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वनों में गूंजता संस्कृति संगीत

हर राज्य की अपनी विशेषता है, फिर भी जंगल, वनवासी एक हैं। उनकी संस्कृति-विविधता माला के मोती जैसी है
आदिवासी नृत्य

जं गल में एक संस्कृति पलती है। संस्कृति के करीब जाना हो तो इससे दोस्ती करनी पड़ती है। यह दोस्ती तभी होगी जब कोई इन घने पेड़ों के बीच वहां वक्‍त बिताए और इसकी भाषा समझे। जर्मनी के ब्‍लैक फॉरेस्ट से लेकर चीन के शिलिन स्टोन फॉरेस्ट तक जंगल शायद एक जैसे रहते हैं। चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पत्थरों की मीनारों सी दिखती हैं स्टोन फॉरेस्ट में। पत्थरों कायह जंगल 270 साल पुराना है और 349 किलोमीटर में फैला हुआ है। कुछ पत्थर की चोटियां तो 30 मीटर से भी ऊंची हैं। जंगल सीमाओं से परे हैं। धरती का सीना फाड़े जो पेड़ ब्‍लैक फॉरेस्ट को हरा-भरा बनाते हैं, वैसे ही पेड़ भारत के जंगल को भी सुंदरता देते हैं। बस अंतर इतना है कि भारत के जंगलों में एक संस्कृति रहती है, एक जीवन रहता है। अबूझमाड़ के घने जंगल, सतपुड़ा के जंगल किसी मायनों में अलग हैं तो वह है वहां कि आदिवासी संस्कृति जिसे देखने सूदूर देश से लोग चले आते हैं। भारत ने अपने जंगलों का वैसा विकास नहीं किया जैसा अब तक हो जाना चाहिए था। जंगलों को छोड़ दिया गया अलग-थलग और वहां के निवासी अजूबे बना दिए गए। लेकिन विकास नाम की एक सडक़ ने धीरे-धीरे ही सही मगर इस रास्ते पर चलना शुरू किया। अब यहां की स्थिति बदल रही है। घने जंगलों में अपनी दुनिया में रहने वाले लोगों तक संचार के माध्यम पहुंच रहे हैं, कम ही सही स्वास्थ्य सेवाएं पहुंच रही हैं, कुछ ट्रेनों और बसों की आवाज ने वहां की नीरवता तोड़ दी है।

यह तो जंगल की उपलद्ब्रिध ही कही जाएगी जब दिल्ली विश्वविद्यालय के दरवाजे पर छत्तीसगढ़ के जंगल की न सिर्फ दस्तक सुनाई दी बल्कि धमक के साथ चार लडक़े इस विश्वविद्यालय में प्रवेश पा गए। चारों छत्तीसगढ़ के नक्‍सल प्रभावित इलाकों से आए हैं और खूब पढऩा चाहते हैं। वे अपने घर जाकर बताना चाहते हैं कि हिंसा किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकती। सरकारें जंगल को नहीं जानतीं या जानना नहीं चाहती यह कहना सबसे आसान था। इसलिए जंगल और जमीन के इस आंदोलन में सरकारों ने मुख्‍य भूमिका निभाने के लिए कमर कस ली है। अब यहां सडक़ें बन रही हैं, मोबाइल फोन के टॉवर लग रहे हैं, स्कूल खुल रहे हैं और मोबाइल अस्पताल भी लोगों तक पहुंच रहे हैं। बेशक ये जंगल पर्यटकों को वैसे नहीं लुभाते जैसे गोवा के समुद्री तट, शिमला की बर्फ या मदुरई के मंदिर लुभाते हैं। शायद ऐसा इसलिए भी है क्‍योंकि कभी सोचा ही नहीं गया कि इन जंगलों में भी पर्यटन हो सकता है। खूबसूरती और शांति की तलाश में लोगों को यहां तक भी लाया जा सकता है। इसलिए अब जंगल की नेमतें जानने वाली सरकारें यह सोचने लगी हैं कि जंगल को लोगों की पहुंच तक लाना चाहिए। इस संवाद का सिलसिला शुरू हो चुका है।

