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दंगल से मंगल की कामना

अकसर बातचीत में तुरुप के पत्ते की मिसाल देने वाले अखिलेश तो दरअसल मिट्टी के अखाड़े के पहलवान निकले। साढ़े चार साल तक विरोधियों के तमाम वार सहने के बाद उन्होंने पलट कर ऐसा दांव मारा कि मूंछों पर ताव देने वाले पहलवानों में उनके विकास रथ के पीछे खड़े होने की होड़ लग गई है।
विकास के ताले की चाबी किसके पास

दंगल नई पीढ़ी के लिए फिल्म के माध्यम से मनोरंजन हो सकता है, लेकिन श्रीकृष्ण के द्वापर युग से भारतीय कुश्ती शारीरिक और मानसिक चातुर्य एवं विकास की प्रभावशाली माध्यम रही है। इसलिए ‘मुलायम अखाड़े’ में पिता-चाचा-पुत्र-भतीजा-बंधु-बांधवों के बीच मल्ल युद्ध, अपने शक्ति प्रदर्शन के बावजूद परिवार विजय की ‘मंगल कामना’ के साथ चलता रहा है। याद कीजिये- बलराम-श्रीकृष्ण और पांडव परिवार के कुश्ती आयोजनों की, जहां सारे दांव सिखाए-लड़े जाते और फिर एक थाली में बैठकर भोजन का आनंद लिया जाता था। इसलिये उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनीतिक अखाड़े के दांव-पेंच को पुराने दांव-पेंच एवं नई पीढ़ी के कौशल्य से जोड़कर समझना जरूरी है। 22 नवंबर को 78 वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहे मुलायम सिंह यादव बचपन से कुश्ती के खेल में मजा लेते रहे हैं। कुश्ती में फुर्ती से विजेता बनने पर ही उन्हें राजनीति में प्रवेश का अवसर मिला। छात्र राजनीति ही नहीं सैफई के पहले विधानसभा चुनाव में भी लंगोट पहन अखाड़े में कूदकर सैकड़ों लोगों से जयकार लगवा चुके थे। अब उनके सुपुत्र अखिलेश यादव मिट्टी के अखाड़े के बजाय विशाल उत्तर प्रदेश में पचासों चुनौतियों के बावजूद सत्ता में विकास के नये झंडे गाड़ते हुए पांच वर्ष पूरे करने जा रहे हैं। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में दिग्गज राजनीतिज्ञ माने जाने वाले कई नेता पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए। अखिलेश यादव को 2012 के पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिलने से बाहरी खतरे कम थे, लेकिन घर के अखाड़े में अपनों को संभालना और मौका आने पर पटकनी का दांव दिखाना था। लगभग साढ़े चार साल तक ‘भारी भरकम’ लोगों को झेलना, गिरना-उठना, आगे बढ़ना आसान नहीं रहा। फिर अक्टूबर में तो फाइनल राउंड की घंटी सुनाई देने लगी। तीन-चार दांव में ही उन्होंने ‘विजय पताका’ थाम ली और तीन नवंबर से चल पड़े हैं-‘अश्वमेघ का घोड़ा’ लेकर उ.प्र. की चारों दिशाओं में अपनी विकास सफलताओं की गाथा सुनाने।

समाजवादी विकास रथ
मीडिया के आंख-कान में फूंक मारने वाले अपने-परायों ने हवा ऐसी बना दी थी कि चुनाव से पहले उ.प्र. में नेतृत्व बदल जाएगा। संभावना व्यक्त की जाने लगी कि पिता मुलायम सिंह या उनके प्रिय अनुज शिवपाल कमान संभाल लेंगे। लेकिन 23 अक्टूबर को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के दरबार में 183 विधायकों के प्रबल समर्थन की गूंज से दिग्गज पहलवान अपने खेमों में खिसकते चले गए। अब ‘मूंछ’ पर हाथ फेरकर ललकारने वाले पहलवान कम ही दिखाई देते हैं। फिर यह विदेशी ‘डब्ल्यू-डब्ल्यू’ पहलवानों के खून-खराबे वाला छद्म कुश्ती प्रदर्शन भी नहीं था। इसलिए मुलायम सिंह ने ‘आम दरबार’ बुलाकर खरी-खोटी सुना दी। किसी को नहीं बख्शा। बुजुर्ग होने से पुरानी बातों में नया नमक-मिर्च घोलकर पिलाया। विरोध का कोई स्वर नहीं उठा। चाचा-भतीजे से हाथ भी खड़े करवा दिये-फिर उनकी छीना-झपटी को भी बर्दाश्त कर लिया और अखिलेश को चुनावी समर का झंडा उठाकर आगे बढ़ने का आशीर्वाद भी दे दिया। तभी तो शिवपाल यादव मंत्रिमंडल से बाहर होने पर भी अखिलेश रथ को युवाओं का अभियान बताकर स्वयं पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं एवं अन्य दलों से गठजोड़ की कोशिश में जुट गए।


