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जन्म देने वाले के बारे में जानने का है हक

यह व्यक्तित्व के विकास और प्रतिष्ठापूर्ण जीवन के लिए अपरिहार्य
डॉ. जीके गोस्वामी, आईपीएस

पितृत्व निर्धारण प्राचीन काल से ही माता-पिता एवं बच्चे के पारस्परिक संबंधों की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा है। जन्म देने वाले के बारे में जानने का अधिकार व्यक्तित्व विकास के लिए न केवल आवश्यक है वरन प्रतिष्ठापूर्ण जीवन के अधिकार के लिए अपरिहार्य भी है। पितृत्व के बारे में जानने का अधिकार एक जटिल कानूनी अवधारणा है। मूलत: संबंध एवं प्रजनन धर्मानुसार सिविल कानून से नियंत्रित होते हैं। वंशानुगत शुद्धता को अक्षुण्ण रखने को प्रजनन के लिए विवाहेतर तीसरे व्यक्ति का योगदान कानून की दृष्टि से प्रतिबंधित है। इसी कारण कानूनन विवाहित जोड़े के

अतिरिक्‍तअन्य से जन्मा बच्चा अवैध कहलाता है तथा सामाजिक भय से कई बार अविवाहित माताएं ऐसे नवजात शिशुओं को लावारिस छोड़ेने पर मजबूर हो जाती हैं। कालांतर से समाज तथा कानून ने अवैध संतानों को समाज में हेय दृष्टि से देखा है। जॉर्ज बरनार्ड शॉ ने कहा है कि बच्चा अवैध नहीं हो सकता, बल्कि बच्चे को जन्म देने वाले माता-पिता का संबंध अवैध हो सकता है। वर्तमान युग में यूनाइटेड नेशंस ऑफ चाइल्ड राइट्स कनवेंशन, 1989 के अनुच्छेद 6 एवं 7 में प्रत्येक बच्चे को अपने माता-पिता के बारे में जानने के विषय में अधिकार प्रदान किए गए हैं।

बहुचर्चित रोहित शेखर बनाम नारायण दत्त तिवारी (2012) केस में रोहित शेखर ने न्यायालय में याचिका दायर कर डीएनए टेस्ट द्वारा जांच करके  एन.डी. तिवारी को जैविक पिता के रूप में स्थापित करने की अनूठी मांग की। तथ्यात्मक रूप से रोहित की माता 1979 में उसके जन्म के समय  वी.पी. शर्मा से विवाहित थीं तथा दोनों का विवाह-विच्छेद 2006 में हुआ। यद्यपि डी.एन.ए. टेस्ट ने एन.डी. तिवारी को रोहित शेखर का जैविक पिता सिद्ध किया, किंतु कानून तिवारी को रोहित का पिता घोषित नहीं कर सका। यह तथ्य जनमानस के लिए विचित्र किंतु सत्य की तरह है। भारतीय कानून में पितृत्व निर्धारण हेतु एक मात्र धारा-112, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 है जिसके अनुसार बच्चे का पिता वह कथित व्यक्ति होगा जो बच्चे के जन्म के समय माता से कानूनी रूप से विवाहित हो अथवा विवाह-विच्छेद के 280 दिन के अंदर बच्चे का जन्म हुआ हो। कानून की परिकल्पना है कि नियमानुसार विवाहित पति-पत्नी से जन्मे बच्चे ही वैध होंगे। कानून की यह भी परिकल्पना है कि पिता के शुक्राणु से ही बच्चा जन्मेगा, किंतु वास्तविक जीवन में विवाहेतर संबंधों के चलते अथवा कृत्रिम गर्भाधान के अंतर्गत जैविक पिता (शुक्राणु दाता) एवं सामाजिक पिता अलग-अलग हो सकते हैं। वर्तमान समय में एकल पुरुष अथवा स्त्री भी बच्चे को कृत्रिम रूप से जन्म दे रहे हैं। अकेला व्यक्ति बच्चे को गोद भी ले सकता है। अत: ऐसे में पितृत्व (पैरेंटेज) निर्धारण एक गूढ़ विषय हो गया है जिसे बदलते सामाजिक परिवेश में पुराने कानून से संचालित करना दुर्लभ कार्य है।

वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास का कानून पर प्रभाव सर्वविदित है। वर्ष 1978 में टेस्ट ट्यूब बेबी एवं 1986 में डी.एन.ए. फिंगरप्रिंट ने बच्चे के वंशजता के अधिकार पर गहरा प्रभाव डाला। विज्ञान के चमत्कार से कृत्रिम प्रजनन तकनीक (असिस्टेड रिप्रोडक्‍शन टेक्‍नोलॉजी) तथा सरोगेसी लाखों ऐसे लोगों के चेहरे पर मुस्कान ले कर आई जो संतान उत्पन्न करने में अक्षम थे। सरोगेसी का शाद्ब्रिदक अर्थ है-स्थानापन्न। अर्थात किसी अन्य के शुक्राणु, अंडाणु अथवा कोख से संतान की उत्पत्ति। इस विधि ने बच्चे के दो से अधिक माता-पिता संभव कर दिए जिससे माता-पिता के निर्धारण में विषम परिस्थिति उत्पन्न हुई। इस जटिलता को डी.एन.ए. टेस्ट की खोज ने नए आयाम दिए। 1990 के दशक में न्यायालयों में डी.एन.ए. टेस्ट के माध्यम से बच्चे के पितृत्व निर्धारण के लिए शक्‍की पतियों की ओर से याचिकाओं की बाढ़ सी आ गई। इस पर गौतम कुंडू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1993, सुप्रीम कोर्ट) द्वारा पांच निर्देश जारी कर लगाम लगाई गई।

वस्तुत: रोहित शेखर बनाम नारायण दत्त तिवारी वाद ने इस बहस को नए आयाम दिए कि क्‍या बच्चे को अपने जैविक पिता को जानने का अधिकार है? चूंकि यह अधिकार माता के यौन अधिकार की निजता को प्रभावित करता है तथा चाइल्ड राइट्स कनवेंशन भी इस बिंदु पर मौन है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने नंद लाल वासुदेव बाद्विक बनाम लता वासुदेव बाद्विक मामले में यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि डी.एन.ए. जैसी वैज्ञानिक खोज के बाद बच्चे के पिता का जैविक सत्यापन पुराने कानून में उल्लिखित अनुमान मात्र पर न छोडक़र सत्यता पर आधारित होना चाहिए, चूंकि सत्य की जीत ही न्याय का प्रमाण है। इसके बाद दीपनविता रॉय बनाम रोनोब्रतो रॉय (2014) वाद में सुप्रीम कोर्ट ने तलाक को इस तथ्य पर मंजूरी दी कि डी.एन.ए. टेस्ट ने उनके बच्चे को विवाहेतर संबंध से उत्पन्न होना सिद्ध कर दिया था। वर्तमान में संवैधानिक न्यायालय विभिन्न वादों में डी.एन.ए. टेस्ट के आधार पर न केवल पितृत्व परीक्षण को मान्यता प्रदान कर रहे हैं वरन संपत्ति विवादों में भी वादीगण डी.एन.ए. का सहारा लेकर धारा-112 के प्रावधानों के प्रतिकूल न्यायालय अनुतोष प्राप्त कर रहे हैं। बदलते सामाजिक एवं वैज्ञानिक परिवेश में बच्चे के पितृत्व परीक्षण को पुनर्परिभाषित किया जाना अपेक्षित है।

 (लेखक लखनऊ रेंज के डीआईजी हैं)

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