हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय।
मैं अखिल विश्व का गुरु महान, देता विद्या का अमरदान।
मैंने दिखलाया हिंदू मार्ग, मैंने सिखलाया ब्रह्मïज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर, मेरे वेदों की ज्योति प्रखर।
मानव के मन का अंधकार, क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर, सागर के जल में छहर-छहर।
इस कोने से उस कोने तक, कर सकता जगती सौरभमय।
हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन।
यूं लगा मानो स्वयंसेवकों की भुजाएं फडक़ने लगी हों। पूरे माहौल में देशभक्ति का उबाल-सा आने लगा। वह नौजवान स्वयंसेवक थे अटल बिहारी वाजपेयी और जब सन 1947 में वाजपेयी को राजीव लोचन अग्निहोत्री के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 'राष्ट्र्रधर्म’ पत्रिका के संपादन का काम सौंपा गया तो यह मासिक पत्रिका देखते ही देखते चर्चा का विषय बन गई। 'राष्ट्रधर्म’ के पहले ही अंक में वाजपेयी की यह लंबी कविता 'हिंदू तन-मन’ छपी और बहुत चर्चित हुई। संघ प्रमुख रहे के.एस. सुदर्शन इस कविता को संघ के बहुत से कार्यक्रमों में दोहराते रहते थे।
संघ के वरिष्ठ नेता देवेन्द्र स्वरूप कहते हैं, 'यह मानना सरासर ज्यादती होगी कि वाजपेयी संघ से अलग थे। सन 1950 में पूर्वी पाकिस्तान में हिंदुओं पर अत्याचार और सरकार की लापरवाही और फिर नेहरू-लियाकत पैक्ट के बाद डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने 8 अप्रैल 1950 को नेहरू सरकार से इस्तीफा दे दिया। वह उस वक्त उद्योग मंत्री थे। इस्तीफा देने के बाद डॉ. मुखर्जी संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर के पास गए और कहा कि आप संघ को राजनीतिक पार्टी बना दीजिए तो गुरु गोलवलकर ने कहा कि संघ तो अपने समाज सेवा के काम में खुश है। आप चाहते हैं तो अलग से राजनीतिक पार्टी बना लीजिए। इस पर डॉ. मुखर्जी ने कुछ लोग संघ से मांगे। तब जिन बड़े प्रचारकों को गुरु गोलवलकर ने डॉ. मुखर्जी को सौंपा उनमें नानाजी देशमुख और सुंदर सिंह भंडारी के साथ वाजपेयी भी थे। वाजपेयी संघ की विचारधारा छोड़े बिना राजनीति का साथ निभाते रहे।’
सन 1940 से वाजपेयी का संघ शाखा से संबंध बना। तब वह हाईस्कूल में थे। नागपुर से ग्वालियर आए आजीवन प्रचारक नारायण राव तर्टे अटल बिहारी को संघ की शाखा में लेकर आये। वह ग्वालियर की लक्ष्मीगंज शाखा में जाने लगे। तब वहां हिंदी भाषी और मराठियों में मुकाबला रहता था। मराठी लोगों को 'कढ़ीखाऊ’ और उन्हें 'रांगड़े’ कहा जाता था। अटल ने मराठी सीख ली।
सन 1941 में ग्वालियर में उन्होंने संघ के ओटीसी का प्रथम वर्ष किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में स्वयंसेवकों के लिए प्रशिक्षण वर्ग चलते हैं जिन्हें पहले ऑफिसर्स ट्रेनिंग कैंप (ओटीसी) या अधिकारी शिक्षण वर्ग कहा जाता था। अब इन्हें संघ प्रशिक्षण वर्ग कहा जाता है। सन 1942 में लखनऊ से वाजपेयी ने द्वितीय वर्ष और 1943 में नागपुर से तृतीय वर्ष किया और शिक्षित स्वयंसेवक हो गए। फिर सन 1946 में प्रचारक के तौर पर उनकी नियुक्ति राष्ट्रधर्म प्रकाशन के काम के लिए हुई। फिर वाजपेयी ने 'वीर अर्जुन’ का संपादन किया। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के निजी सहायक का उत्तरदायित्व भी संभाला।
महाराष्ट्र में वीर सारवकर दर्शन प्रतिष्ठान के एक कार्यक्रम में वाजपेयी का भाषण यह समझने के लिए काफी हो सकता है कि वाजपेयी के मन में हिंदुत्व की विचारधारा बहती रही। वाजपेयी का अंदाजे-बयां देखना, समझना हो तो यह भाषण इसका बेहतर उदाहरण हो सकता है। वीर सावरकर के लिए वाजपेयी कहते हैं, 'सावरकर माने तेज, सावरकर माने त्याग, सावरकर माने तप, सावरकर माने तत्व, सावरकर माने तर्क, सावरकर माने तारुण्य, तीर, तलवार, तिलमिलाहट, सागर प्राण तड़मला, तिलमिलाती हुई आत्मा। तितिक्षा, तीखापन, तिखट। कैसा बहुरंगी
