दिल्ली विश्व पुस्तक मेला का आगाज होने के साथ पुस्तक प्रेमियों की भीड़ प्रगति मैदान में उमड़ रही है। हालांकि हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सबसे अधिक भीड़ बच्चों से संबंधित किताब बेचने वाले प्रकाशकों के स्टालों पर ही दिख रही है मगर खास बात यह है कि कालजयी किताबों और कालजयी लेखकों की रचनाओं की मांग में कोई कमी नहीं आई है। प्रेमचंद या शरतचंद्र की किताबें हाथों-हाथ बिक रही हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास यानी एनबीटी द्वारा आयोजित इस पुस्तक मेले में उमड़े लोगों की संख्या दिखाती है कि किताबों को लेकर लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ है। यह स्थिति तब है जबकि हिंदी और अंग्रेजी के कई नामचीन प्रकाशकों ने इस बार मेले से दूरी बना ली है। पिछले वर्ष के मुकाबले इस बार करीब 300 प्रकाशकों ने मेले से खुद को दूर रखा है। मेले में इस बार दूसरी परंपराएं भी टूटी हैं। किसी देश को थीम बनाने के बजाय इस बार महिला लेखन और महिलाओं पर आधारित लेखन 'मानुषी’ को मुख्य थीम बनाया गया है। एनबीटी के अध्यक्ष बलदेव भाई शर्मा के अनुसार पुस्तक मेला दरअसल एक बौद्धिक पड़ाव है। प्रकाशक, पुस्तक क्रेता-बिक्रेता, साहित्य-कला प्रेमी, मीडिया सब मिलकर इसको एक अच्छे, यादगार पायदान पर पहुंचाते हैं। मेले में नोटबंदी का असर भी खास देखने को नहीं मिल रहा है क्योंकि कैशलेस भुगतान की पर्याप्त व्यवस्था हर ओर दिख रही है।
पुस्तक मेले में भले ही भीड़ उमड़ रही हो मगर प्रकाशन जगत लगातार यह दुखड़ा रोता रहा है कि हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की पुस्तकें बहुत ज्यादा नहीं बिकतीं। इसे देखते हुए आउटलुक ने इस बार यह पड़ताल करने का प्रयास किया कि आखिर सच्चाई क्या है। क्या सच में हिंदी का पाठक किताबें खरीदकर पढऩे में हिचकने लगा है या उसकी पसंद बदलने लगी है। इस बारे में आउटलुक ने कुछ प्रकाशकों से बात की तो पता चला कि आज भी कालजयी पुस्तकों और लेखकों का जलवा कायम है। मेला ही नहीं, आम दिनों में भी ऐसी किताबें खूब बिकती हैं मगर यदि बात हम नए दौर की किताबों की करें तो अंग्रेजी से अनूदित कुछ पुस्तकें तो ठीक-ठाक बिक जाती हैं मगर मूल हिंदी में ही रचे गए साहित्य को वास्तव में पाठक मिलने में मुश्किलें आती हैं।
सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज कहते हैं कि उनके प्रकाशन की सबसे अधिक बिकने वाली किताबों में चित्रा मुद्गल की आवां प्रमुख है जिसके अबतक कुल 12 संस्करण बिक चुके हैं। आवां के अलावा नासिरा शर्मा की कुइंया जान और मृदुला गर्ग की मिल जुल मन के छह-छह संस्करण बिक चुके हैं।
हिंदयुग्म के शैलेश भारतवासी कहते हैं कि हाल में किसी किताब की एक लाख प्रतियां बिक जाने के दावे को असलियत की कसौटी पर परखने की जरूरत है
क्योंकि उनके यहां से प्रकाशित सत्य व्यास के उपन्यास बनारस टॉकीज की 14 हजार प्रतियां बिकी हैं। उपन्यास 2015 में सबसे पहली बार प्रकाशित हुआ था और तबसे इसके रीप्रिंट हो रहे हैं। इसके अलावा हिंदयुग्म-वेस्टलैंड से दिव्य प्रकाश दुबे की मुसाफिर कैफे साल 2016 के सितंबर में छपी थी और तब से इसकी 10 हजार से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। हिंदयुग्म से ही निखिल सचान का कहानी संग्रह नमक स्वादानुसार 2013 में छपा और इसकी भी करीब 10 हजार प्रतियां बिक चुकी हैं।
राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी बताते हैं कि उनके प्रकाशन की सबसे अधिक बिकने वाली किताबों में श्रीलाल शुक्ल की राग दरबारी, फणीश्वरनाथ रेणु की मैला आंचल और भगवतीचरण वर्मा की चित्रलेखा शामिल हैं। इनकी एक लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। इसके अलावा पिछले 4 साल से काशीनाथ सिंह की काशी का अस्सी की बिक्री भी बढ़ी है। हालिया पुस्तकों में अनुराधा बेनीवाल की आजादी मेरा ब्रांड एक साल में चार हजार से अधिक बिक चुकी है जबकि वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार की किताब इश्क में शहर होना की भी 15 हजार से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं।
