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प्यारी हैं शादी की रंग-बिरंगी रस्में

विविधताओं से भरे भारत में विवाह परंपराओं में भी उतनी ही विविधता दिखती है। कुछ लोकाचार और शास्त्रोक्‍त पद्धतियां मिलकर विवाह संस्कार को पूर्ण बनाती हैं
गायत्री पद्धति से विवाह

आधुनिक भारत के लाखों परिवार की जीवन शैली में बदलाव आया है। अति संपन्न ही नहीं न्यूनतम साधन सुविधाओं वाले परिवार भी नए जमाने के साथ जन्मोत्सव से लेकर विवाह तक के लिए भारतीय संस्कृति और परंपरा को निभा रहे हैं। अब भाग-दौड़ के जमाने में विवाह समारोह ही ऐसे आयोजन बचे हैं जिनमें पूरा परिवार जुटता है और मुलाकात होती है। शादियों में रीति-रिवाजों के विस्तार का समय भले ही न बचा हो लेकिन नई पीढ़ी चाहती है कि शादी पारंपरिक रूप से हो। कुछ नेग परंपरा निभाने के लिए कर लिए जाते हैं तो कुछ के लिए पूरी तरह वक्‍त निकाला जाता है। शहरी तबके से लेकर आदिवासी समाज तक शादी में विविधताएं दिखाई पड़ती हैं। इसी प्रकार कुछ लोग आज के जमाने में भी जन्मपत्री मिलाकर ही शादी तय करते हैं। कुछ पद्धतियां लोकाचार हैं जैसे, जयमाल, वरमाला, फेरे, घुड़चढ़ी, बारात ऐसे रिवाज हैं जो तकरीबन सभी जगह होने लगी हैं और कुछ परंपराएं ऐसी हैं जो अपने समाज की परंपरा को संजोए रखने की कोशिश है। हर समाज की अपनी रीतियां हैं। पारंपरिक रीतियों में आर्य समाज और गायत्री पद्धति से विवाह का चलन भी बढ़ा है।

 

जीवन की मिठास से सामाजिक मिठास

आर्य समाजी या वैदिक विवाह पद्धति सर्वस्वीकार्य विवाह पद्धति है। इसकी वजह यह है कि यह विवाह पूर्ण रूप से वैदिक पद्धति से होता है। हिंदू धर्म के अलग-अलग समाजों में घंटों चलने वाले विवाह कर्मकांड की जगह आर्यसमाजी पद्धति से होने वाला विवाह आधे घंटे में संपन्न हो जाता है। इस पद्धति में वर-वधू के बीच आपसी सामंजस्य से जुड़ी कसमों को ज्यादा महत्व तो दिया ही गया है, साथ ही नवदंपति समाज में मिठास फैलाएंगे इसकी कसम भी खिलाई जाती है। शादी के आरंभ में वधू पक्ष वर को बैठने के लिए आसन देता है। इसके बाद उसे दही, शहद और घी को मिलाकर तैयार किया गया मधुपर्क दिया जाता है। वर इसे थोड़ा सा खुद ग्रहण करने के बाद बाकी का चारों दिशाओं में छिडक़ाव करता है जो इस बात का सूचक है कि वह ऐसी मिठास हर ओर फैलाएगा। इसके बाद वधू का पिता वर को गाय का दान करने का संकल्प लेता है। यह रस्म अब रस्म ही बनकर रह गई है मगर पुराने वैदिक काल में इसका खास महत्व हुआ करता था क्‍योंकि तब पशुपालन जीविका का प्रमुख साधन था। इसके बाद वधू का पिता अपनी पुत्री का दाहिना हाथ वर के दाहिने हाथ में देता है और वर से आग्रह करता है कि वह उनकी पुत्री को स्वीकार करे। इसके बाद वर, वधू को वस्त्र प्रदान करता है और कहता है कि वह जीवनभर उसे वस्त्र प्रदान करेगा। फिर वर-वधू दोनों नए वस्त्र धारण करते हैं और यज्ञ स्थल पर आते हैं जहां मंत्रोच्चार के बीच यज्ञ होता है। इसके बाद वर-वधू यज्ञ अग्नि के सात फेरे लेते हैं और इस दौरान सात वचन लेते हैं जिसमें धर्म के पालन, एक-दूसरे को स्वीकार करने, गृहस्थ धर्म के हर कर्तव्य के पालन, एक दूसरे की लंबी उम्र की प्रार्थना, एक-दूसरे के संबंधों में प्रेम कायम रहने आदि के संकल्प लिए जाते हैं। वधू के पीछे चलते हुए छठे फेरे के दौरान वर कहता है कि मैं अपनी गृहस्थी बसाने के लिए तुम्‍हें तुम्‍हारे माता-पिता से दूर कर रहा हूं, मैं पूरी जिंदगी तुम्‍हारे स्वास्थ्य का ध्यान रखूंगा। ईश्वर हमें शांति, समृद्धि प्रदान करे। अंतिम दो फेरे में वर आगे रहता है। सनातन और आर्य समाज की विवाह पद्धतियों में शिव और श्रीराम विवाह के अनुसार कहीं सात तो कहीं चार फेरे होते हैं। सातवें फेरे के दौरान  सप्तपदी की रस्म होती है जिसमें वर-वधू सात कदम चलकर सात कामनाएं करते हैं जिसमें ईश्वर से अच्छे भोजन, अच्छे स्वास्थ्य, समृद्धि, खुशी, अच्छी संतान, समयानुकूल चलने की क्षमता और एक-दूसरे के प्रति प्यार एवं मित्रता की कामना की जाती है। इसके बाद सूर्य, ध्रुव तारा और अरुंधती का ध्यान कर इनके अनुसार बनने का संकल्प लिया जाता है। इसके साथ ही विवाह संकल्प होता है। इसी तरह गायत्री विवाह पद्धति में वर-वधू के साथ-साथ उसके माता-पिता भी पीले वस्त्र धारण करते हैं। गणेश पूजन के बाद विवाह की रस्म शुरू होती है। यदि वर का उपनयन संस्कार नहीं हुआ है तो वर को पांच लोग मिल कर जनेऊ पहनाते हैं। इसके बाद समाज की उन्नति के लिए वर-वधू शपथ लेते हैं और फिर हवन किया जाता है। इस विवाह में खास ध्यान रखा जाता है कि नया जोड़ा पर्यावरण की रक्षा का संकल्प ले। इसके बाद सभी परिजन दूल्हा-दुल्हन के आसपास खड़े होते हैं और हाथ उठाकर गोत्रोच्चार किया जाता है।

