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परिवार और पार्टी से मिली अखिलेश को निराशा

उत्तर प्रदेश भारत का सबसे बड़ा प्रदेश है। वह देश की राजनीति की दिशा तय करता है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि देश के सबसे पिछड़े प्रदेशों में भी उत्तर प्रदेश का नाम लिया जाता है। जब देश में 1951 में योजना का काम शुरू हुआ था तो उस समय उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत के बराबर थी। आज देखा जाए तो बिहार और उड़ीसा जैसे पिछड़े प्रदेशों की प्रति व्यक्ति आय से इसकी तुलना की जाती है। अभी-अभी भारत सरकार के जो आंकड़े आए हैं, उसमें उत्तर प्रदेश और नीचे 16वें स्थान पर पंहुच गया है।
अब बस मंच तक सीमित पारिवारिक एकता

उत्तर प्रदेश का संकट हमेशा यही रहा है कि यहां पर राजनीति हुई, चुनाव जीते गए लेकिन स्वाधीन भारत के इतिहास में नौ प्रधानमंत्री देने वाले इस प्रदेश में राजनीति के अलावा जनता को सामाजिक न्याय और आर्थिक विकास देने का काम नहीं हुआ। इसलिए स्वाधीनता के बाद से ही इस प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के अंदर की राजनीति पूरे प्रदेश पर हावी रही है। सरकार कभी अल्पमत तो कभी बहुमत की बन जाती है। पिछले दस सालों में समाजवादी पार्टी और बसपा की बहुमत की सरकारें रही हैं लेकिन तब भी विपक्ष कमजोर और कांग्रेस एवं भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों का प्रभाव नगण्य रहा है।
गोविंद वल्लभ पंत जो उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री थे, जब वह गृहमंत्री बनकर दिल्ली चले गए तो डॉ. संपूर्णानंद मुख्यमंत्री हो गए। प्रदेश में एक ही पार्टी की बहुमत वाली सरकार थी लेकिन मुख्यमंत्री को उन्हीं की पार्टी के चंद्रभानु गुप्त ने चुनौती दे डाली थी। जब डॉ. संपूर्णानंद राज्यपाल बनकर राजस्थान चले गए तो चंद्रभानु गुप्त और कमलापति त्रिपाठी के बीच तनातनी शुरू हो गई। सन 1947 से 1967 तक लगभग बीस वर्षों तक कांग्रेस पार्टी की ही सत्ता रही। इसके बावजूद कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति कभी कम नहीं हुई। यह सब खींचतान केंद्रीय नेतृत्व की जानकारी में ही होता रहता था। यह उत्तर प्रदेश की राजनीति का इतिहास रहा है। सन 1967 में कांग्रेस नेता चंद्रभानु गुप्त की सरकार टूट गई। चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार बनी थी, तो उसके अंदर भी आपस में खींचतान चलने लगी। परिणाम यह हुआ कि तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी चरण सिंह ने खुद ही अपनी सरकार का इस्तीफा दे दिया। इस संविद सरकार में जनसंघ का सबसे बड़ा दल था। आपस में इन दोनों दलों की नहीं बनती थी जिसके कारण सन 1969 में मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा।
यह इस प्रदेश का इतिहास रहा है कि यहां पर सबसे पहले कांग्रेस ने चुनाव जीतने के लिए वोट बैंक की राजनीति शुरू की थी। कांग्रेस ने अपना वोट बैंक तैयार किया तो ब्राह्मण, दलित और मुसलमान साथ थे। जनता के हित के काम नहीं हुए और क्षेत्रीय असंतुलन के साथ भ्रष्टाचार एवं अपराधों में बढ़ोतरी हुई। यही विरासत लगातार चली आ रही है, पीढ़ी दर पीढ़ी। हुआ यह कि जब भी किसी पार्टी की सरकार आई और अगर वह अल्पमत में हुई तो उसे समझौते करने पड़े। आपस में खींचतान बढ़ती रही। आपातकाल के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में नए समीकरण बनने लगे। सन 1977 में जनता पार्टी की सरकार में राम नरेश यादव मुख्यमंत्री बनाए गए। उन्हें चौधरी चरण सिंह और समाजवादी नेता राजनारायण का वरदहस्त प्राप्त था। बाद में जनता पार्टी का विभाजन हुआ तो चौधरी चरण सिंह की छत्रछाया में मुलायम सिंह यादव उनके उत्तराधिकारी बनकर उभरे। सन 1987 में चौधरी चरण सिंह के निधन और जनता पार्टी के विभाजन के बाद जनता दल का गठन हुआ। सन 1989 में बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम के सहयोग से मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इसी के साथ अल्पमत की सरकारों का दौर शुरू हुआ। छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में मस्जिद गिरने के बाद कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार भंग कर दी गई थी।
