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प्रतिरूप

स्त्री उत्पीडऩ, कामुकता हिंसाचार और मीडिया विषय पर पुस्तक प्रकाशित। आचार्य गिरीश चंद्र बोस कॉलेज में अध्यापनरत हैं। नई कहानियों से पाठकों का ध्यान खींच रही हैं।
ग्राफिक

मैं तुम्‍हें पहले से जानती थी, हालांकि मुलाकात नहीं हुई थी। जब पहली बार फेसबुक पर तुम्‍हारी तस्वीर देखी थी तब दूसरे मर्दों की तरह ही लगे थे। तुम्‍हारे चेहरे में नयापन जैसा कुछ नहीं था। तस्वीर में तुम मुझे ज्यादा ही गंभीर लगे थे। वह तस्वीर शायद जर्मनी में खींची गई थी। तुम किसी प्रोजेक्‍ट के सिलसिले में वहां थे।मुझे तुम्‍हारे लौटने का इंतजार था क्‍योंकि एक प्रोजेक्‍ट में मुझे तुम्‍हारे साथ मिल कर काम करना था। हम एक ही टीम में थे। लौटने के कुछ दिनों बाद मैंने तुमसे चैट की थी। प्रोफेशनल चैट। व्यक्तिगत होता भी कैसे? हम दोनों एक-दूसरे को तब जानतेे, पहचानते नहीं थे। फिर एक दिन तुम्‍हारा फोन आया। पहली बार तुमसे फोन पर बात की। सच कहूं मुझे तुम्‍हारी आवाज पसंद नहीं आई थी। आवाज कुछ ज्यादा ही भारी थी।

धीरे-धीरे हमारी बातचीत व्यक्तिगत स्तर पर होने लगी। हम एक-दूसरे से घुलमिल रहे थे। तुम मुझे हमेशा अलग-अलग नामों से संबोधित किया करते। कभी मुझे मीता कहते, तो कभी शर्मिला। जबसे तुम्‍हें मेरा निकनेम पता चला था, तबसे लगातार कई दिनों तक तुम मुझे पिंका कहते रहे। जब भी तुम मुझे पिंका कहते मुझे लगता जैसे पहली बार कोई इस नाम से मुझे पुकार रहा है और एक दिन हठात् तुमने मुझे परी कह दिया। तुम्‍हारे इस नए संबोधन से मैं खुशी से झूम उठी थी। खुद को परी ही समझने लगी थी। तुम मुझे बराबर अहसास दिलाते रहते थे कि मैं दिव्य और अलौकिक हूं। मेरे जीवन में तुम पहले इनसान थे जिसने मुझमें अनंत संभावनाओं को देखा था। नाम, शोहरत, चकाचौंध की दुनिया में तुम मेरे लिए नींव का काम कर रहे थे जबकि खुद तुम्‍हारा जीवन व्यस्तताओं से घिरा हुआ था। मैं तुम्‍हें समझ नहीं पाती, किस माटी के बने हो तुम? इस दुनिया में जहां हर व्यक्ति दूसरे को धक्‍का देकर खुद आगे निकलने की फिराक में लगा हुआ है, तुम मेरे लिए मंजिल तक पहुंचने के रास्ते बना रहे थे। तुम हमेशा मुझे प्रोत्साहित करते थे।  