गुजरात में गरबा तो महाराष्ट्र में श्रीमंती

गुजरात और महाराष्ट्र में पारंपरिक वस्त्रों में वधुएं सजती हैं। गुजराती वधुएं जहां घाटचोला की साड़ी पहनती हैं वहीं महाराष्ट्रियन वधुएं पैठणी साड़ी में विवाह मंडप में जाती हैं। गुजरात में हल्दी के बाद गौरी पूजन और फिर मंत्रोच्चार के साथ विवाह होता है। गुजराती विवाह में गरबा एक अहम रस्म होती है। शादी से एक दिन पहले दूल्हा-दुल्हन परिवार वालों के साथ मिल कर गरबा करते हैं। महाराष्ट्र में शादी से एक दिन पहले श्रीमंती होती है। इसमें कन्या और वर पक्ष वाले एक दूसरे को जेवर-कपड़े भेंट स्वरूप देते हैं। श्रीमंती के अगले दिन शादी रहती है। दुल्हन पारंपरिक रूप से पीली साड़ी पहनती है जो उसे मामा की ओर से भेंट में मिलती है। और वर-वधू दोनों को मुंडावरे बांधे जाते हैं। मुंडावरे मोती या फूलों से बनाए जाते हैं। इसके बाद अंतरपट लगा कर शादी होती है। शादी संपन्न होने के बाद बीच का अंतरपट हटा दिया जाता है। इसके बाद सप्तपदी की रस्म होती है जिसमें लडक़ी हरी साड़ी पहनती है। सप्तपदी के बाद हवन और कन्यादान होता है और भोजन के बाद लडक़ी विदा हो जाती है। विदा के वक्‍त लडक़ी के सिर पर छलनी में 16 दीए रखे जाते हैं और वह रोशनी के साथ विदा होती है। राजस्थान की शादियों में गणेश पूजन के साथ विवाह की रस्म शुरू होती है। पंडित जी लगन पत्रिका पढ़ते हैं, मंडप गाड़ा जाता है। मंडप के नीचे ही दुल्हन के मामा कन्या को नए कपड़े और टीका देते हैं। बारात आने पर द्वारचार होता है और दूल्हा तोरण मारता है। 

 

अलसुबह का कनिका दानम

दक्षिण की शादियों में अलसुबह शादी का मुहूर्त होता है। तमिल अय्यर विवाह में शादी से एक दिन पहले सुबह पूजा करने के बाद दूल्हा-दुल्हन की कलाई पर पीला धागा बांधा जाता है। वहां बारात को जानावसन कहा जाता है, जिसमें दूल्हा अपनी पसंद के किसी वाहन से विवाह स्थल पर आता है। उसके बाद विवाह स्थल के आस-पास के किसी मंदिर में जाते हैं, जहां कुछ रस्में होती हैं। इसके बाद बारात वापस बारातघर आ जाती है। फिर सगाई की रस्म होती है, जिसमें दुल्हन के घरवाले दूल्हे के लिए हल्दी, पान सुपारी और कपड़े लाते हैं। दुल्हन का भाई दूल्हे को माला पहनाता है। मंच पर दोनों पक्ष बैठते हैं और वहां लग्नपत्रिका पढ़ी जाती है। विवाह के दिन सुबह-सुबह दुल्हन नहा-धोकर तैयार होकर गौरी पूजा करती है। लडक़े वालों के यहां भी पूजा होती है। शादी से ठीक पहले काशी यात्रा एक मजेदार रस्म है जो ब्रह्मचर्य आश्रम से गृहस्थ आश्रम में प्रवेश का सूचक है। दूल्हा पारंपरिक कपड़ों में छाता, छड़ी, किताब वगैरह लेकर ब्रह्मïचारी रूप में अध्ययन के लिए जाना चाहता है, मगर लडक़ी के पिता उसे मनाते हुए गृहस्थ आश्रम का महत्व बताते हैं और वापस आने के लिए कहते हैं। फिर दूल्हा वापस मंडप में आ जाता है। मनौवल के बाद दूल्हे के वापस आ जाने के बाद दोनों वरमाला का आदान-प्रदान करते हैं। दोनों के मामा उन्हें अपने कंधों पर उठाते हैं और फिर वरमाला गले में डाली जाती है। उससे पहले थोड़ी चुहलबाजी होती है जैसे, दुल्हन के माला डालते समय दूल्हे के मामा उसे पीछे कर लेते हैं। इस तरह हंसी-मजाक के बीच वरमाला की रस्म होती है। इसे मलय मात्रल कहा जाता है। ओंजल रस्म में दूल्हा-दुल्हन को झूले पर बैठाकर मंगल गीत गाए जाते हैं। लडक़ी के घर वाले लडक़े के लिए और लडक़े के घरवाले लडक़ी के लिए लाए गए तोहफे भेंट करते हैं। फिर दोनों की नजर उतारी जाती है और धीरे-धीरे झूला झुलाया जाता है। विवाह से पहले लडक़ी के घरवाले लडक़े के पैर धोते हैं। लडक़ी के पिता मंडप में बैठते हैं और नौ गज की साड़ी में सजी दुल्हन को पिता की गोद में बिठाया जाता है। फिर उसका हाथ दूल्हे के हाथ में दिया जाता है, यह कनिका दानम यानी कन्यादान की रस्म है।

