Advertisement

एक दूजे के सहारे पार सियासी नैया

राजनीति में परिवारवाद का प्रचलन कोई नया नहीं है लेकिन सियासी दांव-पेच में आज हर कोई उलझा हुआ है कोई, बेटे को आगे बढ़ाने में जुटा है तो कोई पत्नी को, राजनीति की लंबी पारी कैसे खेलते हैं सियासतदान
क‌िस्सा कुनबों काः अ‌ख‌िललिश-ड‌िंपल,राज बब्बर, जूही, अमर‌िंदर-परणीत.मायावती, हरीश-रेणुका,स‌िद्धू दंपत‌ि

परिवार से बड़ा संबल कोई नहीं होता है। मंच पर गरजने वाले, परदे पर बरसने वाले सभी को सुकून का अहसास परिवार में आकर ही मिलता है। बड़े औद्योगिक घराने अपने बेटों को फिर उनके बेटे अपने बेटे को कारोबार के गुर सौंपते हैं। फिल्मों में दर्शक अपने पसंदीदा नायक-नायिकाओं के बेटे-बेटियों के परदे पर आने का बेसब्री से इंतजार करते हैं। सेना में वे लोग और इज्जतपाते हैं जिनके परिवार में सेना का इतिहास हो। यह खानदानी गर्व भारतीय राजनीति तक आते-आते अपनी चमक खो देता है। लेकिन राजनीति में 'भाई-भतीजावाद’ कटाक्ष के साथ-साथ भी परिवार पूरी ताकत से नेताओं के पीछे खड़ा रहता है। चुनाव आते-आते न सिर्फ नेता बल्कि उनका परिवार भी कमर कस कर खड़ा हो जाता है। मीडिया में प्रचार करते, भाषण देते उनके फोटो छपते हैं और परिवार के बारे में आम लोगों की उत्सुकता और बढ़ जाती है। यही वक्‍त होता है जब परदे के पीछे रहने वाले परिवार के सदस्यों के बारे में आम लोग जानते हैं और कई बार कुछ दिलचस्प कहानियां भी बाहर आ जाती हैं। अब जबकि पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव घोषित हो गए हैं तब एक बार फिर चुनावी कथाओं के मुख्‍य नायक नेता और उनके परिवार हो गए हैं।

परिवारवाद में तो कांग्रेस का नाम सर्वोपरि है। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के परिवार से शुरू हुई सियासत अभी कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पर टिकी हुई है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी की बहन प्रियंका गांधी पर भी लोगों की निगाह टिकी हुई है कि नेहरू-गांधी परिवार की इस नई पीढ़ी को कहां तक सियासी ऊंचाइयां मिलेंगी। नेहरू-गांधी परिवार की एक और पीढ़ी केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के पुत्र और सांसद वरुण गांधी भी सियासी तौर पर सक्रिय हैं। कभी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का सहारा बनकर बेटे राहुल गांधी ने सियासत के मैदान में कदम रखा तो अब राहुल का सहारा बनने के लिए बहन प्रियंका गांधी भी प्रचार करने को तत्पर हैं। प्रियंका ने भले ही कोई चुनाव नहीं लड़ा हो लेकिन उनकी सियासी सक्रियता लगातार बनी हुई है और माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रियंका स्टार प्रचारक के तौर पर कांग्रेस के लिए प्रचार करेंगी।

