यूनिफॉर्म सिविल कोड और तीन तलाक पर हर दिन टेलीविजन और सोशल मीडिया पर बहस जारी है। एक तबके का तर्क है कि तीन तलाक ही मुस्लिम औरतों के पिछड़ेपन की वजह है, जबकि दूसरा इस बात के खिलाफ है। कुल मिलाकर मुसलमान औरतों के हुकूक के सिलसिले में बहस-मुबाहसे तीन तलाक तक सीमित हो गए हैं, जबकि तरक्की के पायदान पर आखिरी कतार में खड़े होने की असल वजह उनकी कम तालीम है। देश में तालीम समेत कई सामाजिक मुद्दों पर काम कर रही जमात-ए-इस्लामी हिंद के महिला विंग की राष्ट्रीय सचिव अतिया सिद्दका कहती हैं, तालीम, स्वास्थ्य और रोजगार मुस्लिम महिलाओं से जुड़े अहम मुद्दे हैं, जिनमें वे पिछड़ी हुई हैं। अतिया के अनुसार मुस्लिम लड़कियों का स्कूल ड्रॉपआउट फीसद ज्यादा है। इसकी वजह यह है कि लड़कियां प्राइमरी शिक्षा के लिए गांव के स्कूल में दाखिला तो लेती हैं, लेकिन अगर स्कूल गांव से बाहर है तो उन्हें आगे पढ़ने नहीं भेजा जाता। मुसलमान परिवार को-एजूकेशन में लड़कियों को पढ़ाना पसंद नहीं करते हैं। अतिया के अनुसार पिछड़े इलाकों में मुसलमान आर्थिक तौर पर इतने संपन्न भी नहीं हैं कि वह प्राइवेट स्कूल में लड़कियों को पढ़ा सकें।
शिक्षा के अधिकार पर काम कर रहे डॉ. संजीव राय बताते हैं कि देश के स्कूलों से बाहर 60 लाख बच्चों में 9.18 फीसदी मुसलमान बच्चे हैं। हालांकि दूसरे समुदायों के हालात भी बहुत अच्छे नहीं हैं। जनजातीय समुदाय के 8.43 फीसद (लड़कियां-8.85), अनूसूचित जाति - 4.38 (लड़कियां-5.04) और पिछड़ा वर्ग- 3.27 फीसदी हैं (लड़कियां-4.20)। डॉ. राय इसकी एक बड़ी वजह बताते हैं कि मजहबी तालीम जरूरी होने के मद्देनजर लड़कियों को मदरसे में जरूर भेजा जाता है। संपन्न मुसलमान मजहबी तालीम घर पर दिलवाते हैं, सुबह बच्चों को स्कूल भेजते हैं लेकिन पिछड़े इलाकों के लोग मदरसे और स्कूल का समय एक सा होने के कारण मदरसे में भेजना पसंद करते हैं।
हालांकि एजूकेशनल डेवलपमेंट इंडेक्स की रिपोर्ट देखें तो साल दर साल मुस्लिम लड़कियों में शिक्षा के हालात सुधर रहे हैं। अतिया भी इस बात से सहमत हैं। राज्यवार देखें तो प्राइमरी शिक्षा में असम में 2001 में 30.92 फीसदी मुसलमान बच्चों ने दाखिला लिया तो 2010 में यह आंकड़ा बढ़कर 39.89 फीसदी हो गया। इनमें 50.1 फीसदी लड़कियां हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश में 2001 में 8.50, वर्ष 2002 में 9.34, 2003 में 9.59 और 2010 में यह आंकड़ा बढ़कर 10.31 फीसदी हो गया। यानी स्थिति सुधर रही है। बंगाल में 2001 में 25.25 फीसदी से 2010 में यह आंकड़ा बढ़कर 30.3 फीसदी हो गया। बिहार में 2001 से 2010 के बीच कुछ गिरावट आई है। अहम बात यह है कि हर जगह लड़कियां 50 फीसदी तक हैं।
हालांकि महिलाओं के हुकूक के सिलसिले में इस्लाम उन्हें बहुत से अधिकार देता है। इस्लामिक स्कॉलर डॉ. जुनैद हारिस कहते हैं कि प्रॉफेट मोहम्मद साहब ने कहा है कि घर में बेटी की पैदाइश रहमत है, लड़कों के बराबर उनका पालन-पोषण और तालीम को जन्नत समझा जाए। लेकिन समय के साथ-साथ इस्लाम (भारत में) भी दूसरे समुदायों की बुराइयां लेता गया। कौमी राबता काउंसिल लखनऊ के सदर अलीमुल्ला खान का कहना है कि लड़कियों को या तो तालीम से महरूम रखा जाता है या उच्च शिक्षा तक पहुंचने से पहले हटा लिया जाता है। मुसलमान लड़कियों के सिलसिले में मदरसा शिक्षा में अब कुछ तबदीली आई है। उन्हें मजहबी शिक्षा के अलावा मॉडर्न शिक्षा दी जा रही है। खान के अनुसार