कंकणा धारनम में दूल्हा-दुल्हन की कलाई पर हल्दी लगा एक धागा बांधती है और वह दुल्हन को धागा बांधता है। इसके बाद मांगल्य धारणम की रस्म होती है जिसमें निर्धारित मुहूर्त पर मंगलसूत्र बांधा जाता है। इसके साथ ही उसके हाथ पर फिर पीला धागा बांधा जाता है। अब सप्तपदी की बारी आती है, लडक़ी की मामी सिलबट्टे पर उसका पैर रखकर बिछुए पहनाती है, फिर सप्तपदी के फेरे होते हैं। इसके बाद दूल्हा और दुल्हन को बाहर ले जाकर अरुंधती नक्षत्र दिखाया जाता है। दोनों अपने बड़ों से आशीर्वाद लेते हैं। वापस आकर कुछ मजेदार खेल खेले जाते हैं और विदाई की तैयारी होने लगती है। अगले दिन विदाई से पहले सारी बारात को पारंपरिक दक्षिण भारतीय भोजन कराने के साथ ही सफर के लिए भी भोजन बांधकर देने का रिवाज है जो पहले बांस की पारंपरिक टोकरियों में दिया जाता था।

 

देवतातुल्य दामाद

बिहार में मिथिलांचल की शादियों की रस्में और रिवाज जहां आनंद से भरपूर होते हैं, वहीं शादियों के दौरान किए जाने वाले विधि-विधान जीवन को सार्थक बनाने का संदेश भी देते हैं। मिथिलांचल में दूल्हे को देवतातुल्य आदर सत्कार दिया जाता है। यहां की शादियों की खास विशेषता यह है कि यहां मेहमानों का स्वागत माछ यानी मछली, पान और मखाने से किया जाता है। द्वारपूजा से लेकर विवाह के मंडप तक रस्मों के साथ-साथ हंसी-मजाक का दौर चलता रहता है। मिथिलांचल के साथ बिहार के अन्य क्षेत्रों में भी शादियों के रीति-रिवाज प्रेरणा और आने वाले जीवन को आनंदित करने वाले हैं। शादी की शुरुआत में जहां तिलक में धान का आदान-प्रदान कर दो परिवारों के एक होने को दर्शाया जाता है वहीं हल्दी, उबटन की रस्म अदा कर मांगलिक कार्य की शुरुआत की जाती है। मटकोर एवं घृतढारी शादी की महत्वपूर्ण रस्म है। मटकोर में खोदी गई मिट्टी लाकर मंडप तैयार होता है उसके अगले दिन घृतढारी की रस्म होती है, जिसमें अपने पितरों का पूजन कर आशीर्वाद लिया जाता है। शादी में द्वारपूजन भी एक संदेश देता है जिसमें दूल्हे के दरवाजे पर आने पर सास-ससुर माला पहनाकर उसका मुंह मीठा करते हैं और दूध पिलाकर मंडप तक लडक़ी का बहनोई गोद में उठाकर लेकर जाता है। मंडप पर गुड़हत्थी के बाद सिंदूरदान और कन्यादान होता है। यह पल वधू पक्ष के लिए काफी भावुक होता है। कन्यादान के उपरांत कोहबर की रस्म होती है जो शादी की अभिन्न रस्म है। कोहबर को बहुत खूबसूरती से सजाया जाता है। सर्वप्रथम वर-वधू को पति-पत्नी के रूप में कोहबर में ही थोड़ी देर के लिए रखा जाता है। कहीं-कहीं वधू की गोद में बच्चा देने की प्रथा है जो उनके आने वाले जीवन को हरा-भरा और वंश आगे बढ़ाने का संदेश देता है। शादी के बाद सलामी और चौठारी होता है जब दुल्हन अपने ससुराल आती है। चौठारी के दिन दुल्हन को रसोई छुआई जाती है। पहली बार वह ससुराल में मीठा बनाती है। मिथिलांचल की शादी इस मायने में देश के अन्य सभी क्षेत्रों से अलग है कि यहां दुल्हन शादी के अगले दिन विदा नहीं होती बल्कि दूल्हा अपने ससुराल में रुकता है। शादी के चौथे दिन चतुर्थी की पूजा होती है और उसके बाद शुभ मुहूर्त देखकर दुल्हन को ससुराल भेजा जाता है जिसे द्विरागमन कहा जाता है।

 

पहाड़ों में बंटती है सबके साथ खुशी

हिमालय और उत्तराखंड में आज भी विवाह की ऐसी लोकरीतियां प्रचलित हैं जिनके बिना विवाह संस्कार अधूरा समझा जाता है। उत्तराखंड में विवाह समारोह लगभग तीन दिन पहले कन्या और वर पक्ष के यहां शुरू हो जाता है जिसे पूर्वांग पूजन कहा जाता है। इस दिन महिलाओं द्वारा 'सुवालपथाई’ थाने समद्यूड़ा को भेजे जाने वाले पकवान तैयार किए जाते हैं। इनमें तिल के लड्डू, पापड़ी, पूरी और समधी-समधन के चेहरे की प्रतिकृतियां तैयार करके भी भेजी जाती हैं। पूर्वांग पूजन के ही दिन कंकण बंधन किया जाता है। उसके बाद वर-कन्या घर से बाहर नहीं जाते। वर पक्ष जब बारात लेकर कन्या के द्वार पहुंचता है तो वर के चरण धोए जाते हैं। वर का वैदिक मंत्रोच्चार के साथ वरण किया जाता है। कन्यादान संकल्प के साथ विवाह होता है। कन्या पक्ष के लोग विदाई तक निराहार व्रत रखते हैं। विदाई के बाद उत्तरांगपूजन, तिलपात्र दान गोदान के बाद कन्या के माता-पिता और पारिवारिक कुटुंबी भोजन ग्रहण करते हैं। इस परंपरा का आज भी उत्तराखंड में बड़ी सावधानी से निर्वाह किया जाता है। वधू के नए घर में प्रवेश के समय ज्योति पूजन होता है। इसी दिन वाणीपूजन (नौल सिलाना) होता है, जिसमें पूजन सामग्री और कल्प पात्र को सिर पर रखकर नववधू महिलाओं के मंगल गीतों के साथ अपने गांव के जलस्रोत पर पहुंचती है। साथ में वर भी होता है। वहां पहुंचकर वर-वधू मुंह धोते हैं और एक-दूसरे को तिलक करते हैं। उत्तराखंड में बारात वापसी में प्राचीन काल से रास्ते भर गुड़ मिष्ठान बांटने की परंपरा चली आ रही है।

 

उडिय़ा परंपरा में प्यारी मां मंडप से दूर

उडिय़ा विवाह में वर और बहू को सर्वाधिक प्यार देने वाली संवेदनशील मां विवाह मंडप से दूर रहती है। पहले वर और बारात के निवास या बाहर से आने पर अस्थायी आवास केंद्र पर वर का भाई (वरधरा) दूल्हे को आमंत्रित करने जाता है। पंडित या एक-दो नजदीकी रिश्तेदार साथ होते हैं। फिर जब वर बारात के साथ विवाह के लिए रवाना होता है, तो उसकी प्यारी मां बेटे का मुंह आंचल से पोंछकर तिलक-अक्षत लगाकर विदा करती है। परंपरा मानने वाले परिवार में वह स्वयं बारात के साथ नहीं जाती और न ही विवाह-मंडप में उपस्थित रहती है। वह तो विवाह संपन्न होने के बाद वर-वधू आने पर द्वार के सामने स्वागत टीका-आरती करती है। इसी तरह विवाह मंडप में परिणय सूत्र में बंधने और सप्तपदी के फेरे के समय भी बेटी की मां नहीं बैठती है। दरवाजे पर वर का स्वागत भी परिवार की भाभी, चाची, मामी, बहन इत्यादि करती हैं। संभवत: यह परंपरा इसलिए रही क्‍योंकि बेटा-बेटी एक तरह से नए जीवन के नए दौर में प्रवेश कर रहे होते हैं और बेहद संवेदनशील मां भावुक होकर विवाह के दौरान यह न महसूस करे कि बच्चे उससे दूर हो रहे। उडिय़ा समाज में एक परंपरा दूसरों से अलग है। यहां पितरों की पूजा शादी के बाद की जाती है।