व्यक्तित्व है सावरकर का! कविता और क्रांति। मेरा सावरकर से पहला परिचय उनके कवि के रूप में ही हुआ था, लेकिन कविता और भ्रांति तो मैंने सुना था, कविता और क्रांति? कविता माने कल्पना, शब्दों के संसार का सृजन, ऊंची उड़ान, कभी धरातल से पांव उठ जाए, वास्तविकता से नाता टूट जाए तो शिकायत नहीं होती। लेकिन सावरकर ने यथार्थ की धरती से कभी नाता नहीं तोड़ा। उनमें ऊंचाई भी थी और गहराई भी।’ वाजपेयी ने कहा, 'अंडमान द्वीप की वह सेल्यूलर जेल की कोठरी मैंने देखी है। कोठरी के बाहर कोठरी में भी पहरा होता था। सावरकर जी को अपने जीवन का महत्वपूर्ण अंश तिल-तिल जल कर बिताना पड़ा, लेकिन उन्होंने कहा कि पराधीनता स्वीकार नहीं करूंगा।’ वाजपेयी ने बताया कि उन्होंने सावरकर की कुछ कविताओं का हिंदी अनुवाद किया है। कहा कि उन्हें आश्चर्य होता है कि वीर सावरकर ने किस तरह कल्पना और यथार्थ की सृष्टि का समन्वय किया।
सिर्फ वीर सावरकर ही नहीं, संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर के निधन के बाद अटल बिहारी ने श्रद्धांजलि देते हुए लिखा, 'पूजनीय गुरु जी का पार्थिव शरीर दर्शन के लिए कार्यालय के कमरे में रखा था। आज उन्होंने मुझे चरणस्पर्श करने से नहीं रोका। अपने पांव पीछे नहीं हटाए। सिर पर प्रेम से हाथ नहीं फेरा। प्यारभरी मुस्कान से नहीं देखा। हालचाल नहीं पूछा। वह अनंत निद्रा में निमग्न थे। हंस उड़ चुका था, काया के पिंजरे को तोडक़र पूर्ण में विलीन हो चुका था। लेकिन गुरु जी हमेशा रहेंगे। हमारे जीवन में, हमारे हृदयों में, कार्यों में। अग्नि उनके शरीर को जला सकती है, लेकिन हृदय, हृदय में उनके द्वारा प्रदीप्त प्रखर राष्ट्रप्रेम तथा निस्वार्थ समाजसेवा की चिंगारी को कोई नहीं बुझा सकता।’
महाराष्ट्र में शुरू से ही बीजेपी और संघ परिवार के साथ जुड़े रहे नितिन गडकरी कहते हैं, 'वाजपेयी बीजेपी के सिर्फ नेता नहीं हैं। आप नेता मानने की भूल करते हैं, तब सवाल खड़े होते हैं। वाजपेयी इस पार्टी की आत्मा हैं, ऑक्सीजन हैं। वह इस पार्टी की नींव की ईंट हैं जिसे आप उखाड़ नहीं सकते क्योंकि जानते हैं कि पूरी इमारत इस पर खड़ी है।’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वाजपेयी के बीच की दूरी या विरोधाभास पर गडकरी कहते हैं कि जब बलराज मधोक जनसंघ के अध्यक्ष थे और वह वाजपेयी के बारे में कुछ-कुछ बोलते रहते थे तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहकार्यवाह बालासाहेब देवरस ने ही मधोक को हटा कर वाजपेयी को जिम्मेदारी सौंपने का फैसला किया था। वाजपेयी संघ और उसकी विचारधारा से अलग नहीं थे लेकिन उनके काम करने का तरीका थोड़ा अलग रहा। वाजपेयी हमेशा चाहते रहे कि राम मंदिर का निर्माण हो, लेकिन उनके मन में था कि इस तरह का आंदोलन नहीं होना चाहिए।
मोदी सरकार के गृहमंत्री राजनाथ सिंह वाजपेयी को महानायक मानते हैं। राजनाथ सिंह के मुताबिक वाजपेयी से सीखा कि राजनीति केवल सरकार बनाने के लिए नहीं बल्कि राष्ट्र्र निर्माण के लिए करनी चाहिए और राजनीतिक क्षेत्र में काम करते हुए किसी भी स्तर पर मर्यादा का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए।
राजनाथ सिंह लंबे अरसे तक वाजपेयी के साथ संगठन और सरकार के काम करते रहे हैं। दसियों किस्से हैं और हर किस्सा वाजपेयी का कद बढ़ाता है। राजनाथ के मुताबिक सन 2006 में पार्टी ने दो हिस्सों में 'भारत सुरक्षा यात्रा’ निकालना तय किया। छह अप्रैल से शुरू होकर 10 मई 2006 तक चलने वाली इस यात्रा का नेतृत्व लोकसभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी और दूसरी तरफ राजनाथ सिंह करने वाले थे। आडवाणी को 6 अप्रैल को गुजरात में द्वारका से यात्रा शुरू करनी थी और 10 मई को दिल्ली आना था। इसी तरह राजनाथ सिंह को जगन्नाथ पुरी, उड़ीसा से रवाना होकर दिल्ली पहुंचना था। करीब साढ़े 11 हजार किलोमीटर की यात्रा 17 राज्यों से गुजरनी थी।