कांग्रेस के अपने परंपरागत वोट बैंक कांग्रेस का साथ छोड़कर क्षेत्रीय दलों अर्थात समाजवादी पार्टी औऱ बहुजन समाज पार्टी के साथ जुड़ गए। दोनों राष्ट्रीय दल भाजपा और कांग्रेस उत्तर प्रदेश की राजनीति में कमजोर होते गए। लेकिन सन 2007 में बहुजन समाज पार्टी को पहली बार पूर्ण बहुमत मिला। पार्टी की नेता मायावती को ब्राह्मण मतदाताओं के एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त हुआ था। भाजपा के सहयोग से अल्पमत की सरकार चला चुकीं मायावती पहली बार बहुमत के बल पर सत्ता में आई थीं। उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। सन 2012 में समाजवादी पार्टी की भी पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी और अखिलेश यादव को मुलायम सिंह यादव के उत्तराधिकारी के रूप में मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि समाजवादी पार्टी को केवल 29 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन प्रदेश के युवाओं का अच्छा समर्थन अखिलेश यादव को मिला था। प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव को रोकने तथा कानून-व्यवस्था और अपराध की स्थिति को नियंत्रित न कर पाने के लगातार आरोप सरकार पर लगते रहे हैं। पिछले दस वर्षों में यूपी की राजनीति दोनों क्षेत्रीय दलों सपा और बसपा के बीच में ही घूम रही थी। अचानक 2014 में लोकसभा के आम चुनावों ने उत्तर प्रदेश की राजनीति का नक्शा बदल दिया। सन 2009 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में केवल 10 सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा की 73 सीटें जीतकर सारे वोट बैंक की राजनीति में उलट-फेर कर दिया। नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी को अपना चुनाव क्षेत्र घोषित कर भारी सफलता दिलाई। बहुजन समाज पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली और समाजवादी पार्टी को मुलायम सिंह यादव के परिवार की मात्र पांच सीटों पर संतोष करना पड़ा। बड़ी धमक के साथ भाजपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी स्थिति को मजबूती से दर्ज किया।
अखिलेश यादव जैसे युवा मुख्यमंत्री से लोगों की अपेक्षाएं काफी बढ़ गई थीं। उन्होंने अपनी प्राथमिकताएं तय कीं और विकास के काम को गति देना शुरू कर दिया। लेकिन समाजवादी पार्टी के अंदरूनी संग्राम और खासकर परिवार की ओर से शुरू हुए उनके विरोध के कारण एक गहरा संकट पैदा हो गया है। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी का जो दृश्य लखनऊ की सड़कों पर दिखाई पड़ा, उसके कारण समाजवादी पार्टी का वोट बैंक संभ्रम की स्थिति में है। भावनात्मक स्तर पर जो वोट बैंक पार्टी के साथ जुड़ा हुआ है, उसके लिए यह समझना कठिन है कि परिवार और पार्टी में चल रहे इस संग्राम में वे किसके साथ जाएं। इसलिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के सामने कठिनाइयां चारों ओर से हैं। पार्टी और परिवार दोनों मोर्चों पर जूझते हुए अपनी उपलब्धियों के सहारे जनसमर्थन जुटाने के लिए उन्होंने रथ यात्रा आरंभ कर दी है। सन 2017 के विधान सभा चुनाव में एक बार फिर से विजय दिलाने की सबसे बड़ी परीक्षा उनके सामने है। बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन बनाकर भाजपा एवं बसपा को चुनौती देने की कोशिश भी समाजवादी पार्टी की ओर से की जा रही है। लेकिन पूरा प्रदेश और शायद पूरा देश अखिलेश यादव के (एकला चलो रे) इस साहस को आश्चर्य से देख रहा है।
(लेखक प्रसिद्ध पत्रकार एवं राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।) प्रस्तुति: स्नेह मधुर

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