राजनीति और मीडिया की दूसरी पीढ़ी को किसी ‘गूगल’ या ‘यू ट्यूब’ पर राजनीतिक पार्टियों में नेताओं-कार्यकर्ताओं की बैठकों-खींचातानी-विरोध का आंखों देखा विवरण नहीं मिलेगा। लेकिन 50 वर्षों तक राष्ट्रीय एवं अधिकांश प्रदेशों पर राज करने वाली कांग्रेस, सोशलिस्ट सिद्धांतों के नाम पर बनती-बिगड़ती रही पार्टियों, संघ से उपजी भारतीय जनसंघ, कार्ल मार्क्स और माओ के विचारों से प्रभावित कम्युनिस्ट पार्टियों के सम्मेलनों में आज से अधिक असहमतियों-आलोचनाओं की बातें खुलकर बोली-सुनी जाती थीं। इंदिरा गांधी के सत्ताकाल में उनकी पार्टी के प्रादेशिक नेता अपने मुख्यमंत्री की सरकार को सार्वजनिक रूप से ‘अलीबाबा और चालीस चोर’ की संज्ञा देते थे और हम जैसे पत्रकार उसकी खबर छापते थे। कांग्रेस महासमिति के ऐसे अधिवेशन भी हमने देखे हैं, जिनमें इंदिरा गांधी अध्यक्ष के आसन से उठकर सामने की पंक्ति में सदस्यों के बीच बैठ जातीं और मंच पर जिला स्तर के नेता महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर अपनी सरकार की कमियों को लेकर कड़वी बातें सुनाते हुए कई मंत्रियों पर आरोप भी लगा देते थे। नेताओं के टकराव से कांग्रेस-जनसंघ-सोशलिस्ट पार्टियों में बिखराव-जुड़ाव चलता रहा। हां, अब टी.वी. एवं ट्विटर-फेसबुक, मोबाइल ने अपनों-परायों के टकराव अधिक कड़वे और खतरनाक बना दिए हैं। इस दृष्टि से समाजवादी पार्टी के मतभेदों को निश्चित रूप से अलग-अलग ढंग से देखा-तौला जाएगा। वर्तमान शक्ति परीक्षण उ.प्र. के आगामी विधानसभा चुनाव में पसंदीदा वफादार उम्मीदवारों के चयन को लेकर है। अखिलेश ने पुराने चेहरों के लाभ-नुकसान का खाता बनाया हुआ है। संरक्षक पार्टी प्रमुख और पिता की इच्छानुसार मीठे-कड़वे घूंट पीकर अधिकांश को निभाया। लेकिन अगली पारी में वह अधिकांश काबिल-साफ सुथरे लोगों को रखना चाहते हैं। इसमें पुराने काबिल भी शमिल होंगे। वैसे भी इस पूरी लड़ाई में उन्होंने अपने पिता के विरुद्ध बाहर या बंद कमरे में भी एक शब्द नहीं बोला। मुलायम तो 5 वर्षों में अनेक बार सार्वजनिक रूप से अपनी सरकार को सही रास्ते पर चलने के लिए फटकार लगाते रहे हैं, लेकिन उसमें भी अपनत्व और नई सफलता की आकांक्षा झलकती रही। उन्हें अब मुख्यमंत्री थोड़े ही बनना है, वह तो राष्ट्रीय राजनीति में पिछले 20 वर्षों की तरह महत्वूपर्ण भूमिका निभाना चाहते हैं। यही कारण है कि परिवार-पार्टी में विरोध के बावजूद बिछुड़े साथी अमर सिंह, शरद यादव, लालू यादव, गुरु चौधरी चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह इत्यादि को साथ लेकर आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। मतलब प्रदेश ठीक ढंग से बेटा संभाले और वह देश का राजनीतिक खेल चलाएं। इस खेल में लुका-छिपी, अंदर-बाहर होने के दृश्य सामने आ रहे हैं। एक तरफ मुलायम सिंह ने रामगोपाल यादव को पार्टी से बर्खास्त कर दिया, लेकिन पार्टी के रजत जयंती समारोह में रामगोपाल के रहने पर सहमति दे दी है। पार्टी अध्यक्ष के नाते अखिलेश की विकास-विजय यात्रा को प्रसन्नता से हरी झंडी दिखाना स्वीकारा। दूसरी तरफ अमर सिंह और शिवपाल यादव को साथ रखकर दिल्ली में कांग्रेस के साथ तालमेल की वार्ता जारी रखी। शिवपाल अपने रिश्तेदार लालू प्रसाद यादव या राष्ट्रीय लोकदल के नेता अजीत सिंह को साथ लेने में सक्रिय रहे। मजेदार बात यह है कि कांग्रेस के साथ संबंधों के तार कई महीनों से जुड़ रहे थे और अखिलेश यादव, राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी के बीच संपर्क बना हुआ था। आउटलुक से बातचीत के दौरान भी अखिलेश यादव ने कहा,‘लोकसभा में कुछ वर्षों तक साथी सदस्य के रूप में राहुल गांधी के साथ हमारा अच्छा संवाद रहा और कई राष्ट्रीय मुद्दों पर हमारी समान राय रही है। हम उनको सज्जन युवा साथी मानते हैं।’ चुनाव में कांग्रेस से गठबंधन को लेकर तो दोनों पार्टियों में वार्ताओं के दौर चल सकते हैं। चुनावी गठबंधन हो या न हो, इतनी समझबूझ तो बन ही सकती है कि भाजपा-बसपा को सत्ता से दूर रखने के हरसंभव प्रयास नई सरकार बनने तक चलते रहें। सामान्यत: विभिन्न पार्टियों में पुरानी-नई पीढ़ी के बीच टकराव विभाजन तक पहुंचता रहा है। मुलायम-अखिलेश ने ऐसी स्थिति नहीं बनने दी। दो-तीन पीढ़ियों के समर्थकों को जोड़े रखने के लिए सत्ता के दो-तीन केंद्र बन गए। हां, कुछ अंदरूनी झगड़े सार्वजनिक होने से कुछ क्षेत्रों में भ्रम का वातावरण भी बना। उम्मीदवारों के नामांकन होने तक जोड़-तोड़, दबाव, समर्पण या विद्रोह के तेवर दिखते रहेंगे। इस दौर में यदि अखिलेश अपनी छवि अधिक निखारकर मजबूत करने में सफल होंगे, तो मुलायम सबसे अधिक खुश होंगे। जरा पन्ने पलटिये- राजनेताओं के परिवारों में दो भाइयों, पिता-पुत्रों, भाई-बहनों, पति-पत्नियों में प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक सत्ता के बंटवारे होते रहे हैं। इस परिवारवाद को कितना ही भला-बुरा कह लीजिये, सामान्य कार्यकर्ता और मतदाता भी परिवार की साख से मोहित या अप्रसन्न होते हैं। भारत ही क्यों अमेरिका तक में क्या केनेडी, बुश या क्लिंटन परिवार के सदस्य पुराने पुण्य-पाप का लाभ-नुकसान नहीं उठाते रहे हैं?