वैसे अब शहरी समाज में शादियां सुविधा और दिखावे की भेंट चढ़ रही हैं। समय के साथ शादी के रीति-रिवाजों में बदलाव देखे जा रहे हैं। एक तरह से मौके के अनुसार शादी की रस्मों के साथ समझौता किए जाने की प्रवृîिा बढ़ी है। हालांकि यह प्रवृîिा पूर्व से पश्चिम की तरफ ज्यादा बढ़ी है। आज भी पुराने रीति-रिवाज पूर्वी जनपदों में निभाए जाते हैं। महानगरों में पंहुचते-पहुंचते वे रीति-रिवाज गायब होने लगते हैं। पहले पूर्वांचल में बहू के पहली बार ससुराल पंहुचने पर लोढ़ा से परछन किया जाता था। वह डलिया में एक पैर रखकर पति के घर में कदम रखती थी। अब एक थाली में कुमकुम घोल दिया जाता है, जिसमें पैर रखकर बहू लोटे में रखे चावल को पैर की ठोकर से गिराते हुए घर में प्रवेश करती है। लोढ़े से परछन आरती में बदल गई है। नहछू नहावन प्रथा भी लगभग खत्म हो रही है। इसमें दुल्हन को पीली साड़ी पहनाई जाती थी और उसे परदे में छिपाकर रखा जाता था। इसके बाद लडक़ी के नाखून काटकर उसे दूल्हे के नहान के पानी से भी नहलाया जाता था। कुछ जगहों पर दूल्हे को परात के ऊपर नहलाया जाता था। जो पानी दूल्हे के बदन से होकर परात में गिरता था उसे एक लोटे में भरकर दुल्हन के नहाने के लिए भिजवाया जाता था। कुछ स्थानों पर दूल्हे के पैर के अंगूठे से ही पानी को स्पर्श कराकर दुल्हन के पास भेज दिया जाता था। जयप्रकाश सिंह बताते हैं कि पहले अग्नि के चारों तरफ दूल्हा-दुल्हन द्वारा सात फेरे लेने की भी रस्म नहीं थी। दूल्हे की पगड़ी को नाई सात बार मंडप में घुमाता था और इसे ही फेरे मान लिए जाते थे। दूल्हे का मंडप में रहना जरूरी नहीं होता था। पगड़ी की जगह तलवार को भी मंडप में घुमाकर शादी हो जाती थी। आचार्य चतुरसेन के उपन्यास गोली में इसका जिफ् भी है। पहले एक और महत्वपूर्ण रस्म हुआ करती थी, सिंदूरदान। यह रस्म अब भी होती है लेकिन पहले इसे छिपाकर किया जाता था ताकि कोई इसे न देख सके। खासकर दूल्हा-दुल्हन के मां-पिता को इस रस्म से दूर रखा जाता था। सिर्फ खास रिश्तेदार ही मंडप में मौजूद होते थे। लेकिन अब तो मां-पिता सबसे आगे मौजूद रहते हैं। समधी के लिए रात में रखी गई रस्म बड़हार तो गायब ही हो गई है। इसे समधी के भात नाम से भी जाना जाता है। इस भात में समधी को नेग दिए जाते थे। समधी के कौर उठाने के बाद ही अन्य लोग भोजन शुरू करते थे। इस रस्म का असली आकर्षण दूल्हे का रूठना होता था। दूल्हा अपनी ससुराल से कीमती वस्तु की मांग करता था। ससुराल पक्ष अपनी असमर्थता जताते हुए मांग को अस्वीकृत करता था या कोई अन्य विकल्प सुझाता था। यह मान-मनौवल ही सबके आकर्षण का केंद्र होती थी। सभी लोग यह जानने को उत्सुक होते थे कि किस बात पर अंतिम रजामंदी हुई। पूर्वांचल में शादी के दौरान गालियां सुनाने की भी परंपरा है। हालांकि गालियों की रस्म अभी भी बनी हुई है लेकिन ये गांवों तक सीमित हो गई है। शांति चौधरी बताती हैं कि पहले पहाडिय़ों में सगाई, गोदभराई और तिलक जैसी कोई भी रस्म नहीं होती थी। लडक़े के यहां से बड़हाली आती थी जिसमें गहने, कपड़े फल-फूल होते थे। यह बड़हाली लडक़ी वाले अपने रिश्तेदारों में बांट देते थे। पहाडिय़ों में शादी से पहले लडक़ी न लडक़े को देखती थी न बारातियों को। कन्यादान से पहले दोनों के बीच परदा लगा दिया जाता था। शादी के बाद ही लडक़ी अपने दूल्हे को देख पाती थी। अब तो जयमाल होता है। हल्दी हाथ की रस्म भी खत्म हो गई है। नाई और नाउन की भूमिका भी सीमित होती जा रही है। पहले किसी भी रस्म के लिए लडक़ी आगे बढऩे पर नाई-नाउन को नेग देती थी। अब तो जो न्योछावर होता है, उसे बैंड वाले ले जाते हैं। बंगालियों में शादी से पहले आईबुड़ो भात की रस्म होती थी। शादी से पहले लडक़ी के घर में खाना नहीं पकता था। वह अपने रिश्तेदारों के घर जाकर आईबुड़ो भात खाती थी। यह एक तरह से रिश्तेदारों द्वारा दिया गया विदाई भोज होता था। बंगाली शादी में शादी से पहले लडक़ी-लडक़े को नहीं देखती है। लडक़ी को पीढ़े पर बैठाया जाता है और भाई उसे पीढ़े सहित उठा कर दूल्हे के आसपास घूमते हैं। इस दौरान लडक़ी अपनी आंखें पान के पत्तों से ढक कर रखती है। इसके बाद पंडित के मंत्रोच्चार के बाद लडक़ी पत्ता हटा कर लडक़े पर नजर डालती है, जिसे शुभोदृष्टि कहते हैं।

