देश के चहेते गायक स्व. मन्ना डे के इस नग्मे की तरह किसी तरह की हैरानी जताए बिना नरेन्द्र मोदी का देश में 500 रुपये और 1000 रुपये की नोटबंदी का कदम नि:संदेह साहसिक(बोल्ड) कदम प्रतीत होता है। इसके साहसिक होने पर कोई शंका नहीं जताई जा सकती। खास कर उस प्रधानमंत्री के निर्णय पर जो बहुमत की 282 सीटों के साथ हुकूमत कर रहा हो, जिसे बहुमत को लेकर कोई जोखिम नहीं सता रहा, जो बहुमत के लिए किसी का मोहताज नहीं है।
नोटबंदी मामले में इतिहास नरेन्द्र मोदी का आकलन आर्थिक एजेंडे के आधार पर करेगा। नोटबंदी के गुण-दोष के आधार पर मोदी का आकलन होगा। ठीक उसी तरह इतिहास मोदी का आकलन करेगा जिस तरह उसने मंडलीकरण के गुण-दोष के आधार पर पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह का और 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाने के मामले में पी.वी.नरसिंह राव का आकलन किया। पर बड़ा सवाल यह है कि मोदी ने जो चाहा वो कर दिखाया और पूरा देश बैंकों के आगे कतार में खड़ा होने का दर्द झेल रहा है। अंतत: इससे क्या हासिल होने वाला? देश का कोई भी नागरिक नहीं चाहता कि भारत जैसे विशाल देश की अर्थव्यवस्था हमेशा काले धन की सामानांतर अर्थव्यवस्था की पटरी पर दौड़ती रहे। लेकिन जनता कम से कम इतना तो जानना चाहेगी ही कि आखिर में उसे क्या हासिल होने वाला है। गृहणियों से लेकर वेतनभोगी मध्यम वर्ग और छोटे कारोबारी सभी अपनी रकम के साथ बैंक पहुंच रहे हैं। ऐसे में यह जानना तर्कसंगत है कि कैसे आने वाले समय में इस धन से भारत की तस्वीर बदलेगी। लोग यह जानना चाहेंगे क्योंकि संक्रमण दौर की पीड़ा लोग ही झेल और महसूस कर रहे हैं।
नरेन्द्र मोदी के इस निर्णय पर इतिहास अपना अध्याय लिखेगा। देश की परिस्थिति और कदम के परिणाम को देखते हुए इतिहास लिखा जाएगा। दूसरी बात यह कि इतिहास की दृष्टि से बोल्ड कहे जाने के साथ-साथ काले धन की दुनिया भी नोटबंदी को 'बोल्ड’ का दर्जा देते हुए मोदी के निर्णय की बखिया उधेड़ेगी। काले धन की दुनिया अपने ऊपर प्रहार का 'डायग्नोसिस ‘ करेगी। यह लाजिमी है। यह दुनिया आने वाले दिनों में पनपने का भी प्रयास करेगी क्योंकि क्रिया की प्रतिक्रिया स्वाभाविक है। ताल ठोंक कर यह नहीं कह सकते कि काले धन की दुनिया का स्वर्गवास हो गया है।
सवाल है कि क्या नोटबंदी के निर्णय का दीर्घकालिक लाभ होगा या 'बोल्ड’ कदम उत्तर प्रदेश में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए महज दिखावटीपन या चुहलबाजी बन कर रह जाएगा। इस कदम के दीर्घकालिक लाभ सामने आने चाहिए। सबकी चाह यही है, यही देश हित में है। यह देखना होगा कि इस कदम से हमें दीर्घकालिक लाभ- बैंक जमाओं में वृद्धि, जमा करने के संदर्भ में बचत में बढ़ोतरी, मुद्रास्फीति पर लगाम, ब्याज दरों में कमी, अधिक राजस्व वसूली, बेहतर कारोबारी माहौल, कम भ्रष्टाचार और पारदर्शिता- मिल पाता है या नहीं। हमें नफा-नुकसान पर नजर रखनी होगी, उनका इंतजार करना होगा। उत्तर प्रदेश में अगले चुनाव के समय नोटबंदी का डंका बजे या न बजे दीर्घकालिक रूप से मिलने वाले लाभों के प्रति संवेदी होना जनता के लिए लाजिमी है। नोटों की माला को लेकर कसे जाने वाले तंज की अपेक्षा यह जानना अधिक जरूरी है कि नोटबंदी भविष्य में हमें क्या देने जा रही। नोटबंदी से उन लोगों को क्या लाभ मिलने जा रहा जिन्होंने बैंकों की कतारों में खड़ा होने को अपनी दिनचर्या में शुमार कर लिया है।
