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गठबंधन में कड़वाहट

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव के कई फैसलों को लेकर हो रही तकरार
नीतीश कुमार की फीकी पड़ती चमक

बि हार में गठबंधन सरकार की टकराहट की खबरें अब आम चर्चा का विषय बन चुकी हैं। भले ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी साफ छवि को दिखाने की कोशिश करें लेकिन कहीं न कहीं उन पर दबाव नजर आने लगा है। जनता दल यूनाइटेड, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार में अब नीतीश कुमार असहज और ठगा महसूस कर रहे हैं। कारण साफ है, राष्ट्रीय जनता दल के साथ युवाओं का बढ़ता झुकाव। उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव युवाओं के बीच खासा लोकप्रिय हो रहे हैं। उनके बड़े भाई तेजप्रताप यादव की भी युवा मंडली सरकार पर हावी होती दिख रही है। राजद प्रमुख लालू यादव भी गाहे-बगाहे कुछ न कुछ ऐसा बयान दे देते हैं कि उससे लगने लगता है कि राज्य में सत्ता के कई केंद्र हैं। कांग्रेस भले ही कमजोर कड़ी के रूप में दिखाई पड़ रही हो लेकिन जो विभाग कांग्रेस के खाते में हैं वहां कांग्रेसियों का बोलबाला साफ तौर पर नजर आ रहा है। सुशासन बाबू की छवि वाले नीतीश कुमार की छवि अब पहले की तरह निखर कर सामने नहीं आ रही है। गठबंधन की कई मजबूरियां हैं तो कई फायदे भी हैं। अगर कुछ गलत हुआ तो ठीकरा सबके सिर फूटेगा और सही हुआ तो श्रेय मुख्यमंत्री को जाएगा। लेकिन इन सबके बीच राष्ट्रीय जनता दल अपने संगठन को नए ढंग से संवारने के अभियान में लगा है। पार्टी का जनाधार पहले से काफी बढ़ा भी है। राजद ने सरकार के कई महत्वपूर्ण विभाग जहां अपने खाते में रखे हैं वहीं विकास का श्रेय भी पार्टी लेने में पीछे नहीं हट रही है। लेकिन कानून-व्यवस्था के नाम पर सरकार में शामिल राजद पल्ला झाड़ लेती है कि यह काम सरकार का है। क्योंकि कुछ समय पूर्व से सूबे का बढ़ता आपराधिक ग्राफ व न्यायिक प्रक्रिया के तहत राजद नेताओं की रिहाई व गिरफ्तारी को लेकर उठे सवाल के बीच भी मुख्यमंत्री ने असहज महसूस किया। वहीं महागठबंधन के घटक दल कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार राहुल गांधी को नजरअंदाज कर नीतीश कुमार ने राष्ट्रीय फलक पर खुद को नेता पेश करने की जो पहल की उससे भी दरार नजर आने लगी है। शराबबंदी का अभियान छेड़कर सुर्खियां बटोर चुके नीतीश कुमार ने यही फार्मूला अन्य राज्यों में भी जाकर सुझाना शुरू किया। लेकिन इस फार्मूले को अन्य राज्य कितना गंभीरता से लेते हैं इस पर भी विचार करने की जरूरत है। शराबबंदी का फार्मूला कई राज्यों में लागू हुआ लेकिन सफल नहीं हो पाया। राज्य में विकास कार्य का श्रेय नीतीश कुमार भी लेना चाह रहे हैं तो दूसरी ओर तेजस्वी यादव भी ले रहे हैं। दोनों के प्रचार-प्रसार का अपना तरीका है। राजद के पास जहां युवाओं की फौज है वहीं जदयू का युवा संगठन कमजोर है। तुलनात्मक दृष्टि से राजद का पलड़ा भारी दिख रहा है जो गठबंधन में दरार की आहट भी पैदा कर रहा है।
