लगभग चार वर्ष पहले जिस सम्मान और विश्वास के साथ साइरस मिस्त्री को टाटा समूह की कमान सौंपी गई थी उसे देखते हुए किसी ने भी नहीं सोचा था कि एक दिन उन्हें इस तरह विदा होना पड़ेगा। बीते महीने के चौथे सोमवार को टाटा संस की बोर्ड मीटिंग में साइरस मिस्त्री को हटाकर रतन टाटा को अंतरिम चेयरमैन बना दिया गया। अगला चेयरमैन कौन होगा, इसके लिए एक समिति बनाई गई है। समिति में रतन टाटा के अलावा वेणु श्रीनिवासन, अमित चंद्रा, रोनेन सेन और कुमार भट्टाचार्य को शामिल किया गया है। नया चेयरमैन चुनने के लिए कमेटी के पास चार महीने का वक्त है। इस फेरबदल से यह तो तय है कि टाटा समूह में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा था, लेकिन आखिर ऐसा क्या हुआ कि महज चार वर्ष में साइरस मिस्त्री को हटाने का फैसला करना पड़ा। साइरस मिस्त्री ने रतन टाटा की जगह ली थी और अब उनकी जगह अंतरिम चेयरमैन रतन टाटा ही बनाए गए हैं। क्या ऐसी नौबत दो पीढ़ियों के काम करने के तौर-तरीकों में फर्क की वजह से आई या कारण कुछ और रहे?
हालांकि टाटा समूह द्वारा इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताया गया लेकिन बाद में टाटा संस के निदेशक मंडल के सदस्यों को भेजे ईमेल में साइरस मिस्त्री ने जो आरोप लगाए और जवाब में टाटा समूह द्वारा जो कुछ कहा गया उससे इतना तो पता चलता ही है कि प्रबंधन के स्तर पर टाटा समूह में कुछ मुद्दों पर अलग-अलग विचार थे। साइरस मिस्त्री ने जो आरोप लगाए उनके मुताबिक दिसंबर, 2012 में नियुक्ति के समय उन्हें काम करने में आजादी देने का वादा किया गया था लेकिन चेयरमैन के रूप में उन्हें निरीह बना दिया गया। साइरस ने यह भी कहा कि उन्हें अपने बचाव और स्पष्टीकरण का मौका दिए बगैर फटाफट कार्रवाई कर के हटा दिया गया। साइरस मिस्त्री ने अपनी ईमेल में विरासत में मिली समस्याओं के जिक्र के अलावा रतन टाटा और उनके बीच संबंध बेहतर न होने का संकेत भी दिया। नैनो कार के बारे में उन्होंने कहा कि घाटे के बावजूद इसे भावात्मक कारणों से बंद नहीं किया जा सका। नैनो कार की शुरुआत रतन टाटा ने की थी। मिस्त्री के आरोपों में एक यह भी रहा कि उन्हें विमानन क्षेत्र में कदम रखने के लिए मजबूर करने वाले रतन टाटा ही थे। अपने ईमेल में मिस्त्री ने उन पांच कंपनियों का जिक्र भी किया जो घाटा दे रही थीं।
हालांकि टाटा समूह ने तमाम आरोपों को निराधार और दुर्भावनापूर्ण बताया। टाटा समूह का कहना है कि मिस्त्री को फैसले लेने का पूरा अधिकार था। चेयरमैन के रूप में उन्हें समूह की कंपनियों की अगुआई करने के लिए पूर्ण स्वायत्तता दी गई थी। टाटा समूह के मुताबिक उन्हें इसलिए हटाया गया क्योंकि उन्होंने कई कारणों से निदेशक मंडल का विश्वास खो दिया था। रतन टाटा ने साफ कहा कि निदेशक मंडल का मानना था कि कंपनी की भविष्य की सफलता के लिए ऐसा कदम उठाना जरूरी हो गया था। टाटा समूह ने इस बात पर भी सवाल उठाया कि निदेशक मंडल के सदस्यों को भेजी गई गोपनीय ईमेल को सार्वजनिक किया गया। पद से हटने के बाद उन फैसलों पर सवाल उठाया जिनमें मिस्त्री खुद शामिल थे। टाटा समूह ने आरोपों को अक्षम्य बताते हुए कहा कि मिस्त्री ने कर्मचारियों की नजर में समूह की छवि धूमिल करने का प्रयास किया।