 

लमसेना की खुशी

शहरी समाज से अलग आदिवासी समाज में शादी में शोर नहीं होता लेकिन पारंपरिक गाजे-बाजे की कमी नहीं होती। यहां शहरी समाज से ज्यादा खुलापन है। वनवासियों के ब्‍याह का संसार बहुत बहुरंगी है। गौंड आदिवासी गौंडों के बीच ही वैवाहिक रिश्ते करते हैं। लेकिन ब्राह्मणों की तरह एक गोत्र में शादियां गौडों में भी नहीं होतीं। यह उनके और पूरे देवताओं को मानने वालों में विभाजित हैं। जिन गोत्र के देवताओं की संख्‍या 1-3-5-।  होती है उनमें परस्पर विवाह नहीं हो सकता। उनके देवताओं को मानने वाले पूरे देवता को मानने वाले गौंडों में शादी करते हैं। मरावी गोत्र वाले । देवता मानते हैं तो उईके गोत्र वाले 5 देवता मानते हैं। उत्तर भारत में हिंदुओं में आमतौर पर ममेरी बहन और ममेरे भाइयों में शादी नहीं होती है। लेकिन गौंडों में अपनी संतान के लिए बहन की संतान उपयुक्‍त मानी जाती है। वे मानते हैं कि बहन की लडक़ी को पुत्रवधू बनाने पर दूध लौटाने की प्रथा को मान्यता मिलती है। गौंड कन्या की मां को दूध का कर्ज उतारने के लिए नए कपड़े लेने की अनिवार्यता होती है इसे माई शादी कहते हैं। पत्नी से संतान न होने या मर जाने पर पुरुष अपनी कुंवारी साली से विवाह कर सकता है। गौंडों में बहुपत्नी प्रथा भी प्रचलित है। लेकिन इसका मकसद राजशाही नहीं बल्कि खेती मजदूरी के काम में हाथ बंटाने में मदद का भाव रहता है। गौंडों में स्वयंवर का भी प्रावधान है। कन्या अपनी इच्छा से हल्दी मिला पानी जिस लडक़े पर डाल देती है वही उसका वर होता है। उसके बाद संपन्न परिवारों के घरों में विधिपूर्वक विवाह की रस्म होती है। गरीब गौंड लडक़ों के लिए लमसेना का भी प्रावधान है। गरीब लडक़ा अपने भावी ससुर के खेतों में मेहनत मजदूरी करता है। सेवा की अवधि पूरी होने पर ससुर अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर देता है। यह लडक़ा लमसेना कहलाता है। इनमें आटो-सांटो विवाह भी प्रचलित है। दो कुटुंब में लडक़े-लडक़ी हैं तो आपस में वह एक-दूसरे की शादी करा देते हैं।

मध्यप्रदेश में छिंदवाड़ा जिले में तामिया के पास पाताल कोट में भारिया जनजाति रहती है। वैसे तो भारियाओं में 51 गोत्र हैं लेकिन मौजूदा पीढ़ी 15-16 गोत्र ही मानती है। भारिया विलुप्त होती जनजाति है लेकिन उनमें वयस्क होने पर ही विवाह का प्रावधान है। शादी का प्रस्ताव लडक़े का पिता अपने मित्रों के जरिए भेजता है। लडक़ी का पिता राजी हो तो वह लडक़े के पिता और उसके मित्रों को भोजन पर आमंत्रित करता है। वर का पिता भेंट स्वरूप गले का हार और टिकली लाता है। उनके यहां शादी ब्राह्मण ही कराता है। भारिया में भी समगोत्र विवाह नहीं है। लेकिन मामा-फूफा के बच्चों में शादी शुभ मानी जाती है। भारियाओं में मंगनी विवाह राजी बाजी विवाह के साथ लमसेना विवाह की भी प्रथा है। भीलों में सिर्फ अपनी ही उपजाति में विवाह की स्वीकृति है। राठया केवल राठया में, बारेला अपने ही गोत्र में शादी कर सकते हैं। भीलों और भिलालाओं तथा पटलिया भीलों में भी समान गोत्र में विवाह नहीं होते। उनकी गोत्र व्यवस्था राजपूत शैली की है।

