असम और केरल में हाथ लगी पराजय के बाद कांग्रेस के भविष्य पर सवाल उठाए गए। यहां तक कि दिग्विजय सिंह और सत्यव्रत चतुर्वेदी सरीखे लोग भी पार्टी की सर्जरी की मांग करने से नहीं चूके। यह सोचना दीगर है कि कांग्रेस को मजबूत बनाने में उनकी भूमिका कितनी रही जो सर्जरी की छटपटाहट में हैं। तो ऐसे में क्या यह समझ लिया जाए कि कांग्रेस भविष्य के लिए छटपटा रही है और उसके भविष्य के लिए रोशनी का कोई सुराग नहीं दिख रहा? हमारी राजनीति में एक-दूसरे के भविष्य के खत्म होने को लेकर टिप्पणी गाहे-बगाहे की जाती रहती है। भाजपा ने भी कांग्रेस के भविष्य पर प्रश्न चिह्न खड़ा किया है। उसने तो एक तरह मान लिया है और वह देश को यह मानने के लिए कह रही है कि भारत कांग्रेस मुक्त दिशा में बढ़ रहा है।
भविष्य क्या है?
अमेरिकी मानवशास्त्री और लेखक एडवर्ड वीयेर जूनियर ने एक बार कहा था कि भविष्य एक गलियारे की तरह है जिसमें हम केवल पीछे से आ रही रोशनी से ही देख सकते हैं। मानवशास्त्री का यह कथन कांग्रेस के भविष्य पर चर्चा के लिए सटीक है। कांग्रेस के पास गलियारा (भविष्य) है। गलियारे में आगे देखने के लिए उसकी अपनी शक्ति है। देश की जनता में उसकी पारंपरिक साख और हर वर्ग का समर्थन उसकी शक्ति है। यह वही शक्ति है जो कांग्रेस को गलियारे में पीछे से रोशनी दे सकती है। कांग्रेस की आवश्यकता महज सावधानी से डगर भरने की है। अपनी व्यवस्थित चाल के बूते ही वह खम ठोक कर यह कह सकती है कि देश में कांग्रेस है और रहेगी।
कांग्रेस बीते कल की कहानी नहीं हुई है। कांग्रेस पुरानी अवश्य है लेकिन वह अतीत नहीं। वह तब भी अतीत नहीं बनाई जा सकी जब जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के परिणाम स्वरूप 1977 में पहली बार सत्ता से बेदखल हुई। और उस समय भी नहीं जब अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता के सामने उसे हार झेलनी पड़ी थी। उसके बाद तो कांग्रेस दो बार सत्ता में आई। अलबत्ता राज्यों के क्षेत्रीय दलों और क्षत्रपों के साथ गठजोड़ करके।
हम लोकतांत्रिक समाज हैं, हमारे राजनीतिक दल निष्पक्ष चुनाव के बूते सत्ता तक पहुंचते हैं। चुनावों में कभी किसी दल की जीत होती है तो कभी हार का मुंह भी देखना पड़ता है। हार और जीत का स्वाद अब तकरीबन देश के सभी राजनीतिक दल ले चुके हैं। जीत का अर्थ सर्वकालिक विजय नहीं होता और पराजय का मतलब रसातल में पहुंच जाना नहीं होता। आज कांग्रेस को आत्ममंथन करते समय पीछे की उस रोशनी की तलाश करनी होगी जो 2009 में उत्तर प्रदेश से निकली थी। 2004 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में प्राप्त चार सीटों की तुलना में 2009 में कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं। देश के सबसे बड़े प्रांत में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 10 से बढ़कर 18.2 प्रतिशत पहुंच गया था। राजनीतिक पंडित कहने लगे थे कि राहुल गांधी का युग आ गया।
कांग्रेस में चाहे सोनिया गांधी का नेतृत्व हो या राहुल गांधी का उत्तर प्रदेश की ओर रुख करना उसके लिए सबसे अहम है। वहां कांग्रेस के लिए अवसर मिल सकते हैं। सत्ता प्राप्ति के लिए नहीं तो कम से कम देश के सबसे बड़े प्रांत में अपनी स्थिति मजबूत बनाने के अवसर तो मिल ही सकते हैं। इसके लिए कांग्रेस को जूझना होगा, विरोधियों यानी मुलायम-अखिलेश और मोदी की विफलताओं को लोगों के बीच ले जाना होगा, अपना रोड मैप पेश करना होगा, जनता में स्वच्छ छवि का उम्मीदवार पेश करके यह बताना होगा कि उत्तर प्रदेश पिछले 20-25 साल से अव्यवस्था के दौर से गुजर रहा है, राज्य में कानून व्यवस्था बिगड़ गई है, शैक्षिक माहौल खराब हो चुका है और सामाजिक समरसता की स्थिति अच्छी नहीं है और कांग्रेस इन सारी बातों पर गंभीर रूप से चिंतित है। निकट भविष्य में कांग्रेस संगठन में शीर्ष से नीचे तक का बदलाव अखबार-मीडिया के लिए चटख खबर बनाने में सहायक तो हो सकता है लेकिन संगठनात्मक परिवर्तन करते हुए कांग्रेस को यह भी सोचना होगा कि वह विश्लेषण की ईमानदार कसौटी पर स्वयं को परख रही है या नहीं, वह जमीनी राजनीति के निकट जाना चाहती है या प्रबंधकीय विशेषज्ञों के बताए रास्ते पर चलना चाहती है। कांग्रेस को यह गंभीर रूप से सोचना होगा कि वह जनता के निकट जाना चाहेगी या उन प्रबंधकीय लोगों के बूते आगे बढ़ना चाहेगी जो जन राजनीति कम और प्रबंधन और धन सृजन में अधिक दिलचस्पी और महारत रखते हैं। सर्जरी की मांग के बीच कांग्रेस के लिए अच्छा यह होगा कि वह उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक राज्य इकाइयों को दुरुस्त करे। जिला स्तरों तक कार्यकर्ताओं से संवाद करे विशेष कर उन लोगों की अनदेखी करते हुए जो आला कमान को जमीनी हकीकत को लेकर बरगलाने में माहिर होते हैं। राहुल ने पहले जिला स्तर पर संगठन चुनाव की पहल की थी, चुनाव भी हुए लेकिन चुनावों की विश्वसनीयता न जाने कब खत्म हो गई और राहुल की परियोजना परवान नहीं चढ़ सकी। जिला स्तर से ऊपर तक मरम्मत की जो योजना थी वह आज भी ईमानदारी से लागू की जा सकती है। इस बात की परवाह किए बिना कि ऐसी पहल कामयाब नहीं हुई है।
कांग्रेस 60-70 के दशक की स्थिति में नहीं है जब उसके सामने कोई ठोस विपक्ष नहीं होता था। अब उसे एक ऐसे दल से मुकाबला करना है जो कैडर आधारित है, जिसे संघ की शक्ति प्राप्त है और जो आगे तीन वर्षों तक सत्ता में रहने वाला है। कांग्रेस को इस तथ्य के आलोक में आगे बढ़ना होगा। जिला स्तर पर दमखम दिखाने के साथ-साथ संसदीय स्तर पर भी कांग्रेस को यह दिखाना होगा कि वह उत्तरदायी विपक्ष है,उसे देश और देश के लोगों की वास्तविक चिंता है। सनद रहे, यह सब कुछ करना कांग्रेस के लिए असंभव नहीं।
(लेखक प्रिंट और टी.वी. से जुड़े वरिष्ठ संपादक एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)