विधान सभा चुनाव की दहलीज पर खड़े उत्तर प्रदेश में राजनीतिक दल कामयाबी के मुद्दे तलाशने और तराशने में खून-पसीना एक कर रहे हैं। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी में उठा आंतरिक तूफान थमा भी नहीं था कि 17 सीटों पर प्रत्याशी बदले जाने से एक नया विवाद छिड़ गया। बसपा में स्वामी प्रसाद मौर्य के पार्टी छोड़ने से शुरू हुआ सिलसिला और तेज हो गया है, पार्टी की 2007 की सोशल इंजीनियरिंग की हवा निकलती दिख रही है। हरिजन वोट बैंक के साथ सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों को जोड़ने के प्रयास में हर पार्टी जुटी है। सरहद पर तनाव के मद्देनजर भाजपा को छोड़ सभी दल इस बात से आशंकित हैं कि यदि भारत-पाक युद्ध हुआ तो यूपी का चुनाव उनके हाथ से निकल सकता है और भाजपा को इसका लाभ मिल सकता है।
कई सवाल उठ रहे हैं। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि विकास का मुद्दा हावी रहेगा या कुछ और। मध्य प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और बिहार की तरह विकास के मुद्दे पर पार्टियां मैदान में होंगी या यूपी में जात-पांत के आधार पर वाटों का ध्रुवीकरण होगा। राजनीतिक गठजोड़ पर भी निगाहें टिकी हैं। पार्टियों को सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य उत्तर प्रदेश, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बुन्देलखंड की छोटी-छोटी पार्टियों के मुख्यत: जाति आधारित वोट बैंक को कौन लुभा ले जाएगा। मसलन, पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुर्मी वोट बैंक पर आधारित अपना दल का भाजपा से समझौता होगा या नहीं- इस पर हाल में सवालिया निशान लगे हैं। उत्तर प्रदेश से अपना दल के कोटे से निर्वाचित दो सांसद हैं-कुंवर हरिवंश सिंह और पार्टी के संस्थापक स्वर्गीय सोने लाल पटेल की बेटी अनुप्रिया पटेल। अनुप्रिया को केंद्रीय मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री की सीट मिल गई है। इससे खफा सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल और अनुप्रिया की छोटी बहन पल्लवी पटेल ने पार्टी को ही बांट दिया। अब प्रश्न उठ रहा है कि असली पार्टी किसकी है- कृष्णा पटेल की या अनुप्रिया की। आंतरिक संघर्षों से पार्टी के अस्तित्व पर सवाल उठने लगा है।
बसपा तो अतीत में गठबंधनों को चुनाव के बाद धता बताती रही है। ऐसे में इस बार छोटे से छोटा दल भी शायद ही बसपा के साथ आए। कांग्रेस के लिए पसीना बहा रही प्रशांत किशोर की टीम ने ‘27 साल-यू.पी. बेहाल’ जैसा प्रभावी नारा दिया है, लेकिन यह आकलन करना अभी जल्दबाजी होगी कि पार्टी की दलित-ब्राह्मण गठजोड़ की अत्यन्त पुरानी रीति-नीति को नये सांचे में ढालने से सफलता मिलेगी। बेंगलुरू की एक निजी संस्था द्वारा किए गए सर्वे के अनुसार, उत्तर प्रदेश और बिहार में सबसे ज्यादा युवा वोटर हैं। यह साफ है कि युवा जाति और धर्म जैसे मुद्दों पर आधारित वोट तो नहीं देगा। बिहार चुनावों में यह बात स्पष्ट हो चुकी है।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह कह रहे हैं कि भाजपा का मुख्य मुकाबला सपा से है। इस समीकरण की पृष्ठभूमि विकास की जंग है। विकास का पर्याय लोग किसे मानते हैं- यूपी में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को? स्पष्ट तौर पर प्रदेश में योजनाओं की बाढ़ है। केंद्र की अधिकांश योजनाएं जहां सिर्फ घोषणाओं और कागजों में सिमटी पड़ी हैं, वहीं प्रदेश सरकार की तीन-चार नगरों में आकार लेती मेट्रो रेल परियोजना, स्थानीय, नगरीय, ग्रामीण विकास की कई सौ योजनाएं मूर्तरूप ले चुकी हैं या अंतिम चरण में हैं। युवाओं के ‘आईकान’ अखिलेश यादव के समर्थन में युवा मतदाता और विद्यार्थी वर्ग है। प्रदेश सरकार ने सड़कों, गांवों और आधारभूत संरचनाओं की खराबी, बदहाली दर्शाने के लिए खराब सड़कों और अन्य संरचनाओं के पास सूचना बोर्ड लगाये हैं कि यह योजना या सड़क केंद्रीय सरकार की योजना के अंतर्गत है। इसका अच्छा-खासा असर दिखाई पड़ा है। मुख्यमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट वाराणसी में वरुणा कॉरिडोर प्रोजेक्ट है।
