जब पूरी दुनिया में उग्रवादी संगठनों के काडर मुख्यधारा से जुड़ रहे हैं तो आखिर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सका। इतने सालों के बाद आज तक नक्सली संगठनों ने मुख्यधारा में आने का कभी क्यों नहीं सोचा। 'सुरक्षा और विकास’ विषय में विकास शब्द थोड़ा अटपटा लगता है क्योंकि अन्य इलाकों में विकास समझ में आता है लेकिन जब हम नक्सली इलाकों की बात करते हैं तो विकास के मायने मूलभूत सेवाओं का प्रदाय है जिसके लिए सरकार को काफी खर्चे उठाने पड़ते हैं और एक अभेद्य सुरक्षा कवच देना पड़ता है जिसके साए में विकास हो सके। नक्सल प्रभाव से पहले छत्तीसगढ़ में जगरगंडा से हैदराबाद के लिए बस चलती थी। आज वहां सडक़ों का जाल खत्म है। ऐसे में मूलभूत सुविधाओं को मुहैया करवाने में सरकार को जितना खर्च उठाना है, मेहनत करनी है वह कड़ी चुनौती है। सडक़ निर्माण जैसे महत्वपूर्ण विषय को लें जिसकी इन इलाकों में सबसे ज्यादा जरूरत है। इन इलाकों में 2009-15 तक कि जो रोड रेक्वायरमेंट प्रोजेक्ट (आरआरपी) की योजना थी उसके तहत 5,077 किलोमीटर सडक़ें बननी थीं लेकिन 3200 किलोमीटर ही बनीं। दूसरे फेज में लक्ष्य है 7,294 किलोमीटर सडक़ें बनाने का जिसपर 10,700 करोड़ रुपये की लागत आएगी। यह विश्लेषण इसलिए कर रहा हूं ताकि हम समझ सकें कि जब हम सुरक्षा और विकास की बात करते हैं तो यह कितना बड़ा प्रश्न है।
नक्सलवादियों ने ऑपरेशन ग्रीन हंट झेला है। उनके विचारक नागभूषण पटनायक और चारू मजूमदार ने ऐसी नींव डाली थी जो अभी तक गहरे पैठ बनाए हुए है। आज जब उनके फैलाव की बात करते हैं तो नौ राज्यों में 100 जिलों में कम से कम 35 जिले ऐसे हैं जहां उन्होंने गहरे पैठ जमाई है, जिसे उखाडऩे में समय लगेगा। बिना सुरक्षा के साए में कोई विकास नहीं होता है।
इस साल के आंकड़े देखें जिससे हमें आभास होगा कि इनसे हम क्या नतीजे निकाल सकते हैं। अभी तक (10 नवंबर) नक्सली हिंसा की 936 घटनाएं हुई हैं। केंद्र-राज्य सरकार के आंकड़ों में अंतर हो सकता है। इसके अनुपात में बीते वर्ष 963 घटनाएं हुई थीं। इनमें 31 मुठभेड़ की घटनाएं हैं। दुखद यह है कि 10 नवंबर तक नक्सली हिंसा में 190 नागरिकों की मौत हुई। यह भी सच है कि बहुत से नक्सली भी मारे गए लेकिन इन आंकड़ों को देखकर हम सिर्फ यही नतीजा निकाल सकते हैं कि यह पैंतरेबाजी है। कभी राज्य पुलिस ऊपर तो कभी नक्सल नीचे। अगर हम इस आंकड़े को गौर से देखें तो छत्तीसगढ़ और झारखंड को मिलाकर 68 फीसदी घटनाएं इन दो इलाकों में हो रही हैं। बस्तर समेत आठ जिले उन 35 अति प्रभावित नक्सल प्रभावित जिलों में आते हैं। यह बताने की जरूरत इसलिए है कि इन इलाकों की गंभीरता पता लगे। ज्यादा गंभीर बात नक्सलियों की विस्फोटक मारक क्षमता है। सडक़ों पर निष्क्रिय पड़े बारूद में आवागमन की सूचना मिलते ही विस्फोट कर दिया जाता है।
वर्ष 2008 में योजना आयोग ने कहा कि अब तक जो नक्सली इलाकों के लिए विकास की योजनाएं बनीं थीं वे न तो ठीक तरह बनाई गईं और न लागू की गईं। उनका फायदा भी आदिवासियों को नहीं मिला। उसमें सुधार की जरूरत है। उसमें उन्होंने यह भी कहा कि इन इलाकों में सुरक्षा की भी जरूरत है। बाद में यह पता लगा कि सुरक्षा तंत्र के बिना वहां विकास मुमकिन नहीं। जाहिर है कि ऐसे माहौल में सुरक्षा तंत्र को पुख्ता करने के लिए क्या-क्या किया जा सकता है। उसकी समीक्षा की जानी चाहिए। योजना आयोग ने इस बात पर भी जोर दिया था कि सडक़ों का निर्माण जरूरी है। जब तक इस दिशा में कोई