बच्चों को लैपटॉप बांटने के बाद उनके बीच अखिलेश
बहरहाल, समाजवादी पार्टी फिलहाल अखिलेश सरकार की कमियों को ढंकते हुए विकास की उपलब्धियां गिनाते हुए ही चुनाव के लिए हर कदम आगे बढ़ाने की कोशिश में है। ताजा सिर फुटव्वल से भी अखिलेश की ही तस्वीर चमकी है। उ.प्र. के गैर राजनीतिक लोग भी मानते हैं कि सड़क, शिक्षा, बिजली, महिला-पिछड़ा वर्ग कल्याण, खेती-किसानी के लिए अखिलेश यादव ने लाभकारी काम किए हैं। हां, कानून-व्यवस्था पर नियंत्रण में कमी का काला टीका समाजवादी टोपी पर चुभ रहा है। अंतिम दौर में पुलिस की इमरजेंसी सेवा की योजना एवं पुलिस अधिकारियों में व्यापक फेरबदल के जरिए छवि सुधार के प्रयास चल रहे हैं। छवि बनाने के लिए भाजपा, कांग्रेस, नीतीश के जनता दल (यू) की तरह प्रोफेशनल एजेंसी की सेवाएं ली जाने की खबरें आ रही हैं। लेकिन डिजिटल माध्यम से प्रचार-प्रसार की बागडोर जीवन-संगिनी सांसद डिंपल यादव ने संभाली हुई है। अखिलेश-डिंपल की जोड़ी समाजवादी आदर्शों और कार्यक्रमों को जर्मनी या आस्ट्रेलिया के आधुनिक नेताओं की तरह सफल बनाने के प्रयास कर रही है। इसीलिए अखिलेश मतदाताओं को साइकिल के बाद लैपटॉप, मोबाइल देने के अभियान चला रहे हैं। देश में सबसे अत्याधुनिक पुलिस व्यवस्था बनाने का बीड़ा उठा लिया है। इसमें कोई शक नहीं कि पिछले चार वर्षों के दौरान कई तबादलों-नियुक्तियों, कुछ ठेकों या पुराने वफादार नेता-कार्यकर्ताओं को उपकृत करने की सिफारिशें मुलायम, शिवपाल, रामगोपाल, आजम खान जैसे वरिष्ठ लोग करते रहे। यथासंभव अखिलेश सरकार ने उन्हें स्वीकारा, लेकिन मुख्यमंत्री ने स्वयं सिफारिश करने-कराने वालों से दूरी बनाए रखी। यही कारण था कि यदा-कदा ‘नेताजी’ (पार्टी अध्यक्ष) के पास शिकायतें होतीं कि मुख्यमंत्री मुश्किल से मिलते हैं। मुख्यमंत्री को उनके विश्वस्त अधिकारी या पार्टी के युवा साथी सिफारिशी लोगों के कथित स्वार्थों का कच्चा-चिट्ठा बता देते थे। सो, मुख्यमंत्री अपना दामन बचाकर चलते रहे। वहीं अपने मंत्रियों, जनता से जुड़े प्रमुख विधायकों एवं ईमानदार कर्मठ अधिकारियों से अच्छा संवाद-संपर्क अवश्य बनाया। कोई भी वरिष्ठ अधिकारी अपनी कठिनाई या असहमति लेकर उनके पास पहुंचता रहा। उसे ध्यान से सुना-समझा गया। इससे ब्यूरोक्रेसी में भी कार्यशैली थोड़ी बदली। अखिलेश ने पुराने सोशलिस्ट नेताओं से हटकर अपने विरोधियों (बसपा-भाजपा सहित) की आलोचना एवं टिप्पणियां संयमित भाषा में की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से आमना-सामना होने पर विनम्र शिष्टाचार एवं विकास के मुद्दों पर चर्चा में संकोच नहीं किया। आपराधिक या सांप्रदायिक मामलों में किसी रियायत के लिए तैयार नहीं हुए। निकटता और दूरी के इस चक्र के परिणाम उन्हें अगले चुनाव में झेलने होंगे।