जंगल के सीने पर कुछ समय से जो जख्‍म हुए वह धीरे-धीरे भर रहे हैं। अब जंगल में उनकी बोली-भाषा में बात की जा रही है। छत्तीसगढ़ के मुख्‍यमंत्री रमन सिंह रमन के गोठ नाम से सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में संवाद स्थापित कर रहे हैं। बाहरी दुनिया अंदर की जंगल की दुनिया से जुड़ रही है। अभी तक होता यह था कि आदिवासी सिर्फ शोपीस की तरह होते थे। राजनेताओं ने कभी भी आदिवासी क्षेत्रों को उपेक्षित नहीं समझा। उपेक्षित इन अर्थों में कि वे वहां गए लेकिन चुनावी मौसम में। फोटो खिंचवाए, आदिवासी वेशभूषा पहनी, उनके साथ उन्हीं की शैली में थिरके और इतिश्री। फिर धीरे-धीरे जंगल और वहां के रहवासी उन लोगों के हाथों में पहुंच गए जिन्होंने उनके मन में भर दिया कि जंगल से बाहर के लोग उन्हें असञ्जय मानते हैं और यह सञ्जय लोग चाहते हैं कि वे गरीब बने रहें। इसलिए जरूरी है कि उनकी सत्ता हो उनकी सरकार हो। संघर्ष बढ़े, नुकसान भी हुए लेकिन जब सरकारों ने ठाना तो उसके नतीजे दिखने लगे।

यह लोकतंत्र की ताकत ही है कि अराजकता विदा हो रही है और जिस हरीतिमा को नजर लग गई थी उस पर रक्‍त की लाली के बजाय सूर्योदय की लाली छा रही है। झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, तेलंगाना का थोड़ा सा हिस्सा जंगलों में फिर से आदिवासियों को लौटा रहा है। इसके साथ ही यहां रौनक भी लौट रही है। बस जरुरत इस बात की है कि इन इलाकों के बारे में लोगों को पता चले। आज जंगल पर्यटन के लिए न केवल उपयुक्‍त जगह है बल्कि प्रकृति का नजारा लेने के लिए भी लोगों का झुकाव इस ओर बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी स्वयं इस बात की तारीफ करते हैं कि जिन राज्यों में जंगल हैं वहां पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं। यह केवल संभावना भर नहीं है बल्कि रोजगार और आर्थिक संसाधनों को बढ़ावा देने में भी भरपूर सहयोग मिलेगा। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जंगल सफारी के उदï्घाटन अवसर पर प्रधानमंत्री ने न केवल जंगल की उपयोगिता के बारे में बताया बल्कि यह भी कहा कि किस तरह से इससे रोजगार को जोड़ा जाए और पर्यटन को बढ़ावा दिया जाए। लेकिन इसके लिए जरूरत है जंगल तक पहुंच बनाने की यानी जब तक पर्यटक को जंगल के नजदीक पहुंचने का संसाधन उपलब्‍ध नहीं होगा तब तक पर्यटक की इच्छा नहीं जगेगी। सडक़ मार्ग को सुगम बनाने के साथ-साथ हवाई और रेल यातायात से भी इन इलाकों को जोडऩा होगा। इस दिशा में केंद्रीय सडक़ एवं परिवहन मार्ग मंत्री नितिन गडकरी कदम भी बढ़ा चुके हैं। जंगल तक पहुंचने के मार्ग को राष्टï्रीय राजमार्ग से जोडऩे की शुरुआत हो चुकी है तो कुछ योजनाओं का प्रस्ताव तैयार किया जा रहा है। राज्य सरकारें भी सडक़ मार्ग आसान बना रही हैं ताकि पर्यटक अगर यहां जाना चाहें तो आसानी से जा सकें। इसके लिए हेलीकाप्टर सेवा शुरू करने का भी प्रस्ताव है। ऐसे पर्यटन स्थल जो आज भी पर्यटकों को लुभा रहे वह जंगलों के गुलजार होने के कारण ही लोकप्रिय हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड में ऐसे कई स्थल हैं जो पर्यटकों के लिए पसंदीदा जगह बनते जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ में नारायणपुर जिले के बस्तर संभाग में अबूझमाड़ के घने जंगल हर पर्यटक की पहली पसंद हो सकते हैं। ऐसे ही जगदलपुर से 23 किलोमीटर दूर कुटुंबसर गुफाएं तो पर्यटकों को लुभाती ही हैं। घने जंगल में जाने के लिए फॉरेस्ट गार्ड सर्च लाइट लेकर आगे चलें तो ही वहां पहुंचा जा सकता है। कहा जाता है कि यह दुनिया की इकलौती जगह है जहां की मछलियां अंधी हैं।

छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिर तथा उनके भग्नावशेष संकेत देते हैं कि यहां पर वैष्णव, शैव, शाक्‍त, बौद्ध के साथ ही आर्य तथा अनार्य संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा। धान की भरपूर पैदावार के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। इतिहास में छत्तीसगढ़ के संदर्भ में प्राचीनतम उल्लेख सन 639 ईस्वी में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में मिलते हैं। उनकी यात्रा विवरण में लिखा है कि दक्षिण-कोसल की राजधानी सिरपुर थी। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन का आश्रम सिरपुर में ही था। महाकवि कालिदास का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हुआ माना जाता है।

यहां के लोकगीतों में विविधता है। भोजली, पंडवानी, जस गीत, भरथरी लोकगाथा, बांस गीत, गऊरा गऊरी गीत, सुआ गीत, देवार गीत, करमा, ददरिया, डण्डा, फाग, चनौनी, राउत गीत और पंथी गीत छत्तीसगढ़ के प्रमुख और लोकप्रिय गीतों में से हैं। इनमें से सुआ, करमा, डंडा और पंथी गीत नाचके साथ गाये जाते हैं। देश के हृदय स्थल पर स्थित छत्तीसगढ़ भगवान श्रीराम की कर्मभूमि रही है। प्रमाण मिले हैं कि श्रीराम की माता कौसल्या छत्तीसगढ़ की ही थीं।

भगवान श्रीराम राजिम और सिहावा में ऋषि-मुनियों के सान्निध्य में लंबे समय तक रहे और यहीं उन्होंने रावण वध की योजना बनाई थी। त्रिवेणी संगम पर राजिम कुंभ को देश के पांचवें कुंभ के रूप में मान्यता मिली है। सिरपुर का ऐतिहासिक बौद्ध आश्रम, रामगिरी पर्वत, बस्तर का चित्रकोट जल-प्रपात, भोरमदेव मंदिर, सीताबेंगरा गुफा जैसी कलात्मक विरासतें छत्तीसगढ़ को आज अंतरराष्ट्रीय पहचान प्रदान कर रही हैं। भोरमदेव को छत्तीसगढ़ का खजुराहो कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के गौरवशाली अतीत के परिचालक कुलेश्वर मंदिर राजिम, शिव मंदिर चंदखुरी, सिद्धेश्वर मंदिर पलारी, आनंद प्रभु कुरी विहार और स्वहितक बिहार सिरपुर, जगन्नाथ मंदिर खल्लारी, भोरमदेव मंदिर कवर्धा, बत्तीस मंदिर बारसूर और महामाया मंदिर सहित पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण स्मारक घोषित किए गए। छत्तीसगढ़ के बस्तर में ही चित्रकोट जल-प्रपात है। इस जल-प्रपात की ऊंचाई 90 फुट है। जगदलपुर से 39 किलोमीटर दूर इंद्रावती नदी पर यह जल-प्रपात बनता है। नब्‍बे फुट ऊपर से इंद्रावती की ओजस्विनी धारा गर्जना करते हुए गिरती है। इसके बहाव में इंद्रधनुष का मनोरम दृश्य, आल्हादकारी है। यह बस्तर संभाग का सबसे प्रमुख जलप्रपात माना जाता है। जगदलपुर से समीप होने के कारण यह एक प्रमुख पिकनिक स्पॉट के रूप में भी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। अपने घोड़े की नाल समान मुख के कारण इस जल-प्रपात को भारत का निआग्रा भी कहा जाता है।