मुख्यमंत्री अखिलेश ने इलाहाबाद में बाहुबली अतीक अंसारी को मंच से स्वयं हटा कर, माफिया डॉन मुख्तार अंसारी से मिलने से मना कर और गाजीपुर-लखनऊ में बीच रास्ते में उन्हें लौटा कर यह संदेश देने की कोशिश की है कि सपा ने अपराधियों से दूरी बना रखी है। हालांकि, टिकट वितरण में आपराधिक रिकॉर्ड वाले लोगों को पार्टी के टिकट दे दिये गए। इससे नाराज अखिलेश ने कहा कि विधानसभा चुनाव में जीत का ट्रंप कार्ड तो मेरे पास है। जिसके पास तुरुप होगा, वही जीतेगा। प्रत्याशियों की घोषणा से सपा में तूफान है।
राष्ट्रीय लोक दल के चौधरी अजीत सिंह के द्वारा चार अक्टूबर को शरद यादव और नीतीश कुमार के साथ की गई रैली को जाट-मुस्लिम समीकरण को नया मोड़ देने की कोशिश माना जा रहा है। लोकसभा चुनाव में उन्हें मुजफ्फरनगर दंगे का राजनीतिक खामियाजा उठाना पड़ा था। पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे होने का फायदा उन्हें नहीं मिल सका था। 2012 में विधानसभा की बड़ौत और बागपत सीटों का रालोद के हाथों से निकल जाना बड़ा झटका था। बसपा जीती थी। इन समीकरणों के आईने में रालोद की रैली में किसानों की ‘बड़ी भागीदारी’ को अच्छा संकेत माना जा रहा है, लेकिन अजीत सिंह ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं।
कार्यशैली की परीक्षा
अखिलेश यादव की राजनीतिक सूझ-बूझ और पकड़ की असली परीक्षा विधान सभा चुनावों में ही दिखेगी। 2012 में उत्तर प्रदेश के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेने वाले अखिलेश ने जनता से वादा किया था कि वह अपने कार्यकर्ताओं को अनुशासन में रखेंगे और उनकी इस हिदायत को नजर अंदाज करने के परिणाम अच्छे नहीं होंगे। बतौर मुख्यमंत्री उन्होंने मुलायम सिंह की दूसरी पत्नी साधना गुप्ता के भाई और विधुना के विधायक प्रमोद गुप्ता के खिलाफ कार्यवाही की। प्रमोद गुप्ता के बेटे ने सत्ता का करीबी होने के तैश में अपने शिक्षक को ही थप्पड़ मार दिया था। मामला जब अखिलेश के संज्ञान में आया तो बिना देर किये अखिलेश ने सख्त कार्यवाही के आदेश दिए।
अखिलेश द्वारा घोषित उनके ज्यादातर ड्रीम प्रोजेक्ट्स पूरे हो चुके हैं या कुछ ही दिनों में हो जाएंगे। अखिलेश आत्मविश्वास से लबरेज नजर आ रहे हैं। उनके करीबी बताते हैं कि अखिलेश ज्यादातर अपने बड़ों की बात सुन लेते हैं या उनसे पूछकर-समझकर निर्णय लेते हैं, लेकिन जब मामला माफिया डॉन मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल का आया तो अखिलेश ने किसी की नहीं सुनी।
‘वह मेरे पिता हैं’
वह मेरे पिता हैं, सर्वोपरि थे, हैं और रहेंगे। आउटलुक के साथ बातचीत में अखिलेश यादव ने अपने परिवार में चल रहे सत्ता संघर्ष को लेकर यही टिप्पणी की। उन्होंने कहा, मुझे मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय नेता जी (मुलायम सिंह यादव) और परिवार के बड़ों का था और नेता जी हम सब के आदर्श हैं!’
वे कहते हैं, ‘यह बात उन लोगों को समझनी चाहिए जो यह कह रहे हैं कि मैं अलग घर में आ गया और मेरी उनसे बातचीत बंद है। यह परिवार एक था, है और रहेगा। जब परिवार बढ़ता है और सदस्य बढ़ते हैं तो नये कमरों में शिफ्ट हो जाते हैं। घर एक ही रहता है। जो लोग उत्तर प्रदेश की जनता का ध्यान विकास के मुद्दे से हटाना चाहते हैं, वह यही सब फैलाने की कोशिश करते रहते हैं। उन्हें शायद नहीं पता होगा कि वे जिस घर में मेरे शिफ्ट होने की बात कहते हैं वह नेता जी के घर का एक्सटेंशन (विस्तार) है।
अखिलेश कहते हैं, ‘मुद्दा विकास का ही होगा। न्यूजरूम में बैठकर या सोशल मीडिया पर भ्रामक बातें फैलाने से मुद्दा नहीं बदलने पायेगा। और आखिरी बात लोगों को यह भी समझना चाहिए कि पिता और पुत्र के बीच कभी भी कोई भी राजनीति नहीं हो सकती। कम से कम मेरे रहते तो नहीं! हम समाजवादी लोग हैं, हमारे जो मन में है, वो बाहर है, जो बाहर है वही अन्दर है!’