तुम मुझे इस दुनिया की भीड़ का हिस्सा नहीं लगते। तुम्‍हारी तस्वीर में छुपा वह चेहरा जो मुझे बाकी के हजार चेहरों जैसा लगा था, आज सबसे अलग और प्यार भरा लगता है, किसी बच्चे की तरह मासूम और निश्छल। तुम्‍हारी वह आवाज जो पहले पहल मुझे कुछ भारी लगी थी, अब उसी आवाज में कशिश का अहसास होता है। तुमसे पहली मुलाकात भी नहीं भूलती मैं। तुम एक कार्यक्रम में स्टेज की ओर जा रहे थे, तब ऐसा लग रहा था जैसे तुम्‍हारे चलने से एक लय, एक सुर का संचार हो रहा था। दो महीनों तक चैट करने के बाद तुमसे मिलना किसी सुखद अनुभूति से कम नहीं था। उस दिन कार्यक्रम में जब मैं पहली बार तुमसे मिली थी, तब यकीन नहीं हो रहा था कि तुम्‍हें साक्षात देख पा रही हूं। तुम्‍हारे शहर में मैं सिर्फ एक दिन के लिए गई थी और उस एक दिन हम लगभग घंटे भर या उससे कुछ अधिक समय के लिए ही मिल पाए थे। हम कॉफी हाउस में बैठे थे। तुम मेरी बातें सुनकर, बीच-बीच में ठहाका लगाकर जोर-जोर से हंस रहे थे। मेरा चंचल व्यक्तित्व तुम्‍हें पसंद आया था और मुझे तुम्‍हारी जिंदादिली। उस दिन तुमने मुझसे कहा था, 'घर में तुम्‍हें संभालने के लिए कितने लोग लगते हैं, तुम्‍हें अकेले संभालना तो किसी के वश में नहीं।’ तुम्‍हारी बातें सुनकर मैं मुस्करा रही थी। जानते हो उस दिन मुझे तुम्‍हारी आंखों में एक काली छाया नजर आई थी, जैसे इस काली छाया के पीछे कोई वेदनामय संसार छिपा हुआ है। मुझे तुम्‍हारी वह तस्वीर याद आ गई जिसमें तुम गंभीर नजर आते थे। शायद इस हंसमुख और ऊर्जावान व्यक्तित्व के पीछे कोई और आदमी छुपा हुआ था। कॉफी-हाउस से निकलते समय मैं तुम से लिपट गई थी, तुमने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, 'भावुक होना कमजोरी की निशानी है।’ मुझे एयरपोर्ट छोड़ते वक्‍त तुमने मेरी पेशानी को चूमा था, किसी अभिभावक की तरह। मैं रो दी थी। उस वक्‍त नहीं जानती थी कि तुमसे हमेशा के लिए बिछड़ रही थी। हवाई जहाज की खिडक़ी से टेक लगाए मैं तुम्‍हारी यादों को हृदय में समेटकर बादलों को निहार रही थी। सोच रही थी कि इन्हीं बादलों के बीच तुम्‍हारे साथ अपना घर बना लूं।

हम दोनों में से किसी को भी अपने प्रेम का इजहार करने की जरूरत नहीं पड़ी थी। कहने की जरूरत भी नहीं थी। क्‍या भाव शब्‍दों से ज्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। तुम्‍हारी आंखें की उत्सुकता और मेरी आंखों की बैचेनी की भाषा हम दोनों खूब पढ़ गए थे उस दिन। मुझे पता था कि तुम विवाहित हो और तुम्‍हारी दस साल की बिटिया है। यह जानने के बाद ही शायद मैंने तुम्‍हारी आंखों की उस काली छाया को स्पष्ट रूप से पढऩा सीख लिया था। इसलिए जब तुमने मेरे होंठ के बजाय पेशानी चूमी तो मुझे जरा आश्चर्य नहीं हुआ। उस चुंबन में प्रेम से ज्यादा सांत्वना थी। हमने इस बारे में कभी बात नहीं की पर मुझे अंदाजा है कि तुम अपने वैवाहिक जीवन से नाखुश थे। अपने भरे-पूरे परिवार में रहते हुए भी अकेले। यह तुम्‍हारी लियाकत ही थी जो तुम उस सामाजिक संबंध को शांति से निभा रहे थे जो तुम्‍हारे लिए बंधन बन गया था। तुम जीवन नहीं जिम्‍मेदारियां जी रहे थे। खुशी के बजाय सामाजिक मूल्य, परंपराएं और रीति-रिवाज तुम्‍हारे लिए अहम थे। अपना फर्ज निभाते हुए तुम घुट रहे थे और तुम्‍हारी घुटन को मैं बस महसूस कर सकती थी।