विकास की चुनौती
अखिलेश स्वयं यह स्वीकारते हैं कि उन्हें लंबी राजनीतिक यात्रा करनी है। इसलिए तात्कालिक जीत-हार, लाभ-हानि, रिश्ते बनने-बिगड़ने की अपेक्षा वे दूरगामी पार्टी या प्रादेशिक हितों को प्राथमिकता देने से ही सुरक्षित रह सकेंगे। यों इस बड़े सोशलिस्ट कुनबे में कौन कहां अखाड़े में लंगोट घुमाने लगेगा, इसका पता नहीं, यदि ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी की थाली में लड्डुओं की संख्या बढ़ सकती है। वैसे भी उ.प्र. का असली दंगल लाल और भगवा लंगोटी-टोपी के बीच ही रहने वाला है। भाजपा ध्रुवीकरण के लिए हर संभव दांव खेलने वाली है। तभी जाति या विकास के मुद्दों से मतदाताओं को परस्पर विरोधी खेमों में बांटा जा सकता है। सिमी से जुड़े आरोपी आतंकवादियों को मुठभेड़ में मारे जाने का मामला हो या पाकिस्तान के लिए जासूसी और जम्मू-कश्मीर में हो रही लगातार गोलीबारी, भाजपा का राष्ट्रवाद का मुद्दा चुनाव में भी महत्वपूर्ण रहेगा। इस दृष्टि से अल्पसंख्यकों के एक अपने वोट बैंक को सुरक्षित रखते हुए उ.प्र. के विकास और आर्थिक लाभ दे सकने वाली हर तिजोरी के ताले खोलकर जनता के सामने रखने के लिए अखिलेश यादव को चमत्कारी चाबी घुमाते रहना होगा।