बिहार की राजनीति पर नजर डालें तो 2005 का विधानसभा चुनाव जंगल राज से मुक्ति और सुशासन के मुद्दे पर हुआ था। उस समय लालू प्रसाद की तुलना में नीतीश कुमार का जनाधार कुछ नहीं था। सिर्फ सुशासन का आश्वासन और अपराध के प्रति लोगों की नाराजगी ने सत्ता को पलट कर रख दिया और इसी मुद्दे पर नीतीश कुमार ‘सुशासन बाबू’ के रूप में बिहार में छा गए। उस समय नीतीश कुमार का साथ भारतीय जनता पार्टी ने दिया लेकिन बाद में नीतीश ने नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने की भाजपा की घोषणा से नाराज होते हुए एनडीए छोड़ दिया। बाद में उन्होंने अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद का हाथ थामा और महागठबंधन के मुखिया के रूप में पुन: सत्ता पर काबिज हुए।


लेकिन पिछले कुछ दिनों से बिहार की राजनीति में ऐसा भूचाल आया है कि सब तितर-बितर होने को है। सूबे में बढ़ते आपराधिक ग्राफ व एक-एक कर दबंगों के जेल से छूटते ही महागठबंधन में उठा-पटक शुरू हो गई है और तथा इन घटक दलों के बयानवीरों के बयान ने महागठबंधन में वरिष्ठों की नींद हराम कर दी है। राजद के पूर्व सांसद मो. शहाबुद्दीन, विधायक राजबल्लभ यादव व रोडवेज हत्या का आरोपित रॉकी यादव के जेल से बाहर आते ही राजनीतिक दलों ने बाढ़ और सुखाड़ के मुद्दे को छोड़ दिया और आरोप-प्रत्यारोप के समर में कूद पड़े हैं। इफ्तार पार्टी से लेकर नेताओं व मंत्रियों के साथ तस्वीर व पूर्ण शराबबंदी के मुद्दे पर महागठबंधन के दल एक दूसरे के साथ नहीं बल्कि आमने-सामने दिख रहे हैं। राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद भले ही बार-बार यह कहते रहें कि यह गठबंधन चट्टानी एकता का गठबंधन है और इसमें किसी भी तरह का बिखराव संभव नहीं है लेकिन असलियत यह है कि सत्ता की हिस्सेदारी व अपने चहेतों की पद स्थापना के विवाद में यह चट्टान खिसकती दिख रही है। इसका प्रमाण यूपी में होने वाले चुनाव में नीतीश, लालू व कांग्रेस के अलग-अलग राग अलापने में स्पष्ट मिलता है। जहां लालू प्रसाद समाजवादी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करेंगे, वहीं नीतीश कुमार अलग मोर्चे के साथ चुनाव की दिशा व दशा तय करने में लगे हैं। बोर्ड एवं निगमों के बंटवारे के साथ तबादले के मुद्दे पर राजद नेताओं को दरकिनार किए जाने से भले ही लालू प्रसाद पुत्र मोह में सब कुछ ठीक करने की कवायद में लगे हों लेकिन दोनों दलों के कार्यकर्ताओं व नेताओं के बीच खटास गहरी होती जा रही है। सूत्रों की मानें तो लालू के दोनों बेटों-उपमुख्यमंत्री व स्वास्थ्य मंत्री के विभागों को छोड़कर अन्य किसी विभाग में राजद नेताओं की नहीं चल रही है। यहां तक कि राजद कोटे के मंत्रियों की भी अधिकारियों के आगे दाल नहीं गल रही जिसकी शिकायत कई बार दरबार तक पहुंचाई जा चुकी है। गौरतबल है कि इस मसले पर लालू ने नीतीश कुमार से बात करने की बात कहकर मंत्रियों को फिलहाल चुप तो करा दिया है लेकिन आग भीतर ही भीतर सुलग रही है। विपक्ष इस मुद्दे पर न केवल बेहद आक्रमक है बल्कि जदयू के सुशासन को भी तार-तार करने पर तुला है। शराबबंदी कानून पर पहले से महागठबंधन पर हमलावर बन विपक्ष को दबंगों