झारखंड के जनजातीय समाज में भी सामाजिक संस्कारों का खासा महत्व है। विवाह संस्कार पारंपरिक अंदाज में किए जाते हैं। अलग-अलग जनजातीय समाज में विवाह की रीतियां अलग होती हैं। कुछ रिवाज सभी जनजातियों में समान होते हैं। जनजातियां अमूमन अपनी जातीय सीमाओं के अंदर ही विवाह करती हैं। समान गोत्र यहां के आदिवासी समाज में भी वर्जित है। झारखंड के जनजातीय समाज में मुख्‍य रूप से फ्य विवाह, सेवा विवाह, हठ विवाह, हरण विवाह, विनिमय विवाह और पलायन विवाह जैसे कई तरीके चलते हैं। फ्य विवाह में वधू पाने के लिए वधू के माता-पिता या रिश्तेदारों को कुछ धन देना पड़ता है। संतालों में फ्य विवाह को सादाई बापला कहते हैं। इस तरह के विवाह में घर देखी, तिलक चढ़ी और टका चाल की रस्में होती हैं। टका चाल की रस्म में वधू के पिता को पोन शुल्क दिया जाता है। सेवा विवाह में संतालों में वधू के लिए पोन नहीं देना पड़ता, लेकिन वर को कम से कम पांच साल ससुराल में रहना पड़ता है। सेवा विवाह को संताली घरदी जावांय बापला कहते हैं और विनिमय विवाह को गोलाइटी बापला। इसमें पोन का लेन-देन नहीं होता। मुंडा जनजाति में फ्य शादी में दिए जाने वाले कन्या शुल्क को कुरी गोनोंग कहा जाता है। मुंडा जनजाति में सेवा विवाह, हरण विवाह और हठ विवाह सहित पलायन विवाह के भी कुछ-कुछ उदाहरण मिलते हैं। पलायन विवाह को मुंडा जनजाति में राजी-खुशी विवाह कहा जाता है। हो जनजाति में फ्य विवाह को अंदी कहा जाता है। हो जाति में कन्या मूल्य अक्‍सर काफी अधिक रखा जाता है। हठ विवाह को अनादर विवाह कहा जाता है। इस जनजाति में राजी-खुशी विवाह भी होते हैं। बिरहोर जनजाति में फ्य विवाह को सदर बापला कहा जाता है। विवाह की यह प्रथा बिरहोर में ज्यादा प्रचलित है। इस जनजाति के लोग सेवा विवाह को कीरींग जमाई बापला भी कहते हैं। इसमें हरण विवाह भी चलता है। उसे उडरा-उडरी बापला कहते हैं। हठ विवाह को बोला बापला भी कहा जाता है। उसमें युवती शादी के लिए उस युवक के घर में चली जाती है, जिसको वह प्रेम करती है। यदि युवक प्रेमी है और विवाह के लिए युवती को घर में आने को प्रेरित करता है, तो उसे सीमंदर बापला कहा जाता है। बिरहोर में प्रेम विवाह भी चलता है। इस जनजाति में विनिमय विवाह को गोलहर बापला कहा जाता है। खडिय़ा जनजाति में फ्य विवाह को असली विवाह कहा जाता है। उसे युवक-युवती के माता-पिता द्वारा निश्चित किया जाता है। इस जनजाति में हरण विवाह की प्रथा लगभग खत्म है। हठ विवाह और पलायन विवाह भी अब प्रचलन में नहीं दिखते। सौरिया पहाडिय़ा में ज्यादातर हरण विवाह होते हैं।

पूर्वोत्तर समाज में प्यार और फिर शादी पर कोई बंदिश नहीं है। यहां शादी के तरीके बेहद रोचक होते हैं। अधिकांश मामले में युवक-युवती पहले ही अपने जीवनसाथी का चुनाव कर लेते हैं और कुछ दिनों बाद इसकी सूचना घरवालों को दे देते हैं। असम में तो गैरजनजातीय लोगों में जाति और गोत्र की भी सीमा नहीं होती है। पूर्वोत्तर का जनजातीय समाज शादी-विवाह के नियमों के मामले में बहुत कट्टर है। लेकिन फिर भी हत्या या जोड़े को परेशान करने की घटनाएं नहीं होतीं। जो समाज के नियमों को नहीं मानता, उन्हें समाज में रहने का अधिकार नहीं है। यहां का समाज इस अवधारणा पर चलता है कि यदि सख्‍ती नहीं बरती जाएगी तो उनका समाज बिखर जाएगा जिसे वे बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है। एक जनजाति की दूसरी जनजाति में शादी नहीं हो सकती है। बोडो असम की प्रमुख जनजाति है। इस जनजाति में गोत्र की बंदिश तो है लेकिन शिक्षा और आधुनिकता की बयार में बहुत कट्टरता नहीं बची है। ऐसे मामले को अब नजरअदांज भी किया जाने लगा है। बोडो में शादी की एक प्रथा है, खर चनाई। इस प्रथा में लडक़ी स्वेच्छा से अपने प्रेमी के घर चली जाती है। प्रेमी के घर वाले प्रेमिका के घर शादी का प्रस्ताव लेकर जाते हैं। लडक़ी भागने या भगाने के सवाल पर पंचायत की बैठक होती है। उसमें लडक़े वाले की आर्थिक स्थिति के आधार पर जुर्माना लगता है। उसके बाद शादी को सामाजिक रूप मान्यता मिलती है।