प्र‌ियंका और राहुल गांधी

वहीं उत्तर प्रदेश में सियासी दलों में परिवारवाद तो हावी ही है, साथ ही कई सियासी लोग परिवार को सियासत में मजबूत करने के लिए दांव-पेच भी क्चोल रहे हैं। देश के सबसे बड़े सियासी परिवार वाली समाजवादी पार्टी में कुर्सी की लड़ाई सभी देख रहे हैं। इस परिवार में अपने-अपने कुनबे को आगे बढ़ाने की भी रणनीति अपनाई जा रही है। मुलायम सिंह यादव ने जब इस पार्टी की नींव रखी थी तब उन्होंने सोचा भी नहीं था कि एक दिन उनके ही परिवार में इतना बवंडर होगा। मुलायम ने बेटे अखिलेश यादव को तो मुख्‍यमंत्री बना दिया। लेकिन परिवार के अन्य सदस्य इसे पचा नहीं पाए। अखिलेश यादव को तो राजनीति विरासत में मिली लेकिन पत्नी डिंपल यादव का साथ मिलने के बाद ही उनकीसियासी पारी की शुरुआत हुई। टीपू के नाम से पुकारे जाने वाले अखिलेश यादव आम युवाओं की तरह इंजीनियर बनने का सपना देख रहे थे। इसलिए उन्होंने इन्वायरमेंटल इंजीनियरिंग में दक्षता हासिल की। 1973 में जन्मे अखिलेश की मुलाकात 25 साल की उम्र में डिंपल रावत (डिंपल यादव) से हुई और यहीं से शुरू हुई उनके प्यार की कहानी। पिता मुलायम सिंह यादव नहीं चाहते थे कि अखिलेश और डिंपल की शादी हो। क्‍योंकि मुलायम सिंह यादव ने अखिलेश के लिए कुछ और ही सपने बुन रखे थे। तमाम कड़वाहट के बाद साल 1999 में अखिलेश और डिंपल की शादी हुई और उसके बाद शुरू हुआ अखिलेश यादव का सियासी सफरनामा। साल 2000 में पहली बार अखिलेश यादव कन्नौज लोकसभा चुनाव जीते और उसके बाद पीछे मुडक़र नहीं देखा। सांसद बनने के बाद अखिलेश यादव की व्यस्तताएं बढ़ गईं लेकिन पत्नी डिंपल का सहयोग लगातार मिलता रहा। सांसद पति और देश के सबसे बड़े सियासी परिवार की बहू डिंपल के स्वभाव में किसी तरह का बदलाव नहीं आया। अखिलेश की सियासी पारी को आगे बढ़ाने में डिंपल का बड़ा योगदान रहा है। अखिलेश ने साल 2009 में लोकसभा का चुनाव दो जगहों कन्नौज और फिरोजाबाद से लड़ा था जिसमें दोनों में जीत मिली थी। उसके बाद अखिलेश ने फिरोजाबाद सीट छोड़ दिया और उपचुनाव में डिंपल यादव को चुनाव लड़ाया लेकिन वे कांग्रेस के राज बब्‍बर से हार गई। उसके बाद साल 2012 में जब अखिलेश यादव मुख्‍यमंत्री बने तो डिंपल को कन्नौज सीट से उम्‍मीदवार बनाया गया जहां वे निर्विरोध निर्वाचित हुईं। तीन बच्चों के पिता अखिलेश और मां डिंपल सियासी सक्रियता के बाद भी पारिवारिक जिम्‍मेदारियों को बखूबी निभाते हैं। डिंपल उत्तर प्रदेश सरकार की विकास योजनाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए सोशल मीडिया पर सक्रिय रहती हैं। साथ ही पारिवारिक आयोजनों में भी बढ़-चढक़र हिस्सा लेती हैं। अखिलेश यादव की जितनी लोकप्रियता युवाओं के बीच है उतनी ही लोकप्रियता डिंपल की भी है। इसलिए अखिलेश समर्थक युवा डिंपल को 'भाभी’ कहते हैं। वहीं परिवार के अन्य सदस्य अखिलेश की इस लोकप्रियता को पचा नहीं पाते। अखिलेश के चाचा शिवपाल सिंह यादव अपने बेटे आदित्य यादव को राजनीति में सक्रिय कर रहे हैं लेकिन अभी कोई ठोस मुकाम नहीं दिला सके। वहीं एक अन्य चाचा प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने अपने बेटे अक्षय यादव को सांसद बनाने में सफलता पा ली।

परिवारवाद केवल सपा में है ऐसा नहीं है। बहुजन समाज पार्टी की प्रमुक्चा मायावती ने सियासी पारी की शुरुआत कांशीराम के साथ की। देश की पहली दलित महिला मुख्‍यमंत्री बनी मायावती के परिवार का कोई सदस्य अभी सियासत में नहीं है लेकिन छोटे भाई आनंद कुमार को लेकर चर्चाएं तेज हