नो टबंदी का असर उद्योग धंधों से लेकर खेती-किसानी समेत तमाम क्षेत्रों पर दिखने लगा है। डॉलर के मुकाबले में रुपया नरम पड़ा है तो शेयर बाजारों में भी इसका खासा असर दिख रहा है। रेटिंग एजेंसियों ने मौजूदा और अगले वित्त वर्ष के लिए अनुमानित विकास दर को संशोधित कर कम कर दिया है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो चेताया है कि नोटबंदी का असरअर्थव्यवस्था पर दिखेगा और यह दो फीसदी तक कम हो सकती है। होटल, रेस्त्रां और सिनेमाहॉल से लेकर फल-सब्जी, किराने की दुकान की बिक्री तक पर बुरा असर पड़ा है। नोटबंदी की रात जिस सोने के भाव आसमान पर पहुंच गये थे, उसे आज कोई पूछ नहीं रहा है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की एक रिपोर्ट के मुताबिक अर्थव्यवस्था को 1.28 लाख करोड़ रुपये की चोट पहुंच सकती है। रिपोर्ट के मुताबिक लोगों ने जरूरी चीजों को छोडक़र अन्य वस्तुओं पर खर्च घटाया है, उसका सीधा असर कारोबारियों और उद्योग धंधों पर पड़ेगा।
अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि बेशक दीर्घावधि में इस कदम का अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर दिखाई देगा लेकिन फिलहाल तो अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने में लंबा समय लग सकता है। घटती खपत का असर अगली दो-तीन तिमाहियों में कंपिनयों की बैलेंस शीट पर नजर आएगा। नोटबंदी का तत्काल असर जरूरी चीजों पर भी दिखा है। फल-सद्ब्रिजयों की खपत तक पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। दिल्ली की आजादपुर मंडी से लेकर, मध्य प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ की मंडियों में सद्ब्रिजयों की आवक पर असर दिखाई दिया। शुरुआती दिनों में ग्राहकी के अभाव में किसानों की सद्ब्रिजयां बिक ही नहीं पाईं। निर्यात तक पर इसका असर पड़ा। स्थानीय उद्योग धंधों की मानो कमर ही टूट गई है। यह सही है कि नवंबर के आखिरी दिनों में बाजारों में कुछ चहल-पहल लौटी है, लेकिन कारोबार उस अनुपात में उठता नहीं दिख रहा है। लोगों के हाथों में कुछ पैसा तो आया है लेकिन बेहद जरूरी चीजों की खरीद पर ही जोर है। दुकानदारों और कंपनियों की डिस्काउंट स्कीम भी काम नहीं आ रही है।
सूक्ष्म, लघु और मध्यम दर्जे के उद्योगों में तो उत्पादन आधा भी नहीं हो पा रहा। कई उद्योगों ने तीस दिसंबर तक ले ऑफ की घोषणा कर मजदूरों को घर वापस भेज दिया है। दावा किया जा रहा है कि अकेले उत्तर प्रदेश के छोटे उद्योगों को इस दौरान लगभग दस हजार करोड़ रुपये का नुकसान होगा।
इंडियन इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष मनीष गोयल का कहना है कि रुपए की तरलता के अभाव में उन उद्योगों का दम ही निकल गया है जहां नकद भुगतान से ही काम होता है। ऐसे उद्योग जिनका माल गांव-देहात में ज्यादा बिकता है वहां तो उत्पादन लगभग ठप ही है। चाय, मसाले, साबुन जैसे दैनिक उपयोग का सामान भी अब नहीं बन रहा। धान खरीदने को रुपये की अनुपलब्धता के चलते राइस मिलें बंद हो गई हैं। वह बताते हैं कि अकेले उत्तर प्रदेश में तमाम लघु उद्योग मात्र दस से चालीस फीसदी क्षमता पर काम कर रहे हैं। अनेक उद्योगों ने तीस दिसंबर तक ले ऑफ की घोषणा कर श्रमिकों को अगले आदेश के लिए 31 दिसंबर के बाद संपर्क करने को कहा है। बकौल उनके देश की जीडीपी में लघु