मुख्य‍मंत्री अखिलेश यादव की उपलब्धियां
इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में बेहतर काम
लखनऊ में मेट्रो परियोजना की शुरुआत
आगरा- लखनऊ एक्सप्रेस वे का निर्माण कार्य
लखनऊ से बलिया तक पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे के निर्माण की घोषणा
समाजवादी पेंशन योजना
समाजवादी आवास योजना
समाजवादी एंबुलेंस सेवा,
एक्सप्रेस-वे के किनारे 100 एकड़ में आलू की मंडी, डेयरी स्थापित किए जाने का प्रस्ताव
कानपुर में मेट्रो का शिलान्यास, वाराणसी में भी मेट्रो के निर्माण का प्रस्ताव
लखनऊ में 200 किलोमीटर साइकिल ट्रैक बनाएंगे
आगरा से शुरू होकर चंबल होते हुए 190 किलोमीटर लंबा देश का पहला साइकिल हाइवे बनेगा
महिलाओं की सुरक्षा के लिए हेल्प लाइन नंबर 1090 की शुरुआत
पुलिस की कार्यप्रणाली को हाईटेक बनाया गया, डॉयल 100 एप के अलावा फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप के जरिए शिकायतें होंगी दूर
मेधावी छात्रों को लैपटाप देने के अलावा बेरोजगारी भत्ता
किसानों के लिए कामधेनु योजना
लखनऊ में आईटी सिटी, ट्रांसगंगा परियोजना, जनेश्वर मिश्र पार्क, बैट्री पॉवर मोटराइज्ड रिक्शा, लायन सफारी आदि

अखिलेश की कमजोरियां
कानून-व्यवस्था पर अंकुश न लगा पाना
पार्टी प्रमुख के फैसले के कारण निर्णय न लेना
पहले मंत्रियों को बर्खास्त करना फिर मंत्री बनाना
देर रात खुलने वाले मॉल को पहले बंद करने की घोषणा, बाद में वापस लेना
विधायकों को विधायक निधि से 20 लाख तक लोन देने की घोषणा फिर वापस लेना
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद लैपटाप वितरण की योजना बंद करना
चीनी मिलों की जांच का वादा लेकिन पूरा नहीं किया


