Advertisement

डिफॉल्टर

आकाशवाणी में उद्घोषक। कहानी की तीन किताबें, चौराहे पर सीढिय़ां, धूप के आईने में और जादू भरी लडक़ी। कविता संग्रह बातें बेवजह। फोन: 9414209।98
ग्राफिक

एक टांग पर खड़ा पंखा एसी की हवा को घूम-घूम कर तीन कुर्सियों की तरफ फेंक रहा था। एक कुर्सी खाली पड़ी थी। उस पर एक तीस-पैंतीस साल का आदमी लटका हुआ था। उसकी टांगें केबिन के नीचे तक घुसी हुई थीं। बाहें पीछे वाली रैक को छू रही थीं। दूसरी कुर्सी पर बैठी लडक़ी फोन पर व्यस्त थी। वह आहिस्ता से समझा रही थी जैसे, न उसे समझाने की जल्दी थी न अगले को समझने की।  'सर आपका ड्यू बहुत बढ़ गया है। आप इसकी गंभीरता को समझ नहीं रहे हैं। हमको मजबूरन फिर आना ही होगा। आप जानते हैं कि हम आएंगे तो क्‍या करेंगे। मजबूरी है सर, ऐसे चल नहीं सकता न?’ सामने से शायद हां और हूं की शक्‍ल में जवाब आ रहे होंगे। संभव है सामने वाला सब बातों में सहमति जता रहा हो। लडक़ी की आवाज संयत थी। 'सर, तो क्‍या समझें? आप कितनी देर में अपना ड्यू देंगे? हां-हां कितनी देर में...कितने दिन, महीनों में नहीं।’

'साले चोर कहीं के। गजब प्रैक्तिटस बना रखी है।’ कुर्सी पर लटका हुआ आदमी धीमी आवाज में गाली देकर आंखें बंद किए पड़ा रहा। लडक़ी ने एक बार उसकी तरफ देखा, वह फोन कान से लगाए बात करती रही, 'देखिए हम आपकी मदद करना चाहते हैं। मदद ऐसे समझिए कि कानूनी रूप से आपके पास कोई रास्ता नहीं है। अब जो कुछ करना है हमको ही करना है। मगर आप चाहें तो एक बार आ जाएं, हम आपकी सुन लें और आप हम मिलकर कुछ तय करें।’ 

'ऐ सुनो लिपि’, 'एक मिनट होल्ड करिए सर’ कहते हुए लिपि ने फोन के चोगे पर हाथ रखा और बोली, 'यार दो मिनट क्‍लाइंट से ढंग से बात कर लेने दो। इसकी फाइल परसों तक फाइनल करनी है।’

'बहुत गरमी है, क्‍या ये भेजा पकाने वाली बात लिए बैठी हो।’

'तुम अपना सर पंखे की तरफ रखो, आराम आएगा।’ कहकर लिपि ने फोन पर फिर बात शुरू की। 'देखिए आप अगर कर सकते हैं तो आपको कोशिश करनी चाहिए। नहीं तो आप जानते हैं सर, डिफॉल्टर होने का अर्थ क्‍या है? नहीं सर, ऐसा नहीं है आप समझिए। आ जाइए एक बार। बैठकर बात करते हैं।’  'सुनो लिपि’, कुर्सी पर पड़े आदमी ने अपने दोनों हाथ पीछे से आगे करते हुए कहा। लिपि ने उसकी तरफ देखा। 'यार इस गरमी में तुमको कोई ऐसी बात याद नहीं आती जिससे ठंड पड़े।’ लिपि ने उसे घूर कर देखा। 'सुन उसका कितने का लोन है बाइस लाख न? उसको हम छह महीने की छूट दिला देते हैं। बॉस का रेट तीन परसेंट है। बाकी तुम देख लेना।’

'अच्छा! और इसमें तुम्‍हारा क्‍या इंटरेस्ट है?’

'हम दोनों बैठकर बातें करेंगे।’

'बताओ क्‍या चाहते हो?’ लिपि ने दो टूक पूछा।

'हम दोस्त हैं लिपि। बहुत अच्छे दोस्त। और भी...’

'और क्‍या?’

कुर्सी पर लटका आदमी अब बैठने के आकार में आ गया। उसने अपनी रीढ़ को सीधा कर लिया। लिपि ने फिर दोहराया, 'और क्‍या?’

'क्‍या तुमको मुझ पर भरोसा है?’

