या के भीतर और बाहर की उथल-पुथल के आंखों देखे शब्दचित्र हैं। अयोध्या का चश्मदीद में अखबार के लिए रिपोर्टिंग के दौरान जमा कतरनों को जोड़कर सच को परत-दर-परत उघाड़ने की कोशिश, ईंट दर ईंट टूटते ढांचे और उसके बाद का सूरतेहाल, साल-दर-साल दम तोड़ता उन्माद, अयोध्या में कारसेवा और गोलीकांड के बीच छुपी घटनाओं तथा भूमि पूजन एवं शिलान्यास का सिलसिलेवार ब्योरा दर्ज है।
प्रख्यात समालोचक नामवर सिंह ने हेमंत शर्मा की दोनों पुस्तकों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, “मंदिर बने न बने, यह राम जाने! लेकिन हेमंत शर्मा की इस पुस्तक का मंदिर अमर है। ऐसा मंदिर एक लेखक ही बना सकता है। राम और उनकी जन्मभूमि पर ऐसी प्रामाणिक पुस्तक पहले कभी नहीं आई।” नामवर सिंह जी की यह टिप्पणी अक्षरशः सही है। रिपोर्टिंग के दौरान हेमंत लगातार 15 साल तक अयोध्या को कवर करते रहे। वह सच्चे मायने में अयोध्या से संबंधित हर घटना के गवाह रहे हैं। यदि गवाह एक पत्रकार है तो उससे ज्यादा प्रामाणिक तथ्य भला और कौन दे सकता है।
एक आम लेखक या आम पाठक की स्मृति कुछ समय में गायब हो सकती है। हम ठीक-ठीक याद नहीं रख पाते कि वास्तव में मामला क्या था। घटनाओं का सिलसिला गड़बड़ा जाता है। लेकिन हेमंत की स्मृति में वे सारी चीजें इसलिए भी दर्ज हैं क्योंकि 15 वर्षों की रिपोर्टिंग की अखबारी कतरनें भी उनके पास हैं। उनके समाचार रूखी-सूखी सूचनाएं भर नहीं, बल्कि उनमें पीड़ित और प्रभावित लोगों के दुख-दर्द समाहित हैं। पुस्तकों को पढ़कर यह महसूस किया जा सकता है। साथ ही अयोध्या आंदोलन और विध्वंस के दौरान और उसके बाद के उद्वेलन, उन्माद, उकसावे, गुस्से और उत्तेजना को भी अनुभव किया जा सकता है। आखिर 6 दिसंबर,1992 की स्थिति कैसे आई, विध्वंस की स्थिति की पृष्ठभूमि क्या रही, इसे समझने के लिए पुस्तक में उल्लिखित तारीखों से गुजरना पड़ेगा। क्योंकि ये तारीखें अयोध्या से लेकर दिल्ली तक हुई तमाम राजनीतिक बैठकों और तमाम साजिशों की जीती-जागती गवाह हैं। दोनों पुस्तकों में अयोध्या के इतिहास को भी उकेरने की कोशिश है। इन दोनों पुस्तकों में कई दुर्लभ चित्र भी हैं जो अयोध्या की कहानी को नया आयाम देते हैं। कुछ चित्र तो इतने दुर्लभ हैं कि पहली बार ही सार्वजनिक हुए जान पड़ते हैं। यहां भाजपा-कांग्रेस जैसे दो राजनैतिक दलों की मंदिर निर्माण और बाबरी मस्जिद को विध्वंस से बचाने अथवा उसे गिराने में क्या भूमिका रही, इसका तो उल्लेख है ही, साथ ही राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण आंदोलन के दौरान तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं, केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश एवं बिहार सरकारों की भूमिका का भी उल्लेख है। विवादित इमारत का ताला खोलने का आदेश देने वाले तब के जिला जज का रोचक किस्सा भी इसमें है।