छत्तीसगढ़ के विकास के साथ ही छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया गया है। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन किया गया ताकि छत्तीसगढ़ी में सरकारी कामकाज हो। छत्तीसगढ़ के प्रयाग राजिम में आयोजित विशाल मेला पांचवे कुंभ के रूप में अपनी राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय पहचान बना चुका है। सिरपुर में 1956 के बाद 2006 में पुन: पुरातात्विक उत्खनन प्रारंभ कराया गया जिससे 32 प्राचीन टीलों पर अत्यंत प्राचीन संरचनाएं प्रकाश में आईं। उत्खनन के दौरान पहली बार मौर्य कालीन बौद्ध स्तूप प्राप्त हुए। कुल,9 कांस्य प्रतिमाएं और सोमवंशी शासक तीवरदेव का एक तथा महाशिव गुप्त बालार्जुन के तीन ताम्रपत्र सेट मिले। सिरपुर पुरातात्विक वैभव के कारण दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। छत्तीसगढ़ के 8 जिलों में पुरातत्व संग्रालयों का निर्माण कराया गया है।

राजधानी रायपुर में भव्य पुरखौती मुक्‍तांगन का तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. अब्‍दुल कलाम ने लोकार्पण किया है। जिससे छत्तीसगढ़ के कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर मिल रहा है। कलाकारों की पहचान व सम्‍मान के लिए चिन्हारी कार्यक्रम शुरू किया गया है। कलाकारों व साहित्यकारों के लिए पेंशन राशि को,00 रुपये से बढ़ाकर 1500 रुपए किया गया है। उत्सवों में बस्तर का दशहरा, रायगढ़ का गणेशोत्सव तथा बिलासपुर का राउत मढ़ई ऐसे ही उत्सव हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट पहचान है। छत्तीसगढ़ की शिल्पकला में परंपरा और आस्था का अद्भुत समन्वय विद्यमान है। यहां की पारंपरिक शिल्पकला में धातु, काष्ठ, बांस तथा मिट्टी एकाकार होकर अर्चना और अलंकरण के लिए विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।

मध्यप्रदेश में भी घने जंगलों की कोई कमी नहीं है। यह घने जंगल मध्यप्रदेश से होते हुए बिहार, झारखंड तक पहुंच जाते हैं। नर्मदा किनारे से लेकर बिहार के छोर तक मनोरम पहाडिय़ां हैं, बलखाती नदियां हैं। विंध्यपर्वत शृंखला की गोद से बहती दिखती है, नर्मदा। अमरकंटक वह जगह है जहां संस्कृति के कई अध्याय सामने खुलते हैं। प्रकृति ने अपनी लाड़ली नर्मदा को जी भर कर उपहार सौंपे हैं, पेड़, हरियाली, जंगल और अमरत्व का बोध देता अमरकंटक का कुंड। नर्मदा न सिर्फ प्यास बुझाती है बल्कि 160 लाख एकड़ भूमि को सींचती हुई किसानों को जीवनदान भी देती है। अकेले मध्यप्रदेश में 144 लाख एकड़ भूमि इससे सिंचित होती है। नर्मदा को समग्र रूप से जानने के लिए नर्मदा परिक्रमा करने पूरे भारत से लोग आते हैं। नर्मदा किनारे के आश्रम, वहां की लोक संस्कृति को जानने का इस परिक्रमा से अच्छा साधन नहीं है। नर्मदा की हर लहर अपने साथ लोक मानस के खूब किस्से और पौराणिक महत्व लेकर बहती है। हरे-भरे खेतों के बीच से गुजर कर परिक्रमा पथ पर लोक जीवन देखना, कहीं-कहीं नर्मदा के किनारे चलना, स्वेद बिंदुओं को शीतल जल से धोना और सूखते कंठ में नर्मदा का आचमन मन को तृप्त कर जाता है। लेकिन सही जानकारी का अभाव और सुविधाओं की कमी पर्यटकों को रोक लेती हैं। देखा जाए तो उत्तराखंड ने अपने पर्यटन के बल पर ही अलग पहचान बनाई है। जब केदारनाथ में हवाई जहाज की सेवा शुरू हो सकती है तो फिर अबूझमाड़ के घने जंगलों में पहुंचने के लिए हवाई सेवा शुरू क्‍यों नहीं हो सकती।