प्रधानमंत्री मोदी लोगों से कह रहे हैं कि वे 50 दिनों की मुश्किलें झेल लें वह लोगों को उनकी पसंद का भारत देंगे। कैसा होगा लोगों की पसंद का भारत? लोगों की पसंद का भारत बनाने के लिए व्यापक 'विजन’ की दरकार है। व्यापक दृष्टि से यह बात साफ होनी चाहिए कि नोटबंदी से शहरी भारत में रोजगार के अवसरों में कैसे सुधार आएगा, खासकर तब जब रोजगार देने वाले प्रमुख क्षेत्र रीयल स्टेट को स्वयं मंदी की मार झेलनी पड़ रही हो। नोटबंदी के बाद यह कहना अनिश्चित सा है कि इस क्षेत्र में 'कोर्स करेक्शन’ कब होगा और यह क्षेत्र रोजगार देने में पहले की तरह कब सक्षम होगा। इस कदम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था कैसे सुधरेगी? यह ध्यान देने की बात है कि हमारे देश का 68 प्रतिशत कार्यबल ग्रामीण अर्थव्यवस्था का हिस्सा है। इस 68 फीसदी कार्यबल का जीवन कैसे बदलेगा? किसान साहूकारों के नापाक चंगुल से किस तरह मुक्त होंगे? विशेषज्ञ बताते हैं कि मंदी देश में मुसीबत ला सकती है। मंदी के कठिन समय को पार कर लेने के बाद सरकार अर्थव्यवस्था में आए नए धन का समायोजन किस तरह करेगी, यह धन ग्रामीण और शहरी दोनों अर्थव्यवस्थाओं में तेजी लाने में किस तरह लगाया जाएगा। यह सब देखना बाकी है।
नोटबंदी क्या भ्रष्टाचार को हमेशा के लिए जड़ से समाप्त करने वाला कदम साबित होगा? इस सवाल के उत्तर में तो कुछ विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है। उनकी चेतावनी यह है कि भारत देश के लोग बहुत कलाकार किस्म के लोग हैं, सृजन क्षमता रखते हैं और ऐसे लोग सरकार के खेल को बिगाड़ सकते हैं। यह बात सच भी हो सकती है। अधिकारियों की हथेली गरम करने, आपराधिक स्वभाव के कारोबारों को जारी रखने और टैक्स चोरी करने का काम 500 रु. और 1000 रु. के नोटों के बिना भी किया जा सकता है। यह अलग बात है कि इन कारनामों के लिए और धन की जरूरत होगी।
अरविंद पनगडिय़ा सरीखे लोग नोटबंदी से ब्याज दरों के नरम होने की बात कह रहे हैं। कुछ विशेषज्ञ भी ऐसी बातें कर रहे हैं। लेकिन ब्याज दरों पर नजर रखने वाले भारत के शहरी तबके को यह समझना होगा कि ब्याज दरों में कमी के लिए नोटबंदी अकेले काफी नहीं। ब्याज दरें कई बातों पर निर्भर करती हैं। मसलन हमारी अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से प्रभावित होती है। हम वैश्विक परिप्रेेक्ष्य में रह रहे हैं। मंदी वैश्विक अर्थव्यवस्था को झकझोरती है। क्या हम भविष्य में ऐसे झकझोर को सह सकते हैं? हम ऐसे धक्कों से निपटने में आर्थिक रूप से कितने सक्षम हैं? ये सारी बातें ब्याज दरों के उतार-चढ़ाव को प्रभावित करने वाली हैं। पहले ही की तरह।
हर कोई चाहता है कि आने वाली पीढ़ी का भविष्य बेहतर हो। सभी चाहते हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था स्वच्छ बने। लेकिन दुनिया से पूरी तरह एक ही झटके में काला धन खत्म नहीं हो सकता। काले धन को खत्म करने के लिए इसमें कमी लानी होती है। काले धन पर समय-समय पर लगाम कसा जाता है। गरीब-अमीर के बीच समानता के शोर में जान पड़ता है कि प्रधानमंत्री मोदी का मकसद भी यही है। काला धन कम करने का उद्देश्य। यदि उनका इरादा काले धन में कमी लाने का है तो यह कार्य देश की आबादी के 30 प्रतिशत कर दाताओं पर बोझ डाल कर नहीं किया जाना चाहिए। करदाता अपने देश का घोषित ईमानदार समझा जाता है। उस पर किसी तरह का बोझ वाजिब नहीं।
पचास दिनों बाद जब नोटबंदी पर कोहराम थम जाएगा तो इसके नफा-नुकसान को देखने का समय शुरू होगा। इसी नफा-नुकसान के आधार पर इतिहास लिखा जाएगा, मोदी और नोटबंदी पर अध्याय लिखा जाएगा।
(लेखक प्रिंट और टी.वी. से जुड़े वरिष्ठ संपादक एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)