की रिहाई प्रकरण व बढ़ते आपराधिक ग्राफ से बड़ी उम्मीद दिख रही है और वे नीतीश कुमार की ‘सुशासन बाबू’ की छवि को इससे जोड़ने में कोई भी कोताही नहीं रख रहे। चूंकि नीतीश कुमार को पता है कि अराजक माहौल में वह भले ही मौजूदा कार्यकाल पूरा कर लें लेकिन अगला कार्यकाल नहीं मिल सकता है। अत: वे इस मुद्दे पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं। कानून-व्यवस्था ठीक रहे और सरकार पर जंगलराज को बढ़ावा देने का आरोप न लगे यह नीतीश का कमिटमेंट ही नहीं, बल्कि अब मजबूरी भी है। ठीक इसके विपरीत अगर कानून-व्यवस्था को बहाल रखने के नाम पर उनकी महागठबंधन की सरकार कुर्बान भी हो जाती है तो संभावनाओं के नए दरवाजे खुल जाएंगे। यही वजह है कि शहाबुद्दीन व राजवल्लभ के नाम पर हो रही राजनीति या राजद के कुछ नेताओं की गैर जरूरी प्रतिक्रियाओं से भी वे विचलित नहीं हो रहे हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि सुशासन ही उनकी सबसे बड़ी पूंजी है। राजद या भाजपा की तरह जाति या धर्म के नाम पर कोई तबका उनके प्रति आंख मूंदकर प्रतिबद्ध नहीं है बल्कि सुशासन के नाम पर ही हरेक तबके के एक हिस्से में वे स्वीकार्य हैं। इधर राजद की सत्ता भी दूसरी पीढ़ी के हाथों हस्तांतरित हो चुकी है।
वैसे 2005 व 2014 के चुनाव में लालू समझ गए हैं कि अपराधियों व गैर जरूरी तत्वों को लेकर सत्ता पर बहुत दिनों तक काबिज नहीं रह सकते हैं। किसी को भी टिकट देकर दिल्ली या पटना के सदन में भेजने वाले लालू प्रसाद खुद सत्ता संरक्षित अपराध के सबसे बड़े शिकार हुए हैं। ऐसे में लालू प्रसाद से यह अपेक्षा कर ही सकते हैं कि कम से कम अपनी संतानों के हित में वह ऐसा कुछ नहीं करेंगे, जिससे उनकी संभावनाएं प्रभावित हों। इनके सामने चुनौती दोहरी है। विरोधियों के आरोपों का तर्कपूर्ण जवाब देने के अलावा असली चुनौती अपनी अलग छवि बनाने की भी है। वैसे लालू प्रसाद ने सामाजिक न्याय के नारे के साथ अपनी राजनैतिक कॅरिअर की शुरुआत की थी और ‘माय’ समीकरण के साथ ही सत्ता पर काबिज भी हुए। लेकिन समय के साथ जिस तरह से इस समीकरण को जंगलराज के रूप में नवाजा गया उसका प्रभाव आज भी सूबे में देखने को मिल रहा है और लालू अपने दूसरी पीढ़ी को संरक्षित करने के लिए बीच का रास्ता निकालने की कवायद में जुटे हैं। साथ ही महागठबंधन के घटक दल कांग्रेस ने शहाबुद्दीन से लेकर शराबबंदी तक के प्रकरण में जिस तरह की भूमिका निभाई है उससे भी महागठबंधन की दरार को धक्का अवश्य लगा है। इससे महागठबंधन के कार्यकर्ताओं व नेताओं का एक बड़ा तबका दबाव महसूस कर रहा है। साथ ही घटक दलों के नेता जिन्होंने अभी तक सत्ता की मलाई का स्वाद नहीं चखा है वे भी इस गठबंधन की खाई को अपने असंतोष से गहरा कर रहे हैं। एक किसी भी कीमत पर सुशासन की छवि को बनाए रखना चाह रहे, दूसरे अपनी उपेक्षा को समर्थकों तक ले जाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। ऐसे में वरिष्ठों का यह कहना है कि महागठबंधन में चट्टानी एकता कायम है, गले से नहीं उतर रही है।

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