'भरोसा यहां कहां से आया?’

'मतलब तुम ऐसा तो नहीं समझती न कि मैं कोई फायदा उठाने के लिए तुमसे बात करता हूं। तुम्‍हारे आसपास रहने की कोशिश करता हूं।’

'तुम ये सब जानकर क्‍या करना चाहते हो?’

'हम दोस्त हैं एक दूजे को मन से जानकर अच्छे से समझते हुए साथ दे सकते हैं।’ आदमी ने अधिकारपूर्वक कहा। एक हल्के विराम के साथ उसने कहा, 'अगर तुम चाहो।’ उसके आखिरी तीन शब्‍दों में भार था। वे लोहे की तरह शीशे के फर्श पर गिरे थे। एक-एक शब्‍द के गिरने की आवाज गिर चुकने के बाद भी गूंजती रही।

लिपि उसकी तरफ देखते हुए बोली, 'हमने प्रेम विवाह किया था। वह मेरी गली में ही रहता था। बहुत सुंदर था। ऊंचा, जिम जाता था। फाइनेंस कंपनी में काम करता था। उसने मुझसे कहा कि वह मुझसे प्रेम करने लगा है। पहले मैंने तवज्जो नहीं दी। दो एक दिन बाद मैंने उससे कहा कि वह मिल सकता है। जब चाहे, जहां चाहे। उसने मुझे आश्चर्य से देखा था। फिर मैंने एक दिन उससे कहा, मैं घरवालों की इज्जत करती हूं। यह इज्जत ही डर है बाकी कुछ नहीं।’ रीढ़ पर दबाव बनाया हुआ आदमी कुर्सी की पीठ तक ऊंचा हो आया। मौसम में गरमी वैसी ही थी। चिपचिपी सीली हवा फेंक रहा पंखा घूम रहा था। दफ्तर के उस केबिन के सिवा बाकी सब केबिन खाली थे। लंच हुए एक घंटा हो चुका था। अब तो लौट जाने का समय हो चला था। लिपि ने अपनी बात जारी रखी, 'फिर हमने शादी कर ली। हम खुश थे। हम हनीमून के लिए भी गए। हमने पहाड़ों की सैर की। हर दो-चार दिन में हम फिल्म देखने जाते थे। उसने कहा था, तुम मेरे पेरेंट्स की इज्जत करना बस। इसके सिवा उसे कुछ नहीं चाहिए था। मैंने जींस पहनना छोड़ दिया। मैं घूंघट निकालती थी। फिर कुछ चीजें तेजी से छूटती गईं। पहले हमारा फिल्म जाना, फिर बाहर खाना। वह देर रात घर आता और चुपचाप सो जाता।’ लिपि के चेहरे पर दुख की स्मृतियां उभर रही थीं। आदमी सजग था, किसी दुख की गांठ में पड़ कर लिपि गिरने को हो और वह उसे थाम ले। जहां कहीं लिपि कमजोर होती दिख सकती थी, वहीं उसने उसे थाम लेने की तैयारी कर रखी थी। 'जिस दिन मेरा बच्चा आने को था तब वह फिल्म देखने गया हुआ था। मैंने उसे फोन किया, उसने फोन नहीं उठाया। मैंने अपनी सास को फोन किया वह नहीं आईं। भयानक दर्द में मैंने खुद उठना तय किया। मुझे बुखार हो आया था। मैं अकेले अस्पताल गई। अगली सुबह वह आया था। सर झुकाए खड़ा रहा। वहीं से उसने अपनी मां को फोन किया, 'तू दादी बन गई है। पोता हुआ है।’ दोपहर बाद वे दोनों भी आए। बस ऐसा ही चला सबकुछ दो साल तक।’

'मगर सब प्रेम ऐसे नहीं होते। कुछ लोग बिना किसी रिश्ते के भी दिल से चाहते हैं और साथ देते हैं।’ आदमी को पूरा भरोसा था कि ऐसे लोग होते हैं। वह इस तरह हाव-भाव बना रहा था कि अगर दुनिया में कोई भला आदमी न बचा तो भी वह जरूर बचा रहेगा। उस आदमी ने कहा, 'तुमने गलत आदमी चुन लिया था।’ 'हां सबसे भूल हो जाती है,’ लिपि ने कहा। आदमी उसे ऐसे देख रहा था कि लिपि कुछ और तकलीफें बयान करे। जब वह आगे कुछ नहीं बोली तो आदमी ने कहा, 'फिर...’ 