बढ़ी है अखिलेश की लोकप्रियता
समाजवादी पार्टी में मचे घमासान के बीच मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की लोकप्रियता बढ़ी है। सी-वोटर द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि अखिलेश यादव के परिवार में मची जंग के बावजूद वह ज्यादा लोकप्रिय हो गए हैं। प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों पर तकरीबन 11 हजार लोगों के बीच किए गए सर्वे में लोगों ने अखिलेश यादव को पहली पसंद बताया है। अखिलेश अपने पिता मुलायम सिंह यादव और चाचा शिवपाल सिंह यादव से लोकप्रियता के मामले में काफी आगे निकल गए हैं। समाजवादी पार्टी के परंपरागत वोट यादव और मुस्लिम के बीच भी अखिलेश पहली पसंद हैं। वहीं अन्य जातियों ने भी अखिलेश के काम की तारीफ की है। मुलायम, अखिलेश और शिवपाल यादव को लेकर सी-वोटर ने एक सर्वे सितंबर में और दूसरा अक्टूबर के मध्य में किया। सर्वे के नतीजों के मुताबिक, चाचा शिवपाल के मुकाबले अखिलेश को पसंद करने वाले लोगों की संख्या सितंबर में 77.1 प्रतिशत थी जो अक्टूबर में बढ़कर 83.1 प्रतिशत हो गई। यानी अखिलेश को चाहने वालों की संख्या छह फीसदी बढ़ गई। इसी तरह, पिता मुलायम की तुलना में भी अखिलेश अधिक लोकप्रिय नजर आते हैं। दोनों की लोकप्रियता की तुलना वाले सवाल में भी अखिलेश को इस बार 76 जबकि पिछले महीने 67 प्रतिशत लोगों ने पसंद किया। मुलायम सिंह को पिछली दफा 19, जबकि इस दफा 15 प्रतिशत लोगों ने पसंद किया। मुलायम से तुलना की बात रखे जाने पर भी 55 साल से ज्यादा उम्र वाले 70 फीसद लोग अखिलेश को पसंद करते हैं। सर्वेक्षण जिन लोगों के बीच किया गया, उनमें से 68 फीसद लोगों का मानना है कि अखिलेश पार्टी को गुंडा छवि से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे हैं। 63.2 प्रतिशत लोगों का यह भी मानना है कि अखिलेश को उन लोगों को पार्टी में शामिल नहीं करने देना चाहिए जो आपराधिक छवि के हैं।

सपा के पच्चीस साल
समाजवादी पार्टी के पच्चीस साल पूरे हो गए हैं। 25 साल के इस सफरनामे में पार्टी ने कई उतार-चढ़ाव देखे और आज भी देख रही है। पिछले कुछ समय से पार्टी के अंदर जो घमासान मचा हुआ है उसके बारे में सभी को पता है। लेकिन इस पार्टी के भविष्य के नेता अखिलेश यादव साफ तौर पर कहते हैं कि जिन उद्देश्यों के लिए पार्टी की स्थापना की गई थी उसे पूरा किया जाएगा। अखिलेश यह बात इसलिए कहते हैं कि डॉ. राममनोहर लोहिया के निधन के बाद समाजवादी आंदोलन लगभग खत्म हो चुका था।
लेकिन साल 1992 में जब बेगम हजरतमहल पार्क में समाजवादी पार्टी का गठन हो रहा था उस समय अखिलेश सियासत से दूर थे। लेकिन जिस तरह के संकल्प के साथ समाजवादी पार्टी की नींव पड़ी उसका असर अखिलेश पर भी पड़ा। सम्मेलन में देश भर के तपे-तपाऐ नेता पहुंचे थे और मंच से समाजवादी पार्टी के गठन की घोषणा की गई। उस समय मुलायम सिंह यादव के अलावा जनेश्वर मिश्र, कपिलदेव सिंह, आजम खान, अशोक वाजपेयी, बेनी प्रसाद वर्मा, भगवती सिंह, धनीराम वर्मा, रेवती रमण सिंह आदि समाजवादियों ने एकजुट होकर जनता के हितों के लिए काम करने का आह्वान किया। समाजवादी पार्टी का गठन मुलायम सिंह यादव के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि इससे पूर्व का उनका सियासी सफर काफी कांटो भरा था। जोश, जिद और जोखिम के संकल्प के साथ बनी समाजवादी पार्टी के पच्चीस साल के समारोह को पूरे उत्साह के साथ मनाया जा रहा है। इस अवसर पर समाजवादी विचारधारा के लोग जो कि अन्य दलों में हैं वह भी एकत्रित हो रहे हैं।

स्टोरी के सभी बॉक्सः कुमार पंकज

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