झारखंड में एक अजीब किस्म की खामोशी छाई हुई है। यह खामोशी किसी तूफान का संकेत कर रही है। इस तूफान की जमीन किसी और ने नहीं, बल्कि खुद सरकार ने तैयार की है। छोटानागपुर-संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी-एसपीटी एक्ट) में संशोधन के रूप में जिस तूफान की चर्चा यहां हम कर रहे हैं, उसका ट्रेलर मुख्यमंत्री रघुवर दास खुद देख चुके हैं।
नए साल के पहले दिन मुख्यमंत्री सरायकेला-खरसावां गए थे। वहां उन्हें खरसावां गोलीकांड के शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करनी थी। झारखंड मुक्ति मोर्चा ने पहले ही ऐलान कर दिया था कि वह मुख्यमंत्री का विरोध करेगा। राज्य की खुफिया एजेंसी भी आशंका व्यक्त कर चुकी थी कि कार्यक्रम स्थल पर कुछ भी हो सकता है। हुआ भी ऐसा ही। रघुवर दास को दो साल में पहली बार आम लोगों का इतना तीव्र विरोध झेलना पड़ा। उन्हें काले झंडे दिखाए गए। जूते-चप्पल तक उछाले गए। यह सब पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में हुआ।
भीड़ ने तमाम सुरक्षा व्यवस्थाओं को धता बताते हुए मुख्यमंत्री के शहीद स्थल पर पहुंचते ही नारेबाजी शुरू कर दी। लोगों ने सीएम का काफिला रोक दिया और शहीद वेदी का मुख्य गेट बंद कर दिया। सीएम करीब सात मिनट तक शहीद वेदी के गेट के बाहर बेबस खड़े रहे। भीड़ ने इसके बाद उन्हें अंदर जाने दिया। श्रद्धांजलि अर्पित कर वापस आने के क्रम में भी मुख्यमंत्री का विरोध हुआ। इसी दौरान भीड़ ने चप्पल-जूते उछाले।
मुख्यमंत्री बनने के बाद रघुवर दास हर साल खरसावां शहीद दिवस पर शहीदों को श्रद्धांजलि देने पहुंचते हैं। विरोध का यह पहला मौका नहीं था। इससे दो दिन पहले रघुवर खूंटी के जादुप गांव में बिजली परियोजनाओं का शिलान्यास करने पहुंचे थे। वहां भी आदिवासी संगठनों ने उन्हें काला झंडा दिखाने की कोशिश की। हालांकि पुलिस प्रशासन ने विरोध कर रहे लोगों को कार्यक्रम स्थल से दो किलोमीटर पहले ही रोक दिया था, लेकिन मुख्यमंत्री का विरोध दर्ज हो गया।
हालांकि सरायकेला-खरसावां की घटना के फौरन बाद वहां के उपायुक्त और पुलिस कप्तान का तबादला कर दिया गया, लेकिन इन दोनों घटनाओं ने साबित कर दिया है कि झारखंड के आदिवासी अब अपने हितों की रक्षा के लिए आर-पार की लड़ाई के मूड में हैं। दरअसल झारखंड के आदिवासी-मूलवासी पहले से ही आक्रोशित हैं। डोमिसाइल और 1932 के खतियान को लेकर आदिवासियों का गुस्सा यदा-कदा परिलक्षित होता रहता है, लेकिन इस गुस्से की आग में घी का काम सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन की कोशिश ने कर दिया है। रघुवर सरकार ने जिस जल्दबाजी और गुपचुप ढंग से इन कानूनों में संशोधन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है, उसे आदिवासी पचा नहीं पा रहे हैं। उन्हें लगता है कि रघुवर सरकार उनके हितों के खिलाफ काम कर रही है।
आदिवासियों के विरोध को झारखंड मुक्तिमोर्चा समेत दूसरे विरोधी दल उचित मानते हैं। झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन कहते हैं, 'रघुवर सरकार ने जो बोया है, उसका ही फल उसे मिल रहा है। यह सरकार आदिवासी विरोधी है।’ लेकिन रघुवर कहते हैं, 'शहीद स्थल पर झामुमो ने जिस तरह की राजनीति की, उसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम है। शहीद किसी पार्टी विशेष का नहीं होता। राज्य की ओर से शहीदों को श्रद्धांजलि देने वह गए थे, राजनीति करने नहीं। इस तरह से विरोध कर उन्होंने शहीदों का अपमान किया है। शहीदों के नाम पर क्षुद्र राजनीति की है।’
झारखंड की राजनीतिक-सामाजिक स्थिति पर पैनी नजर रखनेवाले विश्लेषक मानते हैं कि सीएम का विरोध राजनीतिक न होकर सामाजिक था। विरोधियों के हाथों में भले ही झामुमो का झंडा था, लेकिन उनकी आवाज आम आदिवासी की आवाज थी। झारखंड के आदिवासी खुद को मुख्य धारा से अलग महसूस करने लगे हैं। यह खतरनाक सामाजिक बिखराव की ओर संकेत करता है। समाजशास्त्री डा. नरेश कुंडू मानते हैं कि आदिवासी अगर एक बार सामाजिक रूप से कट गए, तो फिर उन्हें जोडऩे के लिए दशकों लग जाएंगे। यह न तो झारखंड के लिए और न ही देश के लिए अच्छा होगा। इसलिए बेहतर यही होगा कि इस मुद्दे को राजनीतिक चश्मे से नहीं, बल्कि सामाजिक नजरिए से देखा जाना चाहिए।