झारखंड के चतरा जिले का इटखोरी प्रखंड शक्ति, ध्यान और भक्ति का अद्भुत संगम है। नौवीं सदी का बना मां भद्रकाली मंदिर हिंदू मान्यताओं का केंद्र है वहीं गौतम बुद्ध की तपस्थली के कारण बौद्धों के लिए भी यह पवित्र है। मान्यता है कि जैन तीर्थंकर शीलनाथ की जन्म भूमि भी यहीं है। यहां हर साल इटखोरी महोत्सव का आयोजन किया जाता है। इस दौरान यहां धर्म से लेकर संस्कृति की ऐसी छटा बिखरती है कि आसपास के जिलों ही नहीं पड़ोसी राज्य बिहार और बंगाल के लोग भी पहुंचते हैं। गौतम बुद्ध गृह त्याग के बाद तक काफी समय तक यहां रुके थे। उनके परिजन उन्हें खोजते हुए यहां आए पर गौतम बुद्ध ने उनकी अनदेखी ही नहीं कि बल्कि उन्हें अपना मानने से भी इनकार कर दिया। इसके बाद उनके परिजनों ने कहा, इतखोई

(यहीं खो गया)। इसके बाद ही इस जगह का नाम इटखोरी पड़ गया। यहां बौद्ध काल के कई अवशेष खुदाई में मिले हैं। सम्राट अशोक ने पहला बुद्ध विहार यहीं के भदुली गांव में बनाया था। मां भद्रकाली देवी की मान्यता काफी है ही यहां का प्राकृतिक सौंदर्य भी मन को मोहने वाला है। मंदिर को बकसा नदी तीन तरफ से घेर कर बहती है। यह मंदिर नौवीं सदी का बना हुआ है। इसका ऐतिहासिक महत्व भी है। यहां मां भद्रकाली की प्रतिमा के चरणों में ब्राह्मïी लिपि में लिखा है, महेंद्र पाल राजे दशमी अनुष्ठान। महेंद्र पाल बंगाल का शासक था और उसका कार्यकाल 988 से 1028 ईस्वी तक है। मां भद्रकाली की मूर्ति शिल्प कला में भी अनुपम स्थान रखती है।

भारतीय पुरातत्व सर्वे ने जब इस जगह की खुदाई की तो यहां से  प्राचीन मूर्तियां ही नहीं मिलीं बल्कि कई महत्वपूर्ण जानकारियां  भी हासिल हुईं। यहां एक पत्थर पर पैरों के निशान मिले। इसे जैनों के दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ का बताया जाता है। इसी जगह पर शीतलनाथ लिखा ताम्रपत्र भी मिला है। जैन साहित्य में इस बात का जिक्र है कि भदुली में ही शीतलनाथ का जन्म हुआ था। मंदिर में एक शिव ङ्क्षलग है जिसकी सतह पर 1008 से अधिक शिवलिंग उत्कीर्ण हैं। एक बौद्ध स्तूप है जिस पर बुद्ध की 104 छवियां बनी हैं और इस पर बुद्ध की चार मुद्राएं भी उत्कीर्ण हैं। यह भी मान्यता है कि वनवास काल के दौरान भगवान राम और अज्ञातवास के दौरान पांडव यहां भी आए थे। इटखोरी झारखंड की राजधानी रांची से करीब 145 किलोमीटर दूर है। बकसा नदी यहां इस तरह बहती है जिससे अंग्रेजी का यू् अक्षर उभर कर सामने आता है। 

 

सतपुड़ा के घने जंगल

धंसो इनमें डर नहीं है,

मौत का यह घर नहीं है,

उतर कर बहते अनेकों,

कल-कथा कहते अनेकों,

नदी, निर्झर और नाले,

इन वनों ने गोद पाले।

लाख पंछी सौ हिरन-दल,

चांद के कितने किरन दल,

झूमते बन-फूल, फलियां,

खिल रहीं अज्ञात कलियां,

हरित दूर्वा, रक्‍त किसलय,

पूत, पावन, पूर्ण रसमय

सतपुड़ा के घने जंगल,

लताओं के बने जंगल।

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता सतपुड़ा के घने जंगल का एक अंश

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