डायमंड पद्ब्रिलकेशन के मालिक नरेंद्र कुमार वर्मा बताते हैं कि उनके प्रकाशन से कई किताबें लाखों में बिक चुकी हैं मगर खास बात यह है कि इसमें अधिकांश धार्मिक-आध्यात्मिक, व्यक्तित्व विकास या फिर अंग्रेजी से अनूदित पुस्तकें हैं। वर्मा बताते हैं कि ओशो की किताबें अबतक 10 लाख से अधिक बिक चुकी हैं। मगर खास बात यह है कि ये किताबें दशकों से छप रही हैं। इसी प्रकार चेतन भगत की करीब आठ साल पहले प्रकाशित किताब थ्री मिस्टेक्स ऑफ माई लाइफ के हिंदी अनुवाद की अबतक करीब चार लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। आम आदमी पार्टी के नेता और कवि कुमार विश्वास की किताब कोई दीवाना कहता है की भी 3 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं।
प्रभात प्रकाशन के पीयूष कुमार बताते हैं कि आज हिंदी में सिर्फ नॉन फिक्शन श्रेणी की किताबें ही आसानी से एक-लाख का आंकड़ा पार करती हैं। वैसे उनके यहां भी सबसे अधिक बिकने वाली किताब अंग्रेजी से अनुदित ही हैं। पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइल मैन के नाम से प्रसिद्ध रहे वैज्ञानिक दिवंगत एपीजे अब्दुल कलाम की किताब विंग्स ऑफ फायर का हिंदी अनुवाद अग्नि की उड़ान की ढाई लाख से अधिक प्रतियां अबतक बिक चुकी हैं। चेतन भगत की दो शुरुआती किताबों के हिंदी अनुवाद भी एक लाख की बिक्री का आंकड़ा पार कर चुके हैं। पीयूष कहते हैं कि कुछ वर्ष पहले के मुकाबले अब किताबों की बिक्री बढ़ गई है और इसमें तकनीक ने बड़ी भूमिका निभाई है। उनके अनुसार सिर्फ अमेजन के ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के जरिए हर दिन उनके यहां की 100 से 150 किताबें बिक जाती हैं। यदि नियमित रूप से बिकने वाली किताबों की बात करें तो पर्सनैलिटी डेवेलपमेंट या वास्तु आदि से जुड़ी किताबें हर वर्ष 5 से 10 हजार प्रतियों के बीच बिक जाती हैं।
नई किताबों की बात अपनी जगह मगर दशकों से चर्चित किताबों की बिक्री अब भी सबपर भारी है। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद हों या शरतचंद्र चटोपाध्याय, उनकी किताबें लोग आज भी सिर्फ लेखक का नाम देखकर खरीद लेते हैं। इसी प्रकार विष्णु सखाराम खांडेकर रचित ययाति और शिवाजी सावंत रचित मृत्युंजय की फैन फॉलोइंग में कोई कमी नहीं आई है। इनके कितने संस्करण छप चुके हैं इसका हिसाब लगाना भी मुश्किल है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, योग गुरु रामदेव और आध्यात्मिक गुरु आशुतोष महाराज पर किताबें लिखकर चर्चा में आए पूर्व पत्रकार संदीप देव कहते हैं कि नए दौर में किताबों की मार्केटिंग बेहद महत्वपूर्ण हो गई है। मोदी पर लिखी किताब उन्होंने खुद की प्रकाशित की थी मगर इसकी वे 15 हजार से अधिक प्रतियां नहीं बेच पाए जबकि आशुतोष महाराज और बाबा रामदेव पर लिखी किताब ब्लूम्सबरी प्रकाशन ने छापी और इन दोनों किताबों की क्रमश: एक लाख पांच हजार और साठ हजार प्रतियां बिकी हैं।
वैसे पुस्तक मेले से प्रकाशकों की बिक्री पर खास असर पडऩे वाला नहीं है। पीयूष बताते हैं कि उनकी कुल पुस्तक बिक्री का बमुश्किल 0.1 फीसदी ही पुस्तक मेले के जरिए होता है। हां ये जरूर है कि ऐसे आयोजनों से नई पुस्तकों को ठीक-ठाक चर्चा मिल जाती है। पीयूष यह भी कहते हैं कि भले ही हिंदी की किताबों की बिक्री में तेजी आई हो मगर अंग्रेजी के मुकाबले यह कुछ भी नहीं है। बाकी दुनिया के मुकाबले भारत में किताबों की बिक्री कहीं नहीं ठहरती। दुनिया में अंग्रेजी और चीनी के बाद यूरोप के छोटे से देश स्पेन की भाषा स्पेनिश की किताबें सबसे अधिक बिकती हैं। अगर सिर्फ किताबों की बात करें तो दुनिया के बेस्ट सेलर्स की लिस्ट में स्पेनिश भाषा की किताब डॉन ञ्चिवक्सोट की अब तक 50 करोड़ से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। यह किताब 1612 में पहली बार प्रकाशित हुई थी। वैसे दो करोड़ से अधिक पुस्तकों की बिक्री के आंकड़े में भी हिंदी की कोई किताब शामिल नहीं है।
(साथ में आकांक्षा पारे और कुमार पंकज)