'वह गायब रहने लगा। महीनों घर नहीं आता। फोन नंबर बदल लिया। उसके मां-बाप मुझसे बोलते नहीं थे। फिर मैंने उसके एक दोस्त से कहा कि इस बार वह जहां कहीं भी दिखे मुझे बताना। मैं बस एक बार, बस एक बार उससे बात कर लेना चाहती थी।’ 

'कब मिला फिर?’

'एक शाम उसके दोस्त ने फोन किया, ï'भाभी वह बस स्टैंड पर खड़ा है। मैं सीधे वहां गई। जाने कैसे उसने मुझे आते देख लिया। वह भागने लगा। उस भीड़ में मैं भी उसके पीछे दौड़ पड़ी। वह जरा-सी दूरी पर था तब मैं जोर से चिल्लाई, रुक साले, नीच। मैंने उसे पकड़ लिया। उसकी औकात नहीं थी कि कलाई छुड़ा ले। दुमकटे कुîो की तरह वह अपने आप में घुस गया।’ लिपि ने एक और गाली दी। 'तुम नए सिरे से कुछ शुरू क्‍यों नहीं करतीं लिपि?’ आदमी की आवाज में प्रेम, आश्वस्ति और सहयोग का भाव था। 'जिंदगी के डिफॉल्टरों का कुछ नहीं हो सकता सर’ लिपि ने ठंडी सांस ली। वह कुछ और कहती उससे पहले फोन बजा। लिपि ने उसी सख्‍त चेहरे से उठाया, 'हलो। आ गए आप। ऊपर आ जाइए। गार्ड से कहिए लिपिका सिंह से मिलना है।’ रीढ़ पर जोर डालकर बैठा हुआ आदमी पूरा लिजलिजा हो चुका था। लिपि ने देखा आदमी अपनी डेस्क पर कुछ खोजने लगा था। क्‍लाइंट आया तो लिपि ने उससे कहा, 'ये आ गए हैं थोड़ा गाइड कर दीजिए सर।’ आदमी के चेहरे पर कोई रंग नहीं था। जिस गरमी में उसकी जान जा रही थी, वही जान कहीं अटक कर ठहर गई थी। वह लिपि की ओर मुड़ा और क्‍लाइंट की ओर देखते हुए बोला, 'इसमें क्‍या हो सकता है? डिफॉल्टर हैं तो अपना ड्यू चुका दें। यह बैंक है, कोई बनिए की दुकान नहीं।’

लिपि ने थोड़े आश्चर्य से उस आदमी की ओर देखा और कहा, 'अभी घंटा भर पहले ही तो आपने कहा था न कि कुछ परसेंट...’ रीढ़, घुटने, पंजे, सर सब कुछ असमर्थ हो चुके थे। आदमी ने कहा, 'वह कोई सही रास्ता नहीं है। सबसे अच्छा है, इन्हें सोच-समझकर कानूनी काम करना चाहिए।’

'डिफॉल्टरों को एक मौका चाहिए होता है सर।’ लिपि ने आदमी की आंखों में झांका...

आदमी ने डेस्क से मुश्किल से खोजकर निकाली एक फाइल उठाई और 'अभी आया’ कहता हुआ केबिन से बाहर चला गया।

क्‍लाइंट असमंजस में खड़ा था। लिपि ने उससे बैठने को कहा।

क्‍लाइंट अपनी मुश्किल बताने लगा कि किस तरह उसने कुछ पैसा कहीं इनवेस्ट कर दिया और कैसे वह डिफॉल्टर हो गया। लिपि ने उससे बहुत विनम्र शब्‍दों में कहा, 'सर सबसे गलती हो जाती है। उस गलती को ढंकने के लिए और गलतियां नहीं करनी चाहिए, बस। सर आप मेरी एक बात मानेंगे?’ क्‍लाइंट ने कहा, 'अगर मानने लायक हुई तो जरूर मानूंगा।’

'आप एक बार इस जाल से बाहर आ जाइए और फिर नए सिरे से सोचकर कुछ नया शुरू कीजिए। यकीन मानिए आपको बहुत अच्छा लगेगा।’ लिपि ने कहा तो क्‍लाइंट को, लेकिन देखा आदमी की तरफ जो फाइल लिए लिपि के बगल में खड़ा था।

Advertisement
Advertisement
Advertisement