दोनों नेताओं की यात्रा पूरी होने के बाद आडवाणी के निवास पर इन यात्राओं के वीडियो कैसेट को जारी करने का कार्यक्रम रखा गया। इस कार्यक्रम में वाजपेयी मुख्य अतिथि थे और स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद वह पहुंचे। कार्यक्रम में पहले आडवाणी की यात्रा का वीडियो दिखाया गया। इसके बाद कुछ देर का ब्रेक था और फिर राजनाथ सिंह की यात्रा का वीडियो दिखाया जाना था, लेकिन वाजपेयी आडवाणी की यात्रा का वीडियो देखने के बाद तबियत खराब होने की वजह से घर लौट गए। कार्यक्रम खत्म होने के बाद जब राजनाथ घर पहुंचे तो वाजपेयी का फोन था। वाजपेयी ने कहा, 'राजनाथ जी मुझे माफ कर दीजिए। हमारी मजबूरी के कारण ये गलती हो गई।’ राजनाथ ने तुरंत कहा, 'जानता हूं आप मुझे बहुत प्यार करते हैं और आपका आशीर्वाद हमेशा मुझ पर रहेगा।’ किस्सा बताते-बताते भी राजनाथ की आंखों में वाजपेयी के लिए सम्मान झलक रहा था। उन्होंने कहा 'बड़े दिल का आदमी ही ऐसा कर सकता है और वही महानायक होता है।’
इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक वाजपेयी अपने विचारों को लेखों के माध्यम से ञ्जाी जाहिर करते रहे। सन 1960 में जनसंघ को लेकर वाजपेयी ने एक निबंध लिखा था। इसमें उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि जनसंघ कोई सांप्रदायिक या किसी धर्म विशेष की पार्टी नहीं है, इसके दरवाजे सभी धर्मों और वर्गों के लिए हमेशा खुले हैं। वाजपेयी ने लिखा कि जनसंघ किसी भी धर्म से जुड़ी राजनीति का विरोध करता है।
वाजपेयी का कहना था कि भारत विविधताओं से भरा देश है और यहां विचारधारा वाली पार्टी एक प्रेशर गु्रप के तौर पर भी काम कर सकती है लेकिन सत्ता में आने के लिए विचारधारा छोडऩी होगी और जमीनी हकीकत को समझना होगा। इस पर संघ में एक बैठक हुई। इस बैठक के समापन में संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर ने कहा, 'मैं ऐसा नहीं मानता।’ उन्होंने ब्रिटेन की लेबर पार्टी का उदाहरण देते हुए कहा, 'वह भी विचारधारा वाली पार्टी है जो सन 1930 में बनी और सन 1959 में उसने गठबंधन की सरकार बनाई और इसके दस साल बाद सन 1969 में अपने दम पर सरकार बनाई, तो सत्ता में आना स्थिति, परिस्थिति, मेहनत और कार्यकर्ताओं के कौशल पर निर्भर करता है। हो सकता है इसमें कुछ थोड़ा ज्यादा वक्त लगे।’ उस वक्त संघ के एक वरिष्ठ नेता और पत्रकार दीनानाथ मिश्र ने एक दस्तावेज तैयार किया था जिसका नाम था 'वृंदावन दस्तावेज।’ इसमें संघ को लेकर विस्तार से चर्चा की गई थी।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत इलाके में तब चौधरी चरण सिंह का राज हुआ करता था। जनसंघ का जमाना था। तय हुआ कि वाजपेयी की सभा वहां कराई जाए। पार्टी में दो मत थे, कुछ का मानना था कि वहां सभा कराने का कोई फायदा नहीं। ऐसा सुन कर वाजपेयी अड़ गए बोले, 'सभा करो, जरूर जाएंगे।’
सभा तय हो गई लेकिन वहां कोई जगह देने को तैयार नहीं, न सभा के लिए कोई सामान ही मौजूद था। फिर एक स्कूल से बेंच लेकर सभा की। जो लोग आए वे 'अटल बिहारी मुर्दाबाद’ के नारे लगा रहे थे और काले झंडे दिखा रहे थे लेकिन वाजपेयी ने बोलना शुरू किया तो कहा, 'जब हमारे यहां बच्चा सुंदर पैदा होता है तो उसे नजर से बचाने के लिए काला टीका लगाते हैं, जिसे टीकला कहते हैं तो ये लोग टीकला लगा रहे हैं।’ इतना सुनते ही विरोध करने वाले लोग भी सभा में ही बैठ गए।
संघ और बीजेपी से लंबे समय तक जुड़े रहे गोविंदाचार्य संघ परिवार से वाजपेयी के रिश्ते को बारीकी से समझाते हैं। उनके हिसाब से वाजपेयी का संघ से अलग तरह का रिश्ता रहा और कार्य पद्धति के स्तर पर वह बदलता गया। एक अहम सवाल उठाते हुए गोविंदाचार्य ने संघ और जनसंघ के रिश्तों और जनसंघ के कामकाज के तरीकों में थोड़ा-सा कनक्रयूजन देखा।
एक मजेदार किस्सा है। वाजपेयी सन 1957 में बलरामपुर से पहली बार लोकसभा के सांसद बने थे। तब मथुरा और लखनऊ के अलावा इस सीट को इसलिए चुना गया क्योंकि वह ब्राह्मïण बहुल सीट थी। उस वक्त जनसंघ का दक्रतर दिल्ली में अजमेरी गेट पर हुआ करता था। तब जगदीशप्रसाद माथुर और वाजपेयी पैदल ही संसद आते-जाते थे। जब सांसद के तौर पर पहली बार तनख्वाह मिली तो वाजपेयी बहुत खुश थे। जनपथ पहुंचकर वाजपेयी ने बताया कि आज पहली तनख्वाह मिली है, क्या किया जाए। दोनों ने कॉफी हाउस जाकर मसाला डोसा खाया और कॉफी पी, फिर कनॉट प्लेस से खादी भवन में जाकर जगदीश माथुर के लिए दो जोड़ी कुर्ता-पाजामा और खुद के लिए धोती कुर्ता खरीदा, पान खाया और पार्टी के दक्रतर अजमेरी गेट चले गए।
