सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत आने वाले विज्ञापन और दृश्य प्रचार निदेशालय (डीएवीपी) ने तमाम मंत्रालयों और सरकारी विभागों को लिखित में कहा है कि वे विज्ञापन देने के मसले पर डीएवीपी की नीतियों का सख्ती से पालन करें। सोलह सितंबर 2016 को कैबिनेट सचिव ने पत्र जारी कर कहा है कि कुछ मंत्रालय, विभाग, विशेषकर सार्वजनिक उपफ्म डीएवीपी की बजाय सीधे तौर पर विज्ञापन जारी कर रहे हैं। दरअसल डीएवीपी विभिन्न मंत्रालयों/विभागों, सार्वजनिक उपफ्मों और भारत सरकार से वित्तीय पोषित स्वायत्त संस्थाओं कीओर से विज्ञापन जारी करने वाली सरकार की नोडल एजेंसी है। डीएवीपी द्वारा जारी विज्ञापन की धनराशि का 15 फीसदी सरकार के खाते में आता है लेकिन देखने में आया कि कई मंत्रालय डीएवीपी को नजरअंदाज कर इस नीति के खिलाफ सीधे विज्ञापन जारी कर रहे हैं।
डीएवीपी के सूत्रों का कहना है कि उक्त नीति का उल्लंघन करने वालों में मुख्य सडक़ एवं परिवहन मंत्रालय, संस्कृति मंत्रालय, बिजली और कोयला मंत्रालय और भविष्य निधि (पीएफ) विभाग हैं। कई सरकारी अभियानों के प्रचार-प्रसार पर करोड़ों में रुपया खर्च किया जाता है। ऐसे में खर्च होने वाली धनराशि का जो हिस्सा सरकारी खजाने में आना चाहिए वो या तो नहीं आ रहा है या निजी विज्ञापन एजेंसियों को जा रहा है। डीएवीपी के एक उच्च अधिकारी इस बात को मानते हैं कि बीते 60 वर्षों में कभी किसी मंत्रालय ने डीएवीपी की नीतियों को दरकिनार कर सीधे विज्ञापन नहीं दिया।
हाल ही में अखबारों के लिए जारी नई विज्ञापन नीति के तहत लागू प्वाइंट सिस्टम को लेकर देश के लघु और मध्यम अखबार पहले से ही डीएवीपी की मुखालफत कर रहे हैं। नई नीति से उक्त अखबारों से जुड़े लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया है। अरसे से केंद्र सरकार को शिकायतें मिल रही थीं कि डीएवीपी के कुछ कर्मचारी-अधिकारी और कुछ प्रिंट मीडिया के लोग मिलकर भ्रष्टाचार कर रहे हैं। जैसे कम प्रसार संख्या को ज्यादा दिखाना, नियमित अखबार छापे बिना विज्ञापन लेना आदि। डीएवीपी के एक उच्च अधिकारी बताते हैं कि कुछ अखबार वालों के पास तो ऑफिस ही नहीं है। ऐसे में जनकल्याण योजनाओं के विज्ञापन देने पर सरकार का पैसा भी खोटा होता है और विज्ञापन जनता तक पहुंचता भी नहीं। ऐसे में भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए नई नीति बनाई गई। हालांकि भ्रष्टाचार डीएवीपी के कर्मचारियों-अधिकारियों की मिलीभगत के बिना नहीं हो सकता लेकिन शिकंजा कसा गया लघु-मध्यम अखबारों पर। ऐसे नियम बना दिए गए कि जो इनके अस्तित्व के लिए खतरा हैं। हालांकि डीएवीपी के उच्च अधिकारी कहते हैं कि यह कोई नई बात नहीं है। वर्ष 2002 और 200। में भी विज्ञापन नीतियों में संशोधन किया गया था।
