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पुरातन सोच से है 'दंगल’

आमिर खान की नई फिल्म महिला पहलवानों से ज्यादा महिला विरोधी सोच पर तमाचा है
दंगल का एक दृश्य

हरियाणा के छोटे से गांव बलाली की कहानी ने इन दिनों बॉक्‍स ऑफिस पर धूम मचाई हुई है। पहलवान बहनों को देखने जैसे उस वक्‍त हरियाणा की जनता इकट्ठा  होती थी वैसे ही अब भीड़ भारत के तमाम शहरों के सिनेमाघरों में उमड़ रही है। यह पहलवान बहनों की कहानी से ज्यादा उनके पिता की कहानी है। यह कहानी दरअसल गीता-बबीता फोगाट से पहले महावीर सिंह फोगाट की कहानी है। एक सच्चे पहलवान की कहानी जिसने न सिर्फ मिट्टी में दंगल खेले बल्कि समाज के मौजूदा नियमों के विरुद्ध भी बखूबी कुश्ती लड़ी। दरअसल जो बात समाज को आगे बढ़ाती है वह काम से पहले सोच की होती है। महावीर फोगाट ने उस पुरुष सामंतवादी सोच पर पहली जीत दर्ज की और आमिर खान को एक बेहतरीन कहानी मिली जिसने उनकी अभिनय की टोपी में एक और सितारा जड़ दिया। हरियाणा का विरोधाभास इस फिल्म में बहुत अच्छे ढंग से आया है।

आमिर खान की नई फिल्म दंगल में ताली पीटने वाले संवाद, नायक-खलनायक की ढिशुम-टिशुम, शिफॉन की साड़ी वाला रोमांस, परदे को आग लगा देने वाला आइटम सांग सब नदारद है। पारंपरिक बॉलीवुड की लीक कई बार टूटी है और इसी शृंखला की एक और कड़ी है दंगल। दंगल से पहले भी कई बार खेल पर अच्छी फिल्में बनी हैं। लेकिन जब हरियाणा के एक गांव में बेटा पैदा होने का इंतजार कर रहे महावीर सिंह फोगाट और फिर चार बेटियों के बाद हमेशा के लिए खत्म उम्मीद की कहानी धीरे-धीरे परदे पर सरकती है तो दर्शक अचानक परदे के उस पार पहुंच कर महावीर सिंह फोगाट की जिद में शामिल हो जाते हैं। फिर 161 मिनट कैसे बीतते हैं पता नहीं चलता। खराब लिंगानुपात के लिए कुख्यात हरियाणा बेटियों पर कितना सख्त है यह किसी से छुपा नहीं है। सरकारी अस्पतालों पर लगातार छापे पड़ते हैं ताकि लिंग पहचान कर गर्भ गिराने के मामलों में कमी लाई जा सके। जब सन 2016 में हालात इतने खराब हैं तो फिर उस वक्‍त कितने खराब रहे होंगे जब महावीर फोगाट ने भले ही बेटे की उम्मीद में लेकिन चार बेटियों को जन्म लेने दिया। बाद में समाज से लड़ कर उस खेल के लिए प्रेरित किया जो पुरुषों में भी अब कम लोकप्रिय था। आमिर अपनी फिल्मों के लिए शोध बहुत करते हैं यह बात यूं ही नहीं कही जाती। फ्रेम दर फ्रेम यह बात फिल्म में दिखाई पड़ती है। आमिर ने एक सीन रचा है जिसमें बेटियां धूल में बाल खराब होने का बहाना बनाती है ताकि पहलवानी से पीछा छूटे। पिता महावीर बेटियों का सिर मुंडा देते हैं। वही बेटी जब राष्ट्रीय खेल अकादमी पहुंच कर बाल बढ़ाती है और घर लौटती है तो पिता का पहला सवाल होता है, 'बाल बढ़ा लिए तेने?’ बहुत बारीकी से आमिर इस सीन के मार्फत बताना चाहते हैं कि अनुशासन लिंग देख कर तय नहीं होता। यहां वह अंडरटोन भी रेखांकित होता है कि निर्मम पुरुष समाज में लडक़ी बन कर जीना इतना आसान नहीं। बाद में गीता अपने बढ़े हुए बाल काट कर फिर अपने पिता पर विश्वास जाहिर करती है। यह आमिर का करिश्मा ही है जो निर्देशक नितेश तिवारी के बजाय आमिर की ही बात हो रही है।

भारत में खिलाड़ी गिने-चुने रहे हैं और उन पर भी उंगलियों पर गिनने लायक फिल्में बनी हैं। 1983 में पहली बार क्रिकेट के विश्वविजेता बनने के बाद भी सुनहरे परदे को वह रोमांच महसूस नहीं हुआ कि फिल्म बन सकती। हॉकी के जादूगर ध्यानचंद की कहानी आज तक बॉलीवुड का सफर तय नहीं कर पाई। बॉलीवुड में रोमांस, एक्‍शन और रिएलिटी सिनेमा के खांचों के बीच बायोपिक बनाना निर्माता-निर्देशक हमेशा से जोखिम मानते रहे हैं। खिलाडिय़ों का परिवार आसानी से बॉलीवुड को हरी झंडी नहीं देता। संभवत: पहली बार जयदीप साहनी ने ही व्यक्ति और विवाद के संतुलन को बेहतर ढंग से समझ कर चक दे इंडिया की पटकथा लिखी। जब भारत ने कुश्ती में अपना दमखम दिखाना शुरू किया तब बॉलीवुड ने सुल्तान परोसी और अब साल के अंत में दंगल ने सारी फिल्मों को नॉक आऊट कर दिया है। बॉलीवुड को यहीं नहीं थमना है, हरियाणा की एक और छोरी साक्षी मलिक खेलों के मक्‍का ओलंपिक से कांसा झटक लाई है। हरियाणे की छोरियां अभी थमेंगी नहीं तो बॉलीवुड कैसे रुकेगा। अभी तो सिलसिला शुरू हुआ है।

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