गोविंदाचार्य कहते हैं कि जनसंघ और लेक्रट पार्टियों की कार्यपद्धति में यही फर्क था। लेक्रट पार्टियों ने तो सन 1937 में इस सवाल पर बहस की थी कि उनके जनता के नुमाइंदों को मिलनेवाले पैसे या फिर उनके लिए पैसे का इंतजाम कैसे किया जाएगा। कितना पैसा पार्टी में रखा जाएगा और कितना सांसद, विधायक को मिलना चाहिए। लेकिन जनसंघ में पार्टी स्तर पर इस तरह की कोई कार्यपद्धति तय नहीं की गई। शायद इसलिए जब वाजपेयी को शिवकुमार सहायक के तौर पर मिले तो सवाल आया कि उनके खर्चे और वेतन का इंतजाम कैसे किया जाएगा। काफी वर्षों तक तो जयपुर से पार्टी के वरिष्ठ नेता और व्यवसायी रामदास अग्रवाल अपने खाते से इसका इंतजाम करते रहे।
कामकाज को लेकर भी कोई स्पष्ट नीति नहीं रही। कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं अपनाया गया। प्रचारक चुनाव लड़ेंगे या नहीं, यह तो तय नहीं हो पा रहा था। फिर तय हुआ कि प्रचारक चुनाव नहीं लड़ेंगे, लेकिन वाजपेयी को चुनाव लडऩे को कहा गया। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भी जौनपुर से चुनाव लड़ा लेकिन साफ कर दिया कि वह ब्राह्मïण के तौर पर वोट नहीं मांगेंगे। उनके खिलाफ राजपूत उम्मीदवार थे जो जातिगत समीकरणों का हिसाब-किताब बना रहे थे। नतीजा यह हुआ कि उपाध्याय चुनाव हार गए।
दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानवतावाद का विचार दिया। वह पूंजीवाद की चमक-दमक और साम्यवाद से देश का पीछा छुड़ाना चाहते थे। लेकिन तब तक भी पार्टी में नेताओं को एकात्म मानवतावाद से ज्यादा जरूरी लगा पार्टी को मान्यता दिलाना। यानी ज्यादा सीटें जीतना। सन 1964 की प्रतिनिधि सभा में एकात्म मानवतावाद का प्रस्ताव भी रखा गया।
संघ प्रमुख गोलवलकर ने सन 1966 में वाजपेयी को कुछ वजहों से प्रचारक के पद से मुक्त कर दिया और वह सिर्फ स्वयंसेवक रह गए इसलिए वह हमेशा खुद को संघ का स्वयंसेवक कहते भी रहे। लेकिन इस फैसले से वाजपेयी में असुरक्षा का भाव आया और संघ को लेकर भी मन में शायद थोड़ा विरोध-सा पैदा हुआ।
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि संघ के प्रचारक की जिम्मेदारी वापस लेने की एक प्रमुख वजह वाजपेयी का मिसेज कौल से रिश्ता रहा। मिसेज कौल से वाजपेयी की मुलाकात ग्वालियर के कॉलेज में हुई थी। तब उनका नाम राजकुमारी था। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक सन 1964 में राजकुमारी कौल ने अपने पति मिस्टर कौल से तलाक लेने का मन भी बना लिया था और वाजपेयी से शादी करने की बात भी हो गई थी। तब संघ के एक वरिष्ठ प्रचारक ने वाजपेयी से कहा कि इससे उनके राजनीतिक जीवन में बाधा आएगी और तब यह फैसला टाल दिया गया। मिसेज कौल और उनका परिवार वाजपेयी के साथ रहने तो लगा लेकिन यह तय हुआ कि मिसेज कौल कभी सार्वजनिक जीवन में सामने नहीं आएंगी और यह वादा उन्होंने आखिर तक निभाया भी।
संघ के वरिष्ठ नेता देवेन्द्र स्वरूप मानते हैं कि वाजपेयी संघ के कंधे पर चढक़र राजनीति की सीढिय़ां तो चढ़ते गए लेकिन संघ से दूरी भी बनाए रखे। आडवाणी हमेशा अपने सफर में संघ के योगदान का जिक्र करते हैं लेकिन वाजपेयी आमतौर पर ऐसा नहीं करते। सन 1967 में दीनदयाल जी के निधन के बाद वाजपेयी जनसंघ के अध्यक्ष बने और गांधीवादी समाजवाद को अपनाया और जब सन 1980 में बीजेपी बनाई तो झंडा भी जनसंघ का नहीं रखा।
देवेन्द्र स्वरूप के मुताबिक सन 1979 में ही उन्होंने एक लेख लिखकर संघ से अपने मतभेदों के बारे में इशारा किया था। यह कहते हुए 89 साल के देवेन्द्र स्वरूप की आवाज में थोड़ी तल्खी भी आती है। वे कहते हैं, 'वाजपेयी भारतीय संस्कृति से भी दूर ही रहे।’ मैंने सवाल किया, 'भारतीय संस्कृति से या संघ की विचारधारा से?’ उनके स्वर में नाराजगी बढ़ गई। कहा, 'क्या पर स्त्री गमन और गौ मांस भक्षण संघ की विचारधारा है?’
स्वरूप एक किस्सा सुनाते हैं। एक बार अमेरिका यात्रा पर एक प्रतिनिधि मंडल में वाजपेयी के साथ कांग्रेस की मुकुल बनर्जी थीं। एक सरकारी भोज में बीफ यानी गौ मांस भी परोसा जा रहा था। बनर्जी उनके बगल में बैठी थीं। उन्होंने कहा कि बीफ सर्व हो रहा है। वाजपेयी ने जवाब दिया, 'ये गाएं इंडिया की नहीं, अमेरिका की हैं।’
देवेन्द्र स्वरूप के मुताबिक संघ में वाजपेयी की आलोचना होती थी लेकिन संघ की मजबूरी थी कि वाजपेयी जैसा लोकप्रिय चेहरा उनके पास कोई और नहीं था। वाजपेयी के बारे में उस वक्त एक चुटकुला बहुत चलता था कि नेताजी ने दरियागंज में ब्लू फिल्म देखी, काके दी हट्टïी में मुर्ग मुसल्लम खाया और एसी कार में बैठकर भाषण देने पहुंचे और उनके गरीबी के शानदार भाषण पर जनता ने खूब आंसू बहाए।
वाजपेयी के बारे में उन्होंने यह भी कहा कि वाजपेयी ने कभी किसी को आगे नहीं बढऩे दिया। राज्यसभा में भी दत्तोपंत ठेंगड़ी और सुंदर सिंह भंडारी जैसे लोग पीछे ही रह गए। स्वरूप ने बताया कि सन 1965 में दीनदयाल जी ने बच्छराज व्यास को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। वाजपेयी तब विजयवाड़ा में हुई पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के अधिवेशन में नहीं गए।
अधिवेशन के बाद दीनदयाल उपाध्याय सीधे वाजपेयी के घर गए। अक्सर वह वहीं रुकते थे लेकिन उनसे इस सिलसिले में कोई बात नहीं की। वाजपेयी ने देवेन्द्र स्वरूप को फोन किया कि सिनेमा देखने चलते हैं। जब सिनेमा देखकर लौटे तो बोले कि दीनदयाल जी ने तो यह भी नहीं पूछा कि तुम क्यों नहीं आए। दरअसल दीनदयाल जी का काम करने का तरीका ही ऐसा था कि वह बिना कुछ कहे सब कुछ कह जाते थे।
एक बार वाजपेयी का बलराज मधोक के साथ झगड़ा हो गया। उस वक्त देवेन्द्र स्वरूप 'पांचजन्य’ के संपादन का काम देखते थे तो वाजपेयी शाम को उन्हें गाड़ी में अपने साथ ले जाते और एक स्टोरी दे देते जो विशेष संवाददाता के नाम से छप जाती। बलराज मधोक ने तो स्वरूप को वाजपेयी का चमचा घोषित कर दिया था और जब बिहार में पार्टी का अधिवेशन हुआ तो उन्होंने वाजपेयी के खिलाफ पर्चे बांटे। उनमें भी देवेन्द्र स्वरूप का नाम शामिल था। मधोक वाजपेयी को कम्युनिस्ट कहते थे।
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संघ के मुखपत्र माने जाने वाले 'राष्ट्रधर्म’ में सन 1974 के फरवरी अंक में वाजपेयी ने गुरु गोलवलकर की याद में एक लेख लिखा। उसी लेख में मुसलमानों पर संघ और गुरु गोलवलकर की राय पर राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक का जिक्र भी किया गया है। बैठक में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अध्यक्ष थीं, वाजपेयी सदस्य थे। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के तत्कालीन चांसलर फखरुद्दीन अली अहमद भी थे। इस बैठक में गुरु गोलवलकर की विचार-दर्शन की किताब वहां मंगाई गई। इस किताब में से एक अंश निकाल कर प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी ने कहा कि वाजपेयी जी इस अंश का अर्थ आप समझाइए।
वाजपेयी ने कहा, 'अगर इसका सच्चा अर्थ समझना है तो पूजनीय गुरु जी को निमंत्रण देकर यहां बुलाइए।’ श्रीमती गांधी कहने लगीं, 'इसका मतलब है कि जो अंश है इसमें मतभेद है।’ वाजपेयी ने कहा, 'नहीं, मेरा कोई मतभेद नहीं है लेकिन मैं पूरी व्याख्या नहीं कर सकता। थोड़ी-सी कमी रह जाएगी। इतने बड़े-बड़े नेता यहां बैठे हैं, कमी रहना ठीक नहीं है। उनको बुला लिया जाए।’
प्रधानमंत्री कहने लगीं, 'उनको बुलाना तो जरा मुश्किल है। इसका अर्थ आप समझाइए। इसका अर्थ यही है कि न कि हिंदुस्तान में मुसलमानों की जगह नहीं होगी।’
वाजपेयी ने कहा, 'यह कहां लिखा है?’
श्रीमती गांधी ने कहा, 'लिखा हुआ है कि मुसलमानों को राष्ट्र्रजीवन की मुख्यधारा के साथ अपने को विलीन करना चाहिए।’
वाजपेयी ने कहा, 'ठीक लिखा है।’ श्रीमती गांधी ने कहा, 'राष्ट्र जीवन की मुख्य धारा कौन-सी है?’ वाजपेयी ने कहा, 'अगर यहीं मतभेद है तो कोई भेंट उपयोगी नहीं होगी।’
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बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि वाजपेयी-आडवाणी के रिश्तों में भले ही कोई खटास नहीं आई हो लेकिन मुरली मनोहर जोशी और आडवाणी के रिश्तों में कड़वाहट बढ़ रही थी। जोशी ने अध्यक्ष बनते ही राज्यों में से आडवाणी के पसंदीदा माने जाने वाले नेताओं को हटाकर अपनी पसंद के लोगों को जिम्मेदारियां देना शुरू कर दिया। उस वक्त सबसे ताकतवर माने जाने वाले पार्टी महासचिव गोविंदाचार्य को उन्होंने लगभग तड़ीपार कर दिया और तमिलनाडु की जिम्मेदारी देते हुए चेन्नई में ही रहने के फरमान जारी कर दिए।
इसी दौरान सन 1992 में एक और विस्फोट हुआ, पार्टी में गोविंदाचार्य और एक महिला नेता के रिश्तों को लेकर खुलासा। उस पर भी काफी हंगामा चल रहा था। इस बीच गुजरात में बीजेपी की केंद्रीय कार्यसमिति की बैठक हुई। बैठक में हिस्सा लेने के लिए गोविंदाचार्य भी पहुंचे थे। मंच पर जोशी का अध्यक्षीय भाषण खत्म हुआ कि पार्टी के महाराष्ट्र से वरिष्ठ नेता राम नाईक खड़े हुए, माइक संभाला और कहा, 'अध्यक्ष जी, हमारे एक महामंत्री और एक महिला नेत्री के संबंधों को लेकर चर्चा चल रही है, सही स्थिति क्या है, स्पष्ट होनी चाहिए।’ तभी आडवाणी खड़े हुए और उन्होंने राम नाईक से माइक लेते हुए कहा कि गोविंदाचार्य मद्रास में रहेंगे, तमिलनाडु की जिम्मेदारी देखेंगे इसलिए अब इस पर कोई बात नहीं होगी। आडवाणी को टोकते हुए वाजपेयी बोले, 'नहीं आडवाणी जी केवल स्थानांतरण से काम नहीं चलेगा। संगठन के नाम और छवि पर असर पड़ता है और यहां कुछ लोग किसी को ऊंचा करने तो किसी को नीचा करने में लगे हैं। गोविंदाचार्य ने बीच में ही हाथ उठाते हुए कहा, 'मुझे भी इस बारे में कुछ कहना है।’ आडवाणी ने नाराज होते हुए कहा कि कुछ नहीं कहना है आप बैठिए, बैठ जाइए।
बैठते-बैठते गोविंदाचार्य बोले, 'जो वाजपेयी ने कहा है, वह गलत है।’ बैठक में माहौल एकदम गरमा गया। अध्यक्ष जोशी ने आधे घंटे के ब्रेक का ऐलान कर दिया। देवराज आप्टे ने गोविंदाचार्य को कहा कि अभी बाहर मत जाना, पूरा मीडिया है, झपट पड़ेंगे। कई साल बाद गोविंदाचार्य ने स्पष्ट किया कि वह उमा भारती से प्रेम करते थे और उनसे शादी करना चाहते थे लेकिन न तो उमा राजी हुईं और न ही संघ के पदाधिकारियों ने इसकी इजाजत दी। गोविंदाचार्य ने इस सिलसिले में बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी और संघ के नेता भाऊराव देवरस से बात की थी। आडवाणी का मानना था कि इससे दोनों नेताओं के सार्वजनिक जीवन पर असर पड़ेगा। इसके बाद 17 नवंबर 1992 को उमा भारती ने संन्यास ले लिया और तब गोविंदाचार्य ने उमा भारती के पैर छूकर उन्हें अपना गुरु मान लिया।
सन 1997 में मुखौटा विवाद हो गया। पार्टी के सबसे ताकतवर संगठन महासचिव माने जाने वाले नेता गोविंदाचार्य को विदा होना पड़ा। आमतौर पर विदेशी राजदूत और नेता बड़ी राजनीतिक पार्टियों के आला नेताओं से मिलते रहते हैं। राजदूतों को राजनीतिक पार्टियों की राय, उनकी ताकत और संभावनाओं, पार्टियों के एजेंडा, विदेश नीति वगैरह पर अपने मुल्क को रिपोर्ट भेजनी होती है। ऐसी ही एक मुलाकात हुई 16 सितंबर 1997 को। ब्रिटिश हाई कमीशन से दो लोगों ने संगठन महासचिव गोविंदाचार्य से मुलाकात की और राम मंदिर जैसे विवादास्पद मुद्दों सहित विदेशी निवेश कंपनियों, विदेश नीति आदि मुद्दों पर लंबी बातचीत की। यह भी पूछा गया कि पार्टी का अगला अध्यक्ष कौन हो सकता है। गोविंदाचार्य ने दस संभावित नाम लिए। उनमें वाजपेयी का नाम नहीं था। प्रतिनिधिमंडल ने सवाल किया, 'वाजपेयी का नाम क्यों नहीं है इस लिस्ट में?’
