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उप्र कटेगा तो वोट सब में बटेगा

जनता या विकास के लिए नहीं नेता नए क्षेत्र, नए वोट बैंक के लिए करते हैं बंटवारे की हिमायत
उमा भारती को बुंदेलखंड की उम्मीद

बरसों पहले धूमिल भले ही लिख गए हों कि ‘इस कदर कायर हूं कि उत्तर प्रदेश हूं’ लेकिन यदि आज वह होते तो जानते कि वह कायर प्रदेश अब कितना ‘दबंग’ हो गया है। भारतीय राजनीति खास कर केंद्र की सत्ता इसी प्रदेश के बलबूते रहती है। कुल 403 संसदीय सीटों वाले इस राज्य में शक्ति प्रदर्शन बहुत महत्वपूर्ण होता है। हर पार्टी दम लगाती है कि उत्तर प्रदेश पूरा का पूरा झोली में समा जाए। लेकिन उत्तर प्रदेश है कि हर चुनाव से पहले अलग ही मंसूबे बांधता है। इस मंसूबे की पोटली में हरित प्रदेश, पूर्वांचल, अवध प्रदेश और बुंदेलखंड उछलकूद मचाते रहते हैं। हर बार चुनाव आते ही चारों नए प्रदेशों के मुद्दे गरमा जाते हैं। इन सबमें बुंदेलखंड की दादागीरी ही ज्यादा देखने-सुनने को मिलती है, बाकी तीन नए राज्यों में तब्दिल होने की ख्वाहिश लिए बस कभी-कभार बयानबाजी कर देते हैं। जैसे भारतीय परंपरा में चौमासे के बाद देव जागते हैं बस वैसे ही चुनाव के मौसम में यह मुद्दे भी जाग जाते हैं। किसी प्रदेश को तोड़ कर नए राज्य बनाने के पीछे तर्क होता है, ‘छोटे राज्य बेहतर सुशासन।’ उत्तर प्रदेश के कुल 75 जिले 8 क्षेत्र में बंटे हुए हैं। इन क्षेत्रों में 25 जिले ऊपरी दोआबा क्षेत्र, मध्य दोआबा और रोहेलखंड के हैं जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक है। 25 जिले अवध के और निचला दोआबा क्षेत्र के जो उत्तर प्रदेश के बीच वाले भाग का हिस्सा है, 7 जिले बुंदेलखंड और बघेलखंड के जो दक्षिण उत्तर प्रदेश का हिस्सा हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश को तोड़ने का विचार सबसे पहले भीमराव आंबेडकर ने 1955 में अपनी किताब, थॉट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स में दिया था। उन्होंने विचार दिया था कि राज्य को तीन भागों में बांट कर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजधानी मेरठ, पूर्वी की इलाहबाद और तीसरे हिस्से की राजधानी कानपुर होनी चाहिए। किसी भी नए राज्य के लिए सबसे ज्यादा जरूरी उसका वित्तीय आधार होता है। पश्चिमांचल वित्तीय रूप से सबसे ज्यादा मजबूत है। पूर्वांचल और अवध कमाने के मामले में सुस्त हैं।
सालों से मध्य प्रदेश के कुछ जिले और उत्तर प्रदेश के कुछ जिले (कुल 13 जिले) मिलाकर नया प्रदेश बुंदेलखंड बनाने की मांग हो रही है। इन जिलों में मध्य प्रदेश से सागर, पन्ना, दमोह, दतिया और टीकमगढ़, उत्तर प्रदेश से झांसी, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा, जालौन, चित्रकूट और महोबा शामिल होंगे। लेकिन नए प्रदेश का जन्म इतना भी आसान नहीं है। हालांकि यह मुद्दा केंद्रीय मंत्री उमा भारती के मन के बहुत करीब है। वह चाहती भी हैं कि बुंदेलखंड बन जाए। बुंदेलखंड पिछड़ा और सूखाग्रस्त इलाका माना जाता है। उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश दोनों ही सरकारों को इतनी ‘दूर’ देखने की फुर्सत नहीं होती और पांच करोड़ की आबादी वाला यह क्षेत्र अलग-थलग पड़ जाता है।