केवल लड़कियों के स्कूल-कॉलेज और तादाद में खोले जाएं। बहुत से लोग उलेमाओं को मुसलमान महिलाओं की बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं लेकिन मुल्क में अभी तक जो कोशिशें हुई हैं वे उलेमाओं की ही बदौलत हुई हैं। पूरे देश में 22 स्कूल चला रहे दिल्लीवासी मौलाना मोहम्मद रहमानी के अनुसार तलाक का मुद्दा राजनीतिक मुद्दा है। यह सच है कि मुसलमान महिलाओं में तालीम की कमी है। तलाक और हलाला के सिलसिले में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जो भ्रांतियां फैलाई हैं उन्हें मुसलमान महिलाएं तभी समझ पाएंगी जब वह पढ़ी-लिखी होंगी।
कम समय में हालात तेजी से बदलेंगे
आरिफ मोहम्मद खान
मुसलमानों की बड़ी समस्या शिक्षा और रोजगार है। आंकड़े गवाह हैं कि मुस्लिम समुदाय के लड़के-लड़कियां उच्च शिक्षा में बेहद पिछड़े हुए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि महिलाओं की स्थिति ज्यादा खराब है। इसकी बड़ी वजह समुदाय के धार्मिक रहनुमा हैं। भारत में जब वर्ष 1824 में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई तो मुस्लिम धर्मगुरुओं ने अंग्रेजी शिक्षा का अर्थ ईसाइयत को अपनाना बताया और इसका खासा विरोध किया। उसी साल सरकार ने जब कोलकाता में एक संस्कृत कॉलेज स्थापित करने की घोषणा की तो राजा राममोहन राय के नेतृत्व में कई हिंदू नेताओं ने मिलकर सरकार को एक ज्ञापन दिया कि हमें संस्कृत कॉलेज की जरूरत नहीं है बल्कि उन लोगों ने ऑक्सफोर्ड और कैंब्रिज की तर्ज पर आधुनिक शिक्षा देने वाले कॉलेज की मांग की। वहीं इसके उलट 1835 में मुस्लिम धर्मगुरुओं ने 8000 मदरसा अधिकारियों के हस्ताक्षर वाला एक ज्ञापन सरकार को दिया जिसमें आधुनिक शिक्षा को प्रतिबंधित करने की मांग की गई। उन्होंने दावा किया कि अंग्रेजी में जिस दर्शन और तर्क की शिक्षा दी जाती है वह इस्लाम के खिलाफ है। यह आंकड़े किसी और ने नहीं बल्कि खुद सर सैयद अहमद खान ने केंद्रीय विधानपरिषद के समक्ष दायर अपने शपथपत्र में दिए थे। इन आंकड़ों के आधार पर, उन्होंने दृढ़ता से कहा था कि मुसलमानों ने यूरोपीय विज्ञान और साहित्य से सबसे कम लाभ प्राप्त किया। मौलवी हजरात या धर्मगुरुओं द्वारा आधुनिक शिक्षा का विरोध कभी नहीं थमा। उन्होंने सर सैयद को धर्मच्युत ठहराते हुए उनका सिर कलम करने के लिए 68 से ज्यादा फतवे जारी किए। मुस्लिम समुदाय में आज जो थोड़ी बहुत आधुनिक शिक्षा पाई जाती है वह मौलवियों के विरोध के बावजूद है और इसका श्रेय सर सैयद अहमद और अन्य दूरदर्शी मुसलमानों को जाता है जिन्होंने मौलवियों के विरोध को अनदेखा करते हुए मुस्लिम बच्चों को शिक्षित करने के लिए हर प्रकार का बलिदान दिया।
आज के दौर में इन मुद्दों को उठाने वाले लोगों की कोई कमी नहीं है। आज आप बेहद उत्साहित महसूस करते हैं जब आप युवा मुस्लिम लड़कियों को पैदल और साइकिल से कॉलेज जाते हुए देखते हैं। खासकर इस तरह के दृश्य उन ग्रामीण इलाकों में विशेष तौर पर सुखद लगते हैं, जहां महज दो दशक पहले तक लड़कियों को घर के बाहर पैर रखने की भी इजाजत नहीं थी। मैं बहुत आशावादी महसूस कर रहा हूं और इन शिक्षित लड़कियों को देखकर मुझे लगता है कि बहुत कम समय में हालात तेजी से बदल जाएंगे। अगर एक लड़के की शिक्षा एक परिवार का भाग्य बदल देती है, तो लड़कियों की शिक्षा आने वाली पीढ़ियों पर बहुत सकारात्मक प्रभाव डालेगी।
(लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं)