सं सद का शीतकालीन सत्र शुरूहोने से पहले लोकसभा सचिवालय ने मीडियाकर्मियों के लिए नए दिशा-निर्देश जारी किए, जिसको लेकर कोई खास हो-हल्ला तो नहीं मचा लेकिन जो निर्देश हैं उसके दूरगामी संकेत हैं कि अब खबरनवीसों पर बंदिश की तैयारी शुरू हो गई है। अब संसद परिसर में मंत्री और सांसद के अलावा किसी राज्य के मुख्यमंत्री, पूर्व सांसद, विधायक या किसी अन्य हस्ती सेन तो वे बातचीत कर सकते हैं और न ही फोटो खींच सकते हैं। अगर ऐसा करना है तो पहले लोकसभा के पद्ब्रिलक रिलेशन विंग से आपको अनुमति लेनी होगी। बिना अनुमति के अगर आप किसी से बात करते हुए पकड़े गए तो दो दिन के लिए संसदीय रिपोर्टिंग से सस्पेंड किया जा सकता है। लोकसभा सचिवालय के प्रेस और पद्ब्रिलक रिलेशन्स विंग की ओर से जारी दिशा-निर्देश में बड़े पैमाने पर क्या करें और क्या न करें की बातें कही गई हैं। हालांकि, संसदीय सचिवालय के अधिकारी इसमें कोई नई बात होने से इनकार कर रहे हैं। गाइडलाइंस में यह भी कहा गया है कि मंत्रियों और सांसदों का इंटरव्यू लेने के लिए मीडियाकर्मियों को उनसे पहले से ही मिलने का समय लेना होगा। और इसके लिए मीडिया के तय नियामकों का उन्हें पालन करना होगा। इसके अलावा मंत्रियों सांसदों का इंटरव्यू करने के लिए कहां कैमरा लगाया जाएगा इसके लिए भी लोकसभा सचिवालय ने दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
इस दिशा-निर्देश से एक बात तो साफ हो गई है कि सरकार खबरनवीसों को बहुत ज्यादा छूट देने के मूड में नहीं है। सूचना के लिए अब पत्रकारों के पास बहुत ज्यादा गुंजाइश नहीं रह जाएगी। संसद सत्र के दौरान बहुत से पत्रकार परिसर में इसलिए जाते हैं कि रिपोर्टिंग के साथ-साथ जो अन्य प्रमुख हस्तियां आएंगी उनसे मुलाकात भी हो जाएगी और कुछ चर्चा हो जाएगी। लेकिन इस तरह की बंदिश के बाद अब मीडियाकर्मी किसी से बात करने से भी कतराएगा। आम तौर पर सत्र के दौरान कई राज्यों के वर्तमान या पूर्व मुख्यमंत्री, पूर्व राज्यपाल, पूर्व केंद्रीय मंत्री, पूर्व सांसद, राज्यों के मंत्री संसद परिसर में आते हैं और लोगों से मिलते हैं। लेकिन इस दिशा-निर्देश के बाद एक डर का माहौल बन गया है। सवाल तब और बड़ा हो जाता है जब संसद की प्रेस दीर्घा की सलाहकार समिति में वरिष्ठ पत्रकार शामिल हैं। लगता है कि उनकी अभिव्यक्ति पर भी अंकुश है।
इस तरह की बंदिश से एक बात साफ हो गई कि सरकार मीडिया के कामकाज पर भी नजर रखेगी और अपनी कमियों को उजागर नहीं होने देगी। संसद सत्र लंबे समय से कवर कर रहे पत्रकारों को भी कार्ड बनवाने में असुविधा हो रही है। उनसे कई तरह के सवाल किए जा रहे हैं कि आप कहां लिखते हैं, क्या करते हैं। जबकि देखने में यह आया है कि कई पत्रकार ऐसे हैं जो संसदीय रिपोर्टिंग कर रहे हैं लेकिन वे कौन से संस्थान में काम करते हैं या फिर उनके संस्थान मानक को तय करते हैं कि नहीं इसका भी ख्याल नहीं रखा जाता।
संसद के अलावा मीडिया से जुड़े अन्य संस्थानों में भी सरकार की खामियां साफ तौर पर नजर आने लगी है। पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) द्वारा मान्यता प्राप्त संपादक के लिए पिछले दो साल से कोई गाइडलाइन नहीं तैयार हो पाई है। स्वतंत्र पत्रकार के तौर पर मान्यता हासिल करने वाले पत्रकारों को भी परेशान किया जा रहा है। जबकि कई ऐसे लोगों को मान्यता दे दी गई है जिनका कोई पत्रकारीय सरोकार नहीं है। पत्र सूचना कार्यालय के सूचना अधिकारियों से बात करने पर भी प्रतिबंध सा लगा दिया गया है। सूचना एवं प्रसारण मंत्री वेंकैया नायडू तो निष्पक्षता की बात करते हैं लेकिन उनके ही अधीन कई विभागों के कर्मचारी कामकाज को लेकर नाखुशी जाहिर करते हैं। पत्र सूचना कार्यालय द्वारा पत्रकारों को मान्यता प्रदान की जाती है, ताकि वे केंद्र सरकार के अधीन संस्थांनों में जाकर समाचार संकलन कर सकें। लेकिन कई मंत्रालय ऐसे हैं जहां इस कार्ड का कोई महत्व नहीं है। सूचना एकत्र करने के लिए अगर मान्यता प्राप्त पत्रकार इन कार्यालयों में जाए तो भी सुरक्षाकर्मी साफ तौर पर कहते हैं कि आप अधिकारी से बात करवाएं तभी आपको अंदर जाने की अनुमति मिलेगी।
दूरदर्शन और आकाशवाणी में चर्चा-परिचर्चा में भाग लेने वाले लोगों के अलावा कांट्रैक्ट पर काम करने या फिर इनके लिए कार्यक्रम बनाने वालों को महीनों से पेमेंट नहीं मिला है। जब पेमेंट के बारे में पूछा जाता है तो कहा जाता है कि बजट नहीं है। दूरदर्शन और आकाशवाणी के कई कर्मचारियों के खिलाफ मामले भी चल रहे हैं लेकिन उन पर किसी तरह की कार्रवाई नहीं हो रही है।
कहने को तो मॉनीटरिंग के लिए प्रसार भारती का गठन किया गया है लेकिन इसमें जो नियुक्तियां हुईं उसी पर सवाल उठने लगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र आर्गेनाइजर के पूर्व संपादक शेषाद्रिचारी का संघ से पुराना नाता रहा। जब प्रसार भारती बोर्ड के लिए सदस्यों का चयन किया जाना था तो शेषाद्रिचारी का नाम सुर्खियों में आया। बकायदा फोन करके उनका बायोडाटा भी मांग लिया गया। लेकिन जब सूची निकली तो उनका नाम गायब था। प्रसार भारती में बैठे लोग भी बेबस हैं।
किसानों की सुध लेने वाली सरकार ने किसान चैनल शुरू किया। लाखों रुपये पानी की तरह बहाए गए। संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के प्रमुख नरेश सिरोही को इसकी जिम्मेवारी सौंपी गई। सिरोही की ग्रामीण पृष्ठभूमि, खेती की समझ और संघ से नाता होने ने चैनल प्रमुख बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक साल के भीतर इसकी टीआरपी बढऩी शुरू हो गई। लेकिन अचानक एक दिन सिरोही को हटा दिया गया। लोगों ने जो चैनल के लिए कार्यक्रम तैयार किए थे उनका पैसा फंस गया। कई लोगों पर नौकरी जाने का खतरा मंडराने लगा है। आज इस चैनल की सुध लेने वाला कोई नहीं है। किसानों के नाम पर शुरू किए गए इस चैनल पर अब बॉलीवुड तडक़ा दिखाया जा रहा है।
लोकसभा टीवी में भी अराजकता का माहौल साफ तौर पर दिखाई पड़ रहा है। यहां के कार्यक्रमों में शिरकत करने वाले विशेषज्ञों को जहां पेमेंट देर से मिल रहा है वहीं कार्यक्रम में भाग लेने वाले मेहमानों की सूची में भी बड़ा बदलाव किया गया है। राज्यसभा टीवी की स्थिति तो और भी बदहाल है। वहां काम करने वाले हर कर्मचारी के मन में डर बना हुआ है कि उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का कार्यकाल खत्म होते ही उनकी भी छुट्टी कर दी जाएगी। क्योंकि यह चैनल हामिद अंसारी के ही कार्यकाल में शुरू हुआ और अगले साल उनका कार्यकाल खत्म हो रहा है। इसलिए महीनों पहले से संसदीय सचिवालय के बाबू हर प्रस्ताव और खर्च पर ऊट-पटांग आपत्ति उठा कर रोक रहे हैं।
सूचना मुहैया कराने वाले मीडियाकर्मियों पर सरकार किस तरह से अंकुश लगाती जा रही है यह तो इसका एक नमूना भर है। हाल ही में एनडीटीवी पर एक दिन का प्रतिबंध लगाने की घटना ने भी लोगों का ध्यान आकर्षित किया। सूचना प्रसारण मंत्रालय भले ही लाख दावे करे कि सबकुछ निष्पक्ष हो रहा है लेकिन जिस तरह की घटनाएं घट रही हैं उससे तो कुछ न कुछ अंदेशा नजर आ रहा है कि सूचना तंत्र पर पहरा बिठाने की कवायद चल रही है।