मैं तुमसे दुनिया जहान के सवाल किया करती थी। तुम उन सवालों का जवाब भी देते थे। बस तुमने एक बात का जवाब कभी नहीं दिया जब मैंने तुमसे पूछा था, 'क्‍या मैं हमेशा तुमसे ऐसे ही सवाल पूछ सकती हूं, तुम्‍हारे साथ रहते हुए।’ तुमने बस इतना कहा था, 'इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास नहीं है।’ मैंने पलट कर कहा था, शायद तल्खी से भी, 'तुम झूठ बोल रहे हो।’ तुमने बस इतना कहा था, 'मैं हमेशा सच बोलने की कोशिश करता हूं।’ 'और जब सच बोल नहीं पाते, तब टाल देते हो।’ मुझे दुख होता है मैं इतनी रुखाई से पेश क्‍यों आई उस दिन। तुमने मुझसे सच कहा था, बिलकुल सच। बिना लाग-लपेट के सहज सरल शब्‍दों में। तुम उस रिश्ते से मुक्‍त होना क्‍यों नहीं चाहते थे। सामाजिक बंधनों से मुक्‍त होना इतना आसान नहीं होता क्‍या। जब मैंने जिद में आकर कहा था, 'मैं शादी नहीं करूंगी, अकेली रहूंगी।’ तुमने समझाया नहीं था बस इतना कहा था, 'इनसान खुद के साथ अकेला नहीं रह सकता। घर-परिवार में रहते हुए अकेले रहना आसान होता है।’ घर-परिवार की तरफ से मेरे लिए शादी का दबाव बढऩे लगा था। अब मेरे पास कारण खत्म हो रहे थे और बहाने शुरू हो रहे थे। कभी किसी की आवाज मुझे पसंद नहीं आती तो कभी शकल। कभी किसी का सरनेम अजीब सा लगता तो कभी किसी की नौकरी। आखिर कोई पसंद आता भी कैसे, दिल-दिमाग में तो एक ही नाम, एक ही आवाज, एक ही चेहरा छाया हुआ था। मैं तीस पार कर रही थीं, परिवार की चिंताएं बढ़ रही थी। सभी को जैसे एक ही चिंता थी, मेरी शादी क्‍यों नहीं हो रही। जैसे बिना शादी के मैं इस सामाजिक ढांचे में फिट नहीं बैठूंगी। अकेले जीवन बसर-करना जैसे बड़ा गुनाह है। आखिरकार मैंने शादी के लिए हामी भर दी। मैं एक ऐसे लडक़े से शादी करने जा रही थी जिसे मैं जानती नहीं थी। जानने की इच्छा भी नहीं थी। मेरी इच्छाएं कहीं और बसती थीं। मेरे पास तो बस एक शरीर बचा था। यह शरीर सामाजिक रीति-रिवाज के लिए सजाया जा रहा था। मैं सज रही थी, दुल्हन के वेश में। बाहर बारात खड़ी थी। सभी लोग बारातियों और मेहमानों का स्वागत करने में जुटे थे। मां परछावन में व्यस्त थीं। अपने कमरे में मैं दुल्हन के वेश में अकेली, खुद को आइने में देख कर पहचान नहीं पा रही थी। मेरी आंखों में भी हूबहू वही काली छाया है जो मैंने तुम्‍हारी आंखों में देखी थी। मैं इस छाया को छुपाना चाहती थी। यदि उसे छुपाने के लिए आंखें बंद करती तो गीली पलकों के भार से डबडबाई आंखें बह सकती थीं। शुभ काम में रोना अच्छा नहीं होता। वह भी शादी से पहले खुद की शादी में। एक नए जीवन की शुरुआत होने वाली थी। उस दिन के बाद से मुझे एक कुशल गृहिणी, अच्छी बहू, उससे भी अच्छी पत्नी बनना था। अपने परिवार, ससुराल, नाते-रिश्तेदार, सभी का ध्यान रखना था। अब मेरी तस्वीर भी गंभीर नजर आने लगी है। तुम्‍हारी तस्वीर जितनी ही। मेरी नई तस्वीर देख कर तुम घबराना मत। किसी को पता नहीं चलेगा कि मेरी तस्वीर अचानक क्‍यों और कैसे बदल गई। मैंने भी दूसरों के सामने हंसना सीख लिया है। तुम्‍हारी तरह जिंदादिली के साथ। तुमने सही कहा था, 'तुम तो यक्षिणी हो। अद्भुत यक्षिणी। तुम्‍हें पता है परी, यक्षिणियां शरीर रूप में नहीं रहतीं। वे कभी अपने असल रूप में प्रकट भी नहीं होतीं।’ उस दिन मैंने इसे मजाक समझ लिया था, पर आज मुझे पता चल गया है कि मैं वास्तव में यक्षिणी हूं। अपने यक्ष की यक्षिणी।

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