अखबार बचाओ मंच से जुड़े और उर्दू अखबार कौमी रफ्तार के संपादक अलीमुल्लाह खान कहते हैं कि छोटे, मध्यम और क्षेत्रीय अखबार गांव-देहात, कस्बों में चायखानों, खेत-खलिहान और चौराहों तक पहुंचते हैं। ऌगांव-देहात से मुताल्लिक योजनाओं को जमीन तक पहुंचाना है तो इन अखबारों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह पॉलिसी आम अवाम और हाशिए के लोगों की आवाज दबाने की कोशिश है। डीएवीपी की पहले से मौजूद पॉलिसी को ही सख्ती से लागू किया जा सकता था। अलीमुल्लाह खान के अनुसार नई नीति की सबसे अधिक मार क्षेत्रीय और उर्दू अखबारों पर पड़ेगी। नई नीति के अनुसार विज्ञापन लेने के लिए कुल 100 अंक का वर्गीकरण किया गया है। जिसमें से 45 अंक अनिवार्य हैं। आरएनआई या एबीसी (ऑडिट ब्यूरो सकुर्लेशन) के 25 अंक, ईपीएफ के 20 अंक, प्रिंटिंग मशीन के 10 अंक, समाचार एजेंसी के 15 अंक, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया की लेवी फीस जमा करवाने के 10 अंक, अखबार की पेज संख्या के आधार पर 20 अंक तय किए गए हैं। अखबार बचाओ मंच के पवन सहयोगी के अनुसार तीन अंकों पर आपîिा है। बड़े अखबार,जिनकी प्रसार संख्या आरएनआई या एबीसी से प्रमाणित है उन्हें प्रीमियम रेट अलग से दिया जाएगा। इसमें सरकार ने बड़े अखबारों को सीधा फायदा पहुंचाने की कोशिश की है। दूसरा अब 45 प्वाइंट पूरा किए बिना विज्ञापन नहीं मिलेगा। तीसरा तीन घंटे में छप जाने वाले मध्यम अखबार (।5000 प्रसार संख्या) के लिए करोड़ों रुपये की प्रिंटिंग मशीन और करोड़ों की जमीन नहीं खरीदी जा सकती। पहले 45,000 प्रसार संख्या के लिए सीए का प्रमाणपत्र जमा करवा दिया जाता था लेकिन अब प्रसार संख्या आरएनआई या एबीसी से प्रमाणित करवानी होगी। एबीसी का प्रमाणपत्र केवल छह महीने तक मान्य है जबकि आरएनआई सरकारी है लेकिन उसके पास पर्याप्त स्टाफ नहीं। अभी तक आरएनआई और एबीसी सर्टीफिकेट की मांग ।5000 से ज्यादा प्रसार संख्या वाले अखबारों से की जाती थी। उर्दू अखबार सहाफत के संपादक अमान अब्बास कहते हैं कि प्रसार संख्या समेत तमाम तरह की बेईमानी तो बड़े अखबार भी करते हैं लेकिन उनके पास वे तमाम सुविधाएं पहले से हैं जिन्हें अब डीएवीपी ने लधु-मध्यम अखबारों के लिए अनिवार्य कर दिया है। डीएवीपी न केवल उक्त मुद्दों बल्कि ऑडियो-वीजुएल (एवी) और मल्टीमीडिया प्रचार को लेकर भी विवादों में रहा है। एवी के तहत डीएवीपी में 250 प्रोड्यूसर और मल्टीमीडिया के तहत 100 प्रोडक्शन हाउस पैनल्ड हैं। इस बारे में फिल्म मेकर के. मनीष सिंह का कहना है कि पांच वर्ष पहले टर्नओवर के आधार पर कैटेगरी बनाई गई जबकि टर्नओवर के आधार पर काबिलियत नहीं आंकी जा सकती। डीएवीपी में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की शिकायतें होती रही हैं। मोदी सरकार के आने के बाद उम्मीद की जाती रही है कि डीएवीपी में भी स्वच्छ व्यवस्था अभियान चलेगा। पहले अरुण जेटली और फिर वेंकैया नायडू के रहने से मंत्रालय पर कोई आरोप नहीं लग सकता। लेकिन मंत्रालय का छोटा अंग होने से अब तक गड़बडियों पर नियंत्रण एवं व्यापक बदलाव नहीं हो पाए हैं।
टर्नओवर के आधार पर फिल्ममेकर की काबिलियत नहीं आंकी जाती। ऐसे में सिर्फ बड़े प्रोडक्शन हाउस वालों को ही काम मिलेगा
के. मनीष सिंह, फिल्ममेकर
नई पॉलिसी अवामी आवाज को दबाने की कोशिश है, इसकी सबसे ज्यादा मारउर्दू और क्षेत्रीय भाषा के अखबारों पर पड़ेगी।
अलीमुल्लाह खान, अखबार बचाओ मंच