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लक्ष्मी-प्यारे की छाया में गुम एक संगीतकार

संगीतकार प्यारेलाल के छोटे भाई गणेश जब फिल्म जगत में आए तो उनकी प्रतिभा की काफी चर्चा हुई थी। कहा जाने लगा था, लक्ष्मी-प्यारे की कई रचनाओं के पीछे गणेश के बहुमूल्य सुझाव का योगदान है।
किशोर-आशा का ‘ले ओ दिलदार’ गाना आकर्षक तर्ज की वजह से खूब चला

चर्चा इतनी असरदार रही कि बिना कोई फिल्म प्रदर्शित हुए भी उनके पास दसेक फिल्में थीं। कई फिल्में उन्होंने अस्वीकार करना शुरू कर दिया था। सुंदर और आकर्षक व्यक्तित्व के धनी गणेश गाते भी अच्छा थे। उन्होंने पिता पं. रामप्रसाद से संगीत के कई गुर सीखे थे। ठाकुर जरनैल सिंह (1966) बड़े बैनर की फिल्म नहीं थी, अभिनेता थे दारा सिंह। इस फिल्म में गणेश ने आशा भोंसले से उनके संगीत-जीवन का ऐसा जबर्दस्त गीत गवाया कि आशा ने इसे ‘माई फेवरिट्स’ कैसेट में स्थान दिया। यह गीत था ‘हम तेरे बिन जी न सकेंगे सनम।’ सरल कंपोजीशन को भी रिद्म के सहारे कितना दिलकश और जीवंत बनाया जा सकता है यह इस गीत से प्रकट होता है। रिद्म का ही प्रयोग हमें ‘सैंया से वादा था नाजुक घड़ी थी’ (लता) और ‘काहे छेड़े हाय काहे छेड़े रे मोहे बालपन में सजना’ (लता-उषा मंगेशकर) में भी मिलता है। हुस्न और इश्क (1966) के ‘ऐ मेरे दिल तेरी मंजिल अभी आने वाली है’ (मुकेश), ‘नहीं-नहीं तेरी बातों का ऐतबार नहीं’ (उषा मंगेशकर-कृष्णा कल्ले), जैसे गीतों में भी इसी रिद्म का झंकृत रूप है। इससे हटकर फिल्म में गणेश ने रफी से एक लयपूर्ण रूमानी गीत ‘जिनकी तस्वीर निगाहों में लिए फिरता हूं’ और आशा से ‘मजा बरसात का चाहो तो इन आंखों में आ बैठो’ तथा ‘अरे सितमगर इक और ठोकर’ गीत गवाया। सभी गीतों के आधार में तबले और ढोलक का प्रयोग प्रमुखता से परिलक्षित होता है। शेरा डाकू (1966) फिल्म के ‘इंतजार का आलम तन्हाई और हम’ (लता) में गणेश ने गिटार, ड्रम के आधुनिक ऑरकेस्ट्रेशन के साथ सस्पेंस के लिए गूंजती आवाज का अच्छा प्रभाव उत्पन्न किया था पर गीत चला नहीं। वहीं स्मगलर (1966) के ‘मेरा तबला कहे धिक है’ (लता) में एकॉर्डियन और माउथ ऑर्गन के साथ मीठी मेलोडी थी और ‘सुन लिया ना’ (लता-रफी) में भी ऑरकेस्ट्रेशन का आकर्षण था। सब का उस्ताद (1967) में रफी के स्वर में खुमार-भरा ‘पिला दे मगर शर्त ये होगी साकी, मैं जितनी पिऊंगा पिलानी पड़ेगी’ सुंदर रचना थी पर दुर्भाग्य से इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। 

गणेश की संगीतबद्ध, फिरोज खान और शाहिदा अभिनीत अंजाम (1968) का संगीत हिट रहा था, विशेषकर मुकेश का गाया ‘जुल्फों का रंगीं साया है तौबा खुदाया।’ इस गीत को एच.एम.वी. ने मुकेश के रेयर जेम्स कैसेट्स में भी शामिल कर इज्जत बख्शी थी। वैसे यह गीत भी रिद्म प्रधान था। ऐसा ही एक रवानगी-भरा गीत था, ‘ऐ दिलरुबा कल की बात’ जिसे मुकेश के साथ सुमन कल्याणपुर ने गाया था। दरअसल, गणेश रिद्म के प्रभुत्व वाली आकर्षक संगीत रचनाएं बनाने में तो कुशल थे पर उनकी त्रासदी रही कि उनकी शैली और तबले, ढोलक के प्रयोग का अंदाज बिलकुल लक्ष्मी-प्यारे की शक्ल का ही था। शायद यही कारण था कि अपने आगमन से पहले भले ही उनकी चर्चा हुई हो पर फिल्म-जगत में आने के बाद मौलिकता की कमी के कारण अधिकांश निर्माता लक्ष्मी-प्यारे की ओर मुड़ गए। उस दौर में लक्ष्मी-प्यारे न सिर्फ रिद्म को लेकर बल्कि मेलोडी की सृष्टि पर भी चौकन्ने थे और लता से एक से बढ़कर एक दिलकश और नए अंदाज के गीत गवा रहे थे।

एक नन्ही-मुन्नी लड़की थी (1970) में गणेश ने वैसे रफी से बड़ी मर्मस्पर्शी धुन पर फिल्म का शीर्षक गीत गवाया था। कहीं आर कहीं पार (1971) में किशोर के स्वर में ‘जवानी का ये आलम है’ या आशा के गाए ‘दिल में बड़ी-बड़ी बाते हैं’ विशेष प्रभाव पैदा न कर सके। कुंदन (1972) का लता का गाया ‘दिल का करार लाई’ और अन्य गीत भी खास नहीं रहे। पर मनमोहन देसाई निर्देशित शरारत (1972) के कुछ गीत हिट रहे थे, ‘कल रात सपने में आए थे तुम’ (रफी-आशा) उस वक्त कुछ चला था। लता के गाए ‘दिल की लगी ऐसी है’ और ‘हम तो कोई भी नहीं हमको भुला दो ऐसे’ विशेष असर पैदा नहीं कर पाए पर फिल्म में रफी का गाया, पियानो के सुरों का आधुनिक शैली का ‘दिल ने प्यार किया है इक बेवफा से’ वाकई अच्छा गीत था। राधा सलूजा और किरण कुमार अभिनीत चालाक (1973) के भी कुछ गीत लोकप्रिय हुए थे। ‘मन गाए वो तराना जिसे सुन के आ जाना’ (सुमन) और ‘दिल का नजराना ले ओ दिलदार ले ये सच्चा प्यार है मेरा प्यार ले’ (किशोर-आशा) अपनी आकर्षक तर्ज और वाद्य-संयोजन के कारण खूब बजे थे। इसी प्रकार धमकी (1973) का ‘कली से बहारों से नजरों से’ (किशोर) और उससे भी बढ़कर रिद्म की जादूगरी प्रदर्शित करता ‘चांद क्या है, रूप का दर्पण’ (किशोर-आशा) बेहद चले।

इन सभी लोकप्रिय गीतों में भी गणेश अपनी अलग शैली विकसित नहीं कर पाए। लक्ष्मी-प्यारे के विराट व्यक्तित्व के आगे बिना अलग पहचान बनाए न चल पाना ही उनकी सफलता को सीमित करती थी। एक नारी दो रूप (1973) में रफी का गाया हिट गीत ‘दिल का सूना साज तराना ढूंढेगा’, सुंदर कर्णप्रिय ‘मेरे मन पवन संग उड़ चल’ (आशा) या लक्ष्मी-प्यारे की लोफर के ‘मैं तेरे इश्क में मर न जाऊं कहीं’ की शैली में बनाया, जिंदगी में सदा मुस्कुराते रहो’ (आशा) या फिर सा रे ग म प (1973) का बेहद लोकप्रिय गीत ‘मैं प्यार मांगू प्यार दे दे ओ सांवरिया ओ बांके सांवरिया’ (लता) भी मूलत: लक्ष्मी-प्यारे की शैली से ही प्रभावित थे। काफी अरसे तक गुमनाम रहने के बाद फिल्म दोजख (1986) में गणेश का नाम फिर आया, पर ‘खामोशी हद से बढ़ी’ (अनुराधा-सुरेश वाडेकर) के अलावा कोई भी गीत उल्लेखनीय न रहा। अट्ठाइस मार्च 2000 को इस संगीतकार का मुंबई में 58 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं संगीत विशेषज्ञ हैं।)

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