उद्योगों का योगदान 17 फीसदी होता है मगर नोटबंदी के कारण अब यह 50 फीसदी तक गिर कर आठ फीसदी के आसपास रहने का ही अनुमान है। उनका गणित है कि आगामी तीस दिसंबर तक प्रदेश के छोटे उद्योगों का कम से कम दस हजार करोड़ रुपए का नुकसान होगा। दुखी मन से वह कहते हैं कि नोटबंदी का उद्यमियों ने यह सोच कर स्वागत किया था कि अब भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी मगर ऐसा हो नहीं रहा। सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार और बढ़ गया है और ऐसे उद्योग जो अपना माल सरकार को बेचते हैं उनसे कमीशन बढ़ा कर नई करेंसी में मांगा जा रहा है। नई करेंसी न होने पर सोने की मांग की जा रही है।
देश के बड़े औद्योगिक संगठनों में शुमार इसी एसोसिएशन के निदेशक डीएस वर्मा का अनुमान है कि नोटबंदी से लघु उद्योगों में बीस से अस्सी फीसदी तक उत्पादन गिरा है । रुपये की तंगी के चलते मजदूरों को भुगतान नहीं हो पा रहा। ऐसा कच्चा माल भी अब नहीं खरीदा जा रहा जिसका भुगतान नकद होता है। तैयार माल को दूर दराज के शहरों में भेजने पर भी नकदी की कमी की मार है। ट्रान्सपोर्टर अब एडवांस भाड़ा मांगते हैं और वह भी नई करेंसी में।
गाजियाबाद इंडस्ट्रीज फेडरेशन के अध्यक्ष अरुण शर्मा बताते हैं कि नोटबंदी की घोषणा के बाद पहले सप्ताह में ही पचास फीसदी उत्पादन गिर गया था मगर अब नई करेंसी के अभाव में पच्चीस फीसदी उत्पादन और कम हो गया है। बैंकों से प्रति सप्ताह मात्र पचास हजार रुपया निकल पा रहा है। ऐसे में उद्यमी के सामने सवाल यही है कि इतने कम पैसे से वह अपना घर चलाए अथवा उद्योग? श्री शर्मा बताते हैं कि जनपद में आठ हजार से अधिक उद्योग हैं और इनमें लगभग छ: लाख लोग रोजगार पाते हैं। करेंसी की कमी के चलते इन सबके समक्ष रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। उद्योगों के समक्ष सबसे बड़ी मुसीबत बने हैं फिक्स खर्चे। बिजली के बिलों का भुगतान और स्थाई कर्मचारियों का वेतन तो उन्हें हर सूरत में देना ही होगा। उनका अनुमान है कि इस संकट से उबरने में बहुत वक्त लगेगा। कम से कम चार माह का समय तो इस नुकसान की भरपाई में ही लग जाएगा । बकौल उनके यह संकट प्रदेश के सभी पांच लाख अस्सी हजार उद्योगों के समक्ष है जहां लगभग बाइस लाख लोग रोजगार पाते हैं।
अरोड़ा केमिकल के निर्देशक कैलाश अरोड़ा बताते हैं कि सर्वाधिक मार ठेके की लेबर अथवा दिहाड़ी मजदूरों पर पड़ी है और सबसे पहले उन्हीं की छंटनी हुई है। रोजगार छिनने के कारण श्रमिक दूर-दराज के अपने घर लौट गए हैं क्योंकि शहरों में बिना पैसे के जीवन नहीं चल सकता। एक बार घर लौट गए श्रमिक काम पुन: शुरू हो जाने पर भी लौटेंगे अथवा नहीं, यह डर भी बना हुआ है। पिलखुआ में अपना हैंडलूम का कारखाना चलाने वाले राकेश बंसल बताते हैं कि हैंडलूम अब अधिकांशत: गांंवों तक ही सिमट चुका है। नोटबंदी के बाद से ग्रामीणों की जेब खाली है अत: हमारा कारोबार पूरी तरह बंद है। पीतल का सामान निर्यात करने वाले मुरादाबाद के महेश मित्तल बताते हैं कि देश से निर्यात होने वाला सामान अधिकांशत: ठेके पर कुशल श्रमिकों से ही तैयार कराया जाता है। करेंसी की किल्लत में अब कोई न तो माल बनवा रहा है और न ही कोई उसे बनाने को तैयार है। उन्हें आशंका है कि यह संकट जल्द दूर न हुआ तो कहीं विदेशों के सभी ऑर्डर रद्द न हो जायें।