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और मीडिया कन्वीनर श्रीकांत शर्मा कहते हैं, ‘पार्टी का मत इस विषय पर बिलकुल साफ है। फिलहाल बुंदेलखंड अलग बनाने से ज्यादा कानून-व्यवस्था बड़ा मुद्दा है। उत्तर प्रदेश जिस तरह से बंधक बना हुआ है उसे छुड़ाना है। हमारी प्राथमिकता विकास है और कुछ नहीं। उस इलाके में देखिए, जो हिस्सा मध्य प्रदेश में है वहां विकास है, जो हिस्सा उत्तर प्रदेश में है वहां विकास की गति और दशा किसी से छुपी हुई नहीं है।’ वह बुंदेलखंड को चुनावी मुद्दा बनने से नफा-नुकसान के तर्क को ही सिरे से नकार देते हैं। भारतीय जनता पार्टी इस बार विकास के अलावा किसी मुद्दे पर ध्यान भटकाना नहीं चाहती है। पूर्वांचल और अवध के लिए आवाजें उठती हैं लेकिन कभी कोई आंदोलन या पुरजोर कोशिश ने इस संभावना को मजबूती देने की कोशिश नहीं की है। बल्कि हरित प्रदेश को लेकर चौधरी अजीत सिंह गाहे-बगाहे मैदान में नजर आ जाते हैं। चौधरी अजीत सिंह के साथी और हरित प्रदेश की चाहत रखने वाले इसे चौधरी चरण सिंह के सपने के रूप में पेश करते हैं। वैसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्बी उत्तर प्रदेश में दोस्ती का रिश्ता नहीं रहता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को लगता है कि वे पूर्बी उत्तर प्रदेश की वजह से हर बात पर मात खाते हैं।
अलग-अलग राज्यों के मुद्दों पर विशेषज्ञ मानते हैं कि लंबे समय में यह वहां के स्थानीय निवासियों को सिवाय मोहभंग के और कुछ नहीं देता। मध्य प्रदेश से जब छत्तीसगढ़ अलग हुआ था तब कई अधिकारियों को मध्य प्रदेश ने छत्तीसगढ़ को सौंपा था। कामकाज चलाने में शुरुआती दौर में अहम भूमिका निभाने वाले एक अधिकारी कहते हैं, ‘जब कोई भी राज्य अलग बनता है तो वहां के लोगों को खुशी होती है कि अब उनकी अलग सरकार होगी और हर काम में तेजी आएगी। लेकिन सच्चाई यह है कि नया सचिवालय, नए दफ्तर बनाने के लिए नए ठेके दिए जाते हैं, नए-नए अफसरों के लिए एक अच्छी जगह बनती है, नौकरशाहों के लिए एक और ठिकाना बन जाता है। आम जनता वहीं की वहीं रहती है। छत्तीसगढ़ बनने के बाद भी वहां के पिछड़े इलाके वैसे ही पिछड़े हैं जैसे मध्य प्रदेश के साथ हुआ करते थे। इसलिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि नया राज्य बना या नहीं। फर्क इससे पड़ता है कि तरक्की के लिए किस तरह की योजनाएं बनाई गईं और उन पर अमल शुरू हुआ या नहीं।
उत्तर प्रदेश में भी स्थिति वैसी ही हो रही है। राज्य के टुकड़े करने की योजनाएं हैं लेकिन उसके बाद क्या होगा, इसका नक्शा किसी के पास नहीं है। उत्तराखंड, झारखंड, तेलंगाना बनने के बाद हर बार उम्मीद की एक और किरण नेताओं के चेहरे पर चमक ले आती है। नए राज्य का मुख्यमंत्री होने के ख्वाब उन्हें दिन में आने लगते हैं, पर राज्य का विकास और उसके बजट पर किसी के पास उत्तर नहीं होता। हरित प्रदेश अलग करने के पीछे कुछ नेता मध्य प्रदेश का उदाहरण देते हैं। मध्य प्रदेश से टूट कर जब छत्तीसगढ़ अलग हुआ था तब मध्य प्रदेश बीमारू राज्य की श्रेणी में आता था। लेकिन अब मध्य प्रदेश एक संपन्न प्रदेश कहलाता है। राष्ट्रीय लोक दल हरित प्रदेश की सबसे बड़ी हिमायती है। उसका मानना है कि इसी इलाके से उत्तर प्रदेश कमाता है और इसकी कहीं न चर्चा होती है न यहां सुविधाएं मिलती हैं।

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