गोविंदाचार्य ने जवाब दिया, 'वाजपेयी हमारे पीएम पद के उम्मीदवार हैं और सबसे
ज्यादा लोकप्रिय हैं।’ बैठक खत्म हो गई। करीब तीन हक्रते बाद 6 अक्टूबर, 1997 को एक साथ ग्यारह हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में संघ विचारक रहे भानु प्रताप शुक्ल का सिंडिकेट लेख छपा। शीर्षक था, 'वाजपेयी मुखौटा हैं,’ गोविंदाचार्य।
लेख में गोविंदाचार्य और ब्रिटिश हाई कमिश्नर की मुलाकात का हवाला दिया गया था कि उस बातचीत में गोविंदाचार्य ने वाजपेयी को 'मुखौटा’ कहा था। सवाल खड़ा हुआ कि उस पार्टी के अनुशासन का क्या होगा, जिसमें वाजपेयी जैसे नेतृत्व पर इस तरह का हमला किया गया हो। आडवाणी ने गोविंदाचार्य सेे फोन पर पूछा। गोविंदाचार्य ने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। आडवाणी ने आदेश दिया कि फिर तुरंत इसका खंडन भेजिए। खंडन भेज दिया गया। दिन में चार बजे ब्रिटिश हाई कमीशन से फोन आया कि इस तरह की कोई बातचीत नहीं हुई थी तो यह कैसे छपा। गोविंदाचार्य ने उनसे कहा कि तो आप इसका खंडन भेज दीजिये। हाईकमीशन ने छह बजे खंडन भेज दिया और अगले दिन ज्यादातर अखबारों में दोनों खंडन छप गए।
'हिंदुस्तान’ के संपादक रहे आलोक मेहता ने बताया कि पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता ने गोविंदाचार्य की डायरी के कुछ पन्ने फोटोकॉपी कर लिए और पन्ने आलोक मेहता को दे दिए। आलोक मेहता ने अपने अखबार में डायरी के वह पन्ने छापे, जिससे हंगामा हुआ। गोविंदाचार्य को जानकारी थी कि किसने वे पन्ने उनकी डायरी से फोटो कॉपी किए हैं क्योंकि वह नोटिंग्स उन्होंने रेलयात्रा के दौरान गाड़ी में की थी और यह गोविंदाचार्य जानते थे कि उस सफर में उनके साथ कौन-कौन था। अगले दिन ज्यादातर अखबारों ने वे खंडन भी छाप दिए।
बात शायद खत्म होने ही वाली थी कि फिर 10 अक्टूबर को 'टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने वही खबर छाप दी। वाजपेयी उसी दिन विदेश यात्रा से लौटे थे। उन्होंने संघ प्रमुख के.सी. सुदर्शन को फोन किया और नाराजगी जताई तो सुदर्शन ने गोविंदाचार्य को फोन करके बताया कि वाजपेयी कह रहे हैं कि आपकी बातचीत का टेप है, रिकार्डिंग है। गोविंदाचार्य बोले, 'तब तो और भी अच्छा, सारी बात साफ हो जाएगी कि मैंने नहीं कहा।’ फिर वह टेप नहीं मिला। दरअसल टेप था ही नहीं। लेकिन वाजपेयी की गोविंदाचार्य को लेकर नाराजगी बढ़ती गई।
गोविंदाचार्य फिर मद्रास यानी चेन्नई चले गए। इसके बाद वह अध्ययन अवकाश पर जाना चाहते थे। तब तक बंगारू लक्ष्मण अध्यक्ष हो गए थे। बात सन 2000 की है। तीस जुलाई 2000 को संघ के वरिष्ठ नेता मदनदास देवी ने बंगारू लक्ष्मण को फोन किया कि वाजपेयी ने कहा कि गोविंदाचार्य को फिर से संघ में वापस ले लीजिए। इसके आधे घंटे बाद दिल्ली के संघ कार्यालय में बीजेपी के आला नेता कुशाभाऊ ठाकरे, बंगारू लक्ष्मण और प्यारे लाल संघ नेता मदनदास देवी से मिले। देवी ने कहा कि वाजपेयी कह रहे हैं कि उनकी बात नहीं मानी गई तो वह प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे। जब यह जानकारी गोविंदाचार्य को दी गई तो उन्होंने कहा, 'मैं काफी समय से अध्ययन अवकाश के लिए आग्रह कर रहा हूं वह आप मुझे दे दीजिए इससे दोनों की बात रह जाएगी। वाजपेयी बड़े नेता हैं, हमारा पक्ष भी सुन लीजिए, मैं वैसे भी राजनीति में नहीं रहना चाहता।’ ऐसी ही किसी घटना पर वाजपेयी ने कहा, 'राजनीति से हटने की बात तो बहुत कहते हैं, लेकिन हटता कोई नहीं।’
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि ब्रिटिश हाई कमिश्नर से बातचीत में वाजपेयी को मुखौटा कहने के बाद भी बात थोड़ी नरम पड़ गई थी, लेकिन एक घटना और हो गई जिससे वाजपेयी काफी नाराज हो गए और उन्होंने उसे मुद्दा बना लिया। सन 2000 में ही मुंबई में स्वदेशी जागरण मंच का अधिवेशन चल रहा था। उसमें वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने गोविंदाचार्य की मौजूदगी में वाजपेयी के लिए कहा कि इनसे ज्यादा निकम्मा प्रधानमंत्री मैंने नहीं देखा। कई लोगों ने वाजपेयी के कान भरे कि ऐसा बयान गोविंदाचार्य के इशारे पर या उनकी सहमति से ही दिया गया होगा। रूठे हुए वाजपेयी और नाराज हो गए।
इसके साथ ही आडवाणी, वेंकैया नायडू, प्रमोद महाजन और सुषमा स्वराज गोविंदाचार्य को पार्टी में किनारे करना चाहते थे क्योंकि उस वक्त गोविंदाचार्य की कार्यकर्ताओं में लोकप्रियता बहुत थी और पार्टी में बड़ा दबदबा था। आर्थिक विषयों पर गोविंदाचार्य और आडवाणी में सहमति नहीं बनती थी जबकि संघ को वह बड़े प्रिय थे। गोविंदाचार्य तब तक पार्टी के संगठन मंत्री थे और ज्यादातर नेताओं को लगता था कि वह जल्दी अध्यक्ष बन जाएंगे, तो उनके मित्रों के बजाय राजनीतिक दुश्मनों की तादाद तेजी से बढ़ रही थी। बंगारू लक्ष्मण के बाद जना कृष्णमूर्ति अध्यक्ष बने और उसके बाद वेंकैया नायडू।
बीजेपी और संघ में वरिष्ठ रहे नेता का मानना था कि वेंकैया नायडू को गोविंदाचार्य आंखों में किरकिरी जैसे लगते थे। उन्होंने तय किया कि गोविंदाचार्य को किनारे लगाया जाए। उस वक्त तक गोविंदाचार्य बीजेपी की नेशनल एक्जीक्यूटिव के सिर्फ सदस्य रह गये थे। वेंकैया ने अध्यक्ष बनने के बाद जब अपनी लिस्ट बनाई और अंतिम स्वीकृति के लिए वाजपेयी के पास लेकर गए और कहा कि गोविंदाचार्य का नाम रखें या रहने दें? वाजपेयी ने कहा, 'तुम देख लो।’ फिर वह आडवाणी के पास गए और कहा कि वाजपेयी ने गोविंदाचार्य का नाम बाहर रखने के लिए कहा है तो आडवाणी ने सोचा मैं क्यों झगड़े में पडूं। उन्होंने कहा कि ठीक है। उस वक्त संघ के वरिष्ठ नेता मदनदास देवी बीजेपी के प्रभारी थे, उन्होंने वेंकैया से पूछा कि लिस्ट में गोविंदाचार्य का नाम क्यों नहीं है? जवाब मिला कि वाजपेयी और आडवाणी दोनों ने उनका नाम हटा दिया है। जब देवी ने वाजपेयी और आडवाणी से बात की तो सारी बात समझ आ गई। इसके बाद देवी ने कहा कि एक संशोधन की सूचना देकर गोविंदाचार्य का नाम लिस्ट में डाल दिया जाए तो वेंकैया ने तर्क दिया कि इससे आडवाणी और वाजपेयी के बीच टकराव की खबर जोर पकड़ेगी और आखिरकार गोविंदाचार्य बाहर हो गए।
दिल्ली की लुटियंस जोन में एक पांच सितारा होटल में वाजपेयी के साथ रहे कंचन दासगुप्त से बात हो रही थी। कंचन बताते हैं कि संघ के मुखपत्र 'पांचजन्य’ में काफी दिनों से वाजपेयी के खिलाफ लेख और खबरें छप रही थीं। वह उसे नजरअंदाज कर रहे थे। फिर गोविंदाचार्य के हवाले से भानुप्रताप शुक्ल का लेख छप गया जिसमें वाजपेयी को 'मुखौटा’ कहा गया था। इसके बाद भी जब उनके खिलाफ दुष्प्रचार का सिलसिला चलता रहा तो एक दिन वाजपेयी ने आडवाणी को कहा कि वे लोग आपको बदनाम कर रहे हैं क्योंकि कुछ लोग मानते हैं कि आपकी पसंद के लोग यह सब करवा रहे हैं, तो बदनामी आपकी हो रही है। आडवाणी ने तुरंत फोन उठाकर बात की, खबरें और लेख छपना बंद हो गए, लेकिन वाजपेयी की गोविंदाचार्य से नाराजगी कम नहीं हुई।
वाजपेयी आमतौर पर संगठन के कामकाज और पदाधिकारियों की नियुक्ति में दखल नहीं देते थे। किसी का नाम जोडऩा हो तो बता देते थे। उस वक्त कुशाभाऊ ठाकरे अध्यक्ष थे। बीजेपी के नए पदाधिकारियों के नाम तय होने थे। वाजपेयी ने कुशाभाऊ को कहा कि सूची जारी करने से पहले मुझे दिखा देना, कुशाभाऊ के लिए इतना इशारा काफी था। कुशाभाऊ पीछे-पीछे चलते हुए बोले, 'सुन तो लीजिए आप, उन्हें उपाध्