बहरहाल, इन आरोप-प्रत्यारोपों से इतर साइरस मिस्त्री के प्रदर्शन की बात की जाए तो उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं तो खराब भी नहीं रहा। मिस्त्री के कार्यकाल में टाटा समूह की सूचीबद्ध कंपनियों का पूंजीकरण लगभग दोगुना हो गया है। हालांकि उनके पूर्ववर्ती रतन टाटा के कार्यकाल में 57 गुना इजाफा हुआ था। रतन टाटा ने टाटा समूह की कमान वर्ष 1991 में संभाली थी। एक आंकड़े के मुताबिक उस वक्त टाटा समूह का बाजार पूंजीकरण 8000 करोड़ रुपये था। वर्ष 2012 तक रतन टाटा के मार्गदर्शन में यह लगभग 4.62 लाख करोड़ हो गया था। इसमें एक फर्क है। रतन टाटा का कार्यकाल लगभग 21 वर्ष रहा जबकि साइरस मिस्त्री का कार्यकाल लगभग चार वर्ष रहा। कई लोगों की राय है कि चार और 21 वर्ष की उपलब्धियों की तुलना नहीं की जा सकती। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि चार वर्ष में साइरस मिस्त्री समूह को वह दिशा नहीं दे पाये जैसी उनसे उम्मीद की जा रही थी।
जानकारों का आकलन है कि साइरस मिस्त्री का जोर कर्ज घटाने और समूह की वित्तीय व्यवस्था मजबूत बनाने पर रहा। उन्होंने बड़े अधिग्रहणों और परियोजनाओं से एक तरह से परहेज ही किया। कंपनी की विदेशी अधिग्रहण रणनीति के बारे में मिस्त्री का आकलन यह रहा कि इससे कर्ज का बोझ बढ़ा। यहां गौरतलब है कि विदेशी अधिग्रहण की नीति को रतन टाटा ने विस्तार दिया था। तो क्या यहीं से रतन टाटा और साइरस मिस्त्री के बीच मतभेद बढ़े? उद्योग जगत के जानकारों का आकलन है कि साइरस मिस्त्री की विदाई की कई वजहें हो सकती हैं। बैलेंस शीट को मजबूत करने के लिए मिस्त्री घाटे का सबब बन रही नैनो सरीखी परियोजनाओं से छुटकारा पाने के पक्ष में थे, जबकि टाटा समूह पिछले कई वर्षों से अपने समूह के विस्तार पर जोर देता रहा है। वैसे भी नैनो रतन टाटा का ड्रीम प्रोजेक्ट रही है। जानकारों का कहना है कि साइरस मिस्त्री और टाटा समूह प्रबंधन के बीच मतभेद की वजह सिर्फ नैनो नहीं है, और भी कई वजहें हैं। जानकारों का कहना है कि हालांकि साइरस मिस्त्री कर्ज घटाने की दिशा में काम कर रहे थे लेकिन उनकी सोच से यह संदेश गया कि वे अपने पूर्ववर्ती रतन टाटा के फैसलों पर सवालिया निशान लगा रहे हैं। साइरस मिस्त्री का डिविडेंड में कमी करने का फैसला भी बाकियों को रास नहीं आया। टाटा ग्रुप के ट्रस्टों की आय मुख्यत: डिविडेंड पर निर्भर है। सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के बोर्ड मेंबर वी.आर. मेहता ने एक आर्थिक अखबार को कहा, ‘डिविडेंड ही ट्रस्ट की आमदनी का मुख्य स्रोत है। अगर डिविडेंड आय घटे तो चिंता होना स्वाभाविक है। हम अपने कार्यक्रम जारी नहीं रख पाएंगे। ट्रस्टों की चिंता से टाटा संस और मिस्त्री को अवगत करा दिया गया था लेकिन चिंताओं को कम करने के लिए कुछ नहीं किया गया।’ टाटा संस में ट्रस्टों की हिस्सेदारी करीबन दो-तिहाई है।
साइरस मिस्त्री की विदाई के बाद अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि टाटा समूह का अगला चेयरमैन कौन होगा? फिलहाल पेप्सी की इंदिरा नूयी से लेकर टीसीएस के एन. चंद्रशेखरन और रतन टाटा के सौतेले भाई नोएल टाटा तक आधा दर्जन से ज्यादा नाम चर्चा में हैं। रतन टाटा के उत्तराधिकारी के रूप में उस वक्त भी नोएल टाटा का नाम चर्चा में आया था। चेयरमैन का चयन करने वाली समिति के सामने चुनौती बड़ी है। महज चार माह में उसे अपने काम को अंजाम देना होगा। समिति किस के नाम पर मुहर लगायेगी यह तो वक्त बतायेगा लेकिन इतना तय है कि जो भी नया चेयरमैन चुना जायेगा, उसके सामने चुनौतियां अपेक्षाकृत ज्यादा होंगी।
टाटा समूह के प्रमुख
जमशेदजी एन. टाटा- (1868-1904)
सर दोराबजी टाटा - (1904-1932)
सर एन.बी. सकलतवाला - (1932-1938)
जे.आर.डी. टाटा - (1938-1991)
रतन टाटा - (1991-2012)
साइरस पी. मिस्त्री - (2012-अक्तूबर 2016)