काम नहीं होगा तब तक नतीजे नहीं मिलेंगें। नक्सली प्रभाव से पहले झारखंड या छत्तीसगढ़ के दूरगामी इलाकों तक राज्य की बसें चलती थी लेकिन नक्सल प्रभाव के बाद सडक़ों का जाल तोड़ दिया गया। आरआरपी (प्रथम) सडक़ें बनाने का लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाए क्योंकि ठेकेदार छोटे थे, भरोसेमंद नहीं थे, आधुनिक तकनीक की कमी थी। आरआरपी (द्वितीय) को मजबूत करने की जरूरत है। जब तक नक्सल इलाकों में सडक़ों का जाल नहीं होगा विकास संभव नहीं है। आवागमन जरूरी है ताकि संपर्क हो, आदिवासी बाहर की दुनिया के संपर्क में आएं। जरूरी है कि रोजाना एक किलोमीटर सडक़ निर्माण किया जाए तभी लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा। आज सीआरपीएफ की 50 कंपनियां और अकेले बीजापुर में 20 कंपनियां केवल सडक़ सुरक्षा में लगी हैं। मोबाइल टावर नष्ट कर दिए गए। मोबाइल फोन छीन लिए गए ताकि कोई पुलिस से और सुरक्षाकर्मी अपने परिवार से संपर्क न कर सकें। बस्तर में 146 मोबाइल टावर लगाने के बाद स्थिति में सुधार हुआ है। नक्सल इलाके में कुल 2200 टावर का अनुमोदन करने के बाद स्थिति में काफी सुधार आएगा।
नक्सलियों ने यह बोलकर सडक़ें उड़ा दीं कि पुलिस का आवागमन होता है लेकिन यह नजरअंदाज कर दिया कि वहां स्वास्थ्य सेवाएं कैसे पहुंचेगी जिसकी इन इलाकों में बेहद जरूरत है। सुरक्षा के साए में कुछ अस्पताल चल रहे हैं, जो उम्मीद की तरह है। यहां मोबाइल क्लीनिक की जरूरत है। जीडीपी के 7.5 फीसदी आंकड़े आकर्षक हैं लेकिन उसके अनुपात में रोजगार में वृद्धि नहीं हुई। राज्य पुलिस ने कई आदिवासियों की भर्ती की है। केंद्रीय पुलिस बल भी ऐसा करती है तो यह एक अच्छी पहल होगी। कौशल विकास संबंधित कार्यफ्मों का वहां प्रचार होना चाहिए। बताया जाना चाहिए कि इसके तहत कितना रोजगार दिया गया। यहां स्थानीय भाषा में सामुदायिक रेडियो का प्रसारण बढ़ाया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि नक्सल विचारधारा आदिवासी युवाओं को प्रभावित न कर सके। आत्मसमर्पण और महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार की घटनाएं सामने आनी चाहिए।
एक रोचक बात कि नक्सल संगठन के जो उच्च पदाधिकारी हैं उनके पुत्र इस देश के नामी स्कूल में पढ़े हैं। कुछ आईआईटी प्रशिक्षित हैं। जैसे आईआईटी पास अभिषेक रंजन झारखंड से हैं और केंद्रीय कमेटी के सदस्य अरविंद के पुत्र हैं। गणपति के बेटे नर्सिंग होम चलाते हैं। हैदराबाद की सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करते हैं। मल्लाराजीव रेड्डी की बेटी स्नेहलता बीएससी पास हैं और कुछ समय आंध्र प्रदेश के एक तेलगू समाचार पत्र में काम भी कर चुकी हैं। इनका विरोध नहीं है लेकिन जब नक्सलियों ने अपने बच्चों को
नक्सलवाद से अलग रखा है तो वे दूसरों के बच्चों को क्यों ले आते हैं। वरिष्ठ नक्सली नेताओं के बच्चे
नक्सलवाद से दूर हैं। इन सब बातों का प्रचार-प्रसार होना चाहिए। गृहमंत्रालय को इस बारे में अभियान चलाना चाहिए। अलगाववादी और आतंकवादी संगठनों को निष्क्रिय करने के लिए स्थानीय लोगों का समर्थन जरूरी होता। इसलिए आदिवासी भाई-बहनों को जोडक़र ही यह यात्रा तय करनी होगी। नक्सल का भूमि अधिग्रहण, पट्टा वितरण के बारे में जो प्रचार है उसपर राज्य सरकारों को सचेत होना होगा। कैसी भी हिंसा और उत्तेजनता का क्षण आए, राज्य सरकारों का नक्सलियों के खिलाफ अभियान या कदम कानूनी दायरे में हो।
(आउटलुक संवाद में दिए गए संबोधन का संपादित अंश)