देवरी जनजाति में प्रेमी-प्रेमिका के भागकर शादी कर लेने पर समाज को विशेष आपîिा नहीं होती, बशर्ते दोनों की सहमति हो और दोनों अलग-अलग गोत्र के हों। यदि दोनों एक गोत्र के रहें तो मुश्किल आ जाती है। तब समाज की पंचायत लडक़े को सजा सुनाती है जिसके तहत जुर्माना लगाया जाता है। यदि गोत्र अलग-अलग रहे तो भागकर शादी करने (गंधर्व विवाह) को भी सामाजिक मान्यता मिलती है। इसके लिए कम से कम तीन गोत्रों के मुखिया को लडक़े के घर बुलाकर भोज देना होता है। ऐसी शादी में लडक़ा अपनी प्रेमिका की सहमति से उसके घर के पास से उसका अपहरण कर लेता है और अपने घर ले जाता है। दूसरे दिन इस बात की सूचना लडक़े के गांव वाले को दी जाती है। तब वर पक्ष के कुछ लोग लडक़ी के घर जाकर उसके पिता को इस बात की जानकारी देते हैं। लडक़ी वाले शादी के लिए सहमत हों, इसके लिए कुछ उपहार आदि देने होते हैं। कार्बी जनजाति में किसी भी हालत में समान गोत्र में शादी नहीं हो सकती है। कार्बी युवक-युवती अपनी जनजाति के बाहर भी शादी कर सकते हैं। बस वह सगोत्रीय नहीं होनी चाहिए। कई जनजातियों में बहु विवाह की प्रथा है, लेकिन कार्बी में एक पत्नी के रहते दूसरी पत्नी लाना संभव नहीं है। मिसिंग जनजाति में तो प्रेमी को अपनी प्रेमिका के घर जाकर रहना पड़ता है और इस दौरान घर के अन्य मर्दों की तरह उसे भी खेत में काम करना पड़ता है। इसमें भी अलग गोत्रों की अनिवार्यता है। असम-मिजोरम और मणिपुर की सीमा पर रहने वाली ह्मार जनजाति उदार है। गोत्र का कोई प्रतिबंध नहीं होता है। रेग्मा नगा जनजाति में समान गोत्र में शादी करने पर युगल जोड़े को जुर्माने के साथ सामाजिक बहिष्कार की यातना सहनी पड़ती है। यदि लडक़ी दूसरे गोत्र की रही तो उसके घर वाले शादी का प्रस्ताव लेकर जाते हैं। फिर लडक़ा प्रेमिका के घर पर काम करता है। उसके बाद शादी की तिथि तय होती है। मेघालय और असम में रहने वाली गारो जनजाति में गोत्र की मनाही है। इस समाज में शादी का प्रस्ताव लडक़ी के घर से आता है, क्‍योंकि शादी की पहल लडक़ी को ही करनी पड़ती है। हाजोंग जनजाति में एक गोत्र के लडक़े-लडक़ी को भाई-बहन माना जाता है, इसलिए अपने गोत्र में शादी किसी भी हालत में मान्य नहीं है। इतना ही नहीं अपनी जनजाति के बाहर के युवक से भी शादी मान्य नहीं है। इसका उल्लंघन करने पर युवा जोड़ा स्वत: सामाजिक रूप से बहिष्कृत हो जाता है। विशेष परिस्थिति में उन्हें जुर्माने के रूप में पूरे गांव को भोज देना पड़ता है। तभी उन्हें सामाजिक मान्यता मिलती है। ऐसा भोज काफी मंहगा होता है, इसलिए कोई साहस नहीं करता। यही स्थिति जयंतिया जनजाति में भी है। मेघालय की खासी जनजाति में तो एक गोत्र में शादी करना बहुत बड़ा पाप माना जाता है। ऐसे जोड़े को खासी समाज कभी माफ नहीं करता। भले ही उन्हें गैर खासी से विवाह की इजाजत है, क्‍योंकि गैर खासी के गोत्र अलग होते हैं। खासी समाज में प्यार और शादी की पहल युवती करती है। वह जिसे प्रेम करने लगती है, उससे शादी करती है। यदि लडक़े ने ना-नुकुर की तो उसे घर से उठा लिया जाता है। सामाजिक चलन की वजह से इसका विरोध नहीं होता है। लेकिन ऐसा तभी होता है, जब दोनों का गोत्र अलग-अलग हो। यदि किसी युगल जोड़ी ने एक ही गोत्र में शादी कर ली तो वह समाज में नहीं रह सकता। 

दुल्हे को सीख देती सिखिया

पंजाबी शादियां अपने धूम-धड़ाके के लिए प्रसिद्ध हैं। उससे उलट सिख समाज की शादियां कम शोरगुल में होती हैं। सिख समाज में शादी की रस्म को आनंद कारज कहते हैं। बीते जमाने में जब बारात तीन-चार दिन रुका करती थी तो आनंद कारज अमृत समय यानी अलसुबह हो जाया करते थे। वक्‍त बीतने के साथ अब समय बदल कर दिन चढऩे तक खिंच गया है। हालांकि समय को लेकर कोई बंदिश नहीं है लेकिन फिर भी आनंद कारज दोपहर 12 बजे से पहले हो जाता है। गुरुद्वारे में गुरुग्रंथ साहिब के इर्द-गिर्द चार लांवे (फेरे) होते हैं। गुरुग्रंथ साहिब में मौजूद लांवे का पाठ किया जाता है जिसे चौथे पातशाही गुरु रामदास जी ने लिखा है। लांवा पाठ में आत्मा-परमात्मा के संबंध और गृहस्थ जीवन के महत्व के बारे में बताया गया है। पति-पत्नी की जिम्‍मेदारियां बताई गई हैं। ग्रंथी पहली लांव का पाठ करते हैं और कीर्तन करने वाले उस पाठ को गाते हैं। चार लांवे के बाद अरदास की जाती है और आनंद कारज संपन्न माना जाता है। कुछ शादियों में

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