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घरेलू और विदेशी रक्षा कंपनियों में होड़

रक्षा सौदे में सौ फीसद प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रनवे से कौन-कौन भरेगा उड़ान, कौन-कौन ले आ सकेगा ‘आधुनिक तकनीक’
मेक इन इंडिया को गति देने के प्रयास में है मोदी सरकार

‘मेक इन इंडिया’ अभियान का दारोमदार काफी हद तक रक्षा क्षेत्र पर टिका है इसीलिए मोदी सरकार ने अपने इस महत्वाकांक्षी अभियान को गति देने के लिए रक्षा क्षेत्र में 100 फीसद तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का रास्ता खोल दिया है। सरकार ने उस शर्त को शिथिल कर दिया है जिसके तहत ‘स्टेट ऑफ आर्ट’ टेक्नोलॉजी के साथ ही कोई कंपनी 49 फीसद से ज्यादा निवेश कर सकती थी। अब इसे ‘स्टेट ऑफ आर्ट’ की जगह मॉडर्न टेक्नोलॉजी कर दिया गया है। तात्पर्य यह कि इस क्षेत्र में स्वत: मंजूर मार्ग (ऑटोमेटिक रूट) से तो एफडीआई की सीमा अब भी 49 फीसद ही है किंतु सरकार की मंजूरी से कोई कंपनी 100 फीसद तक निवेश कर सकती है, बशर्ते मॉडर्न टेक्नोलॉजी की शर्त को पूरा करती हो। हालांकि सरकार के फैसले का उद्योग जगत ने स्वागत किया है लेकिन मॉडर्न टेक्नोलॉजी या आधुनिक तकनीक का दायरा क्या है या उसकी परिभाषा क्या है, इसको लेकर दुविधा भी है।

जानकार सवाल करते हैं कि कौन सी टेक्नोलॉजी मॉडर्न है और कौन सी नहीं, यह कैसे तय होगा। रक्षा विशेषज्ञ कमोडोर (सेवा निवृत्त) सुजीत समाद्दार कहते हैं, ‘इसमें कोई विवाद ही नहीं है। अगर कोई कंपनी आज आकर मिग-21 बनाना शुरू करे तो क्या हम बोलेंगे कि मॉडर्न टेक्नोलॉजी है, नहीं न। हां, यदि वह सुखोई 30 बनाए तो हम कहेंगे कि हां यह मॉडर्न टेक्नोलॉजी है। कोई भी कंपनी पुरानी टेक्नोलॉजी में इन्वेस्ट क्यों करेगी? उसे भी तो अपने उत्पाद बेचने हैं। इसमें बहस की गुंजाइश ही कहां बचती है। रक्षा मंत्रालय तय करेगा कि मॉडर्न टेक्नोलॉजी है या नहीं।’

यह तो साफ है कि सैन्य तकनीक के मामले में हम बहुत से देशों से पीछे हैं। हालत यह है कि पिछले कुछ वर्षों से सबसे ज्यादा हथियार आयात करने वाले देश का तमगा हमें मिला हुआ है। देश की रक्षा जरूरतों का कमोबेश साठ फीसद से ज्यादा हिस्सा आयात पर निर्भर है। ऐसा नहीं है कि रक्षा उत्पादन में कोई प्रयास नहीं हुए लेकिन कुछ तो संसाधनों और कुछ इच्छा शक्ति की कमी से लक्ष्य से दूरी बनी रही है। ले-देकर सेना की जरूरतें सार्वजनिक उपक्रमों और आयात पर निर्भर रही हैं। केंद्र में जब से मोदी सरकार सत्ता में आई है तब से इस दिशा में प्रयास तेज होने शुरू हुए हैं। सत्ता संभालने के चंद दिन बाद ही मोदी सरकार ने रक्षा क्षेत्र में ऑटोमेटिक रूट से एफडीआई की सीमा 26 फीसद से बढ़ाकर 49 फीसद कर दी। लेकिन नतीजे उत्साहवर्धक नहीं रहे। अगस्त 2014 से फरवरी 2016 के बीच रक्षा क्षेत्र में सिर्फ 112.35 लाख रुपये का निवेश आया। स्पष्ट है एफडीआई सीमा में वृद्धि भी विदेशी निवेशकों में आकर्षण की वजह नहीं बन पाई। जानकारों का कहना है कि रक्षा क्षेत्र में मुनाफे की स्थिति कई बरसों के बाद आती है इसलिए कोई भी कंपनी बिना मालिकाना हक के जल्दी से निवेश करने के लिए तैयार नहीं होती।

महीनों की माथापच्ची और चिंतन के बाद अब जबकि सरकार ने एफडीआई नियम में ढील दे दी है तो क्या स्थिति बदलेगी? रक्षा विश्लेषक पीसी त्रिपाठी कहते हैं, ‘जिन कंपनियों के पास टेक्नोलॉजी है वे स्वामित्व चाहती हैं। अब चूंकि रास्ता खुल गया है इसलिए अब ऐसी कंपनियां निवेश के लिए आगे आएंगी।’ सुजीत समाद्दार कहते हैं, ‘कोई भी कंपनी वहां निवेश करती है, जहां उत्पादन लागत कम आए। हमारे यहां मजदूरी सस्ती है लेकिन कर ढांचे को तर्कसंगत बनाने और निर्णय लेने की प्रक्रिया में तेजी लाने की जरूरत है।’

विदेशी कंपनियां, जैसी कि उम्मीद की जा रही है, अगर भारत आती हैं तो रक्षा क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा का नया दौर शुरू होगा। यह सही है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास इतने ऑर्डर हैं कि उन्हें पूरा करने में कई वर्ष लग जाएंगे, लेकिन प्रतिस्पर्धा की आहट उन्हें सुनाई देनी लगी है। डीआरडीओ के महानिदेशक एस. क्रिस्टोफर अपने संगठन को प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करने में जुट गए हैं। वह मानते हैं कि किसी भी दिन कोई विदेशी कंपनी उनकी प्रतिस्पर्धा में आ सकती है और इसके लिए उन्हें तैयार रहना होगा।

सार्वजनिक कंपनियों को चुनौती सिर्फ विदेशी कंपनियों से ही नहीं, घरेलू निजी कंपनियों से भी मिलेगी। ‘मेक इन इंडिया’ को सफल बनाने के लिए सरकार की प्रोत्साहन नीति से रक्षा क्षेत्र में कई निजी कंपनियों ने अपना विस्तार किया है। लारसन एंड टूब्रो, टाटा, महिंद्रा और रिलायंस कंपनियां कहीं संयुक्त उपक्रम में तो कहीं अपने बूते रक्षा क्षेत्र में संभावना तलाश रही हैं। रक्षा क्षेत्र में अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस तेजी से उभरी है। रिलायंस डिफेंस रिलायंस इन्फ्रास्ट्रक्चर की आनुषंगिक इकाई है। अनिल अंबानी का पिछला एक साल 10 देशों में अलग-अलग रक्षा कंपनियों के साथ साझेदारी के समझौते करने में ही बीता है। उन्होंने दुनिया भर में 30 करार किए हैं। माना जा रहा है कि अनिल अंबानी अपनी रिलायंस डिफेंस को क्रलैगशिप कंपनी में तब्दील करने की योजना पर काम कर रहे हैं। गत जनवरी में पीपावाव डिफेंस का अधिग्रहण करने वाले रिलायंस डिफेंस के पास रक्षा क्षेत्र में सर्वाधिक परमिट है। रिलायंस को ये लाइसेंस हेलीकॉप्टर, एयरक्राफ्ट, यूएवी (मानव रहित विमान), भारी हथियार, सशस्त्र वाहन, गोला-बारूद, इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम तथा निर्देशित ऊर्जा हथियार प्रणाली जैसे विभिन्न प्रकार के उच्च प्रौद्योगिकी वाले उपकरण बनाने के लिए मिले हैं।

हालांकि निजी कंपनियों की शिकायत रही है कि उन्हें पर्याप्त मौके नहीं मिलते। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने डिफेंस एक्सपो में कहा था, ‘हम ऐसी इंडस्ट्री बनाएंगे जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र और विदेशी कंपनियों सभी के लिए जगह होगी।’ सौ फीसद एफडीआई का फैसला उसी ओर बढ़ा कदम माना जा सकता है।

विशेषज्ञों के मुताबिक भारतीय कंपनियों के लिए यह चुनौती और अवसर दोनों हैं। पीसी त्रिपाठी कहते हैं, ‘विदेशी कंपनियों का प्रवेश घरेलू कंपनियों को नई खोज, शोध और अनुसंधान के लिए प्रेरित करेगा।’ यह आशंका सही नहीं है कि विदेशी कंपनियों से घरेलू कंपनियों को धक्का लगेगा। आज बड़ी से बड़ी कंपनी भी हर चीज खुद नहीं बना रही है। कंपोनेंट, सब कंपोनेंट बनाने के लिए उन्हें भारतीय कंपनियों से गठजोड़ करना ही होगा। कार कंपनियों का उदाहरण सामने है। अस्सी के दशक में सुजुकी कंपनी के प्रवेश के साथ नए दौर की शुरुआत हुई थी। सुजुकी कंपनी के आने से कई घरेलू कंपनियां पनपीं और हजारों लोगों को रोजगार मिला। आज देश में न सिर्फ कई कंपनियां कारें बना रही हैं, अपितु निर्यात भी कर रही हैं।

रक्षा क्षेत्र में मोदी सरकार कुछ ऐसी ही कहानी दोहराना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मानना है कि रक्षा आयात में 20-25 फीसद की कमी से 1.2 लाख नौकरियों का सृजन हो सकता है वह भी हुनरमंद लोगों के लिए। केंद्रीय रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर कहते हैं, ‘जब हमारी सरकार सत्ता में आई थी। रक्षा आयात लगभग 70 फीसद था जो अब 60 फीसद से नीचे आ गया है। मैं आपको आश्वस्त कर सकता हूं कि राजग सरकार का मौजूदा कार्यकाल जब समाप्त होगा, तब तक रक्षा आयात 40 फीसद पर ले आएंगे।’ रक्षा मंत्री के अनुसार, ‘भारत फिलहाल रक्षा पर तीन लाख 40 हजार करोड़ रुपये सालाना खर्च कर रहा है। इतना खर्च करने के बावजूद यह जरूरी नहीं कि गोला-बारूद के जो हमारे विदेशी सप्लायर हैं, वे युद्ध की नौबत आने पर आपूर्ति जारी ही रखेंगे। इस बात को ध्यान में रखते हुए भी हमें तैयार रहना होगा।’

पर इस सबके बीच राजनीतिक विरोधियों और संगठनों से पार पाना मोदी सरकार के लिए किसी भी चुनौती से कम नहीं होगा। कांग्रेस संसद में दो-दो हाथ करने का एलान कर ही चुकी है तो स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ भी इस मुद्दे पर सरकार को घेरने का मन बना चुके हैं। क्या मोदी सरकार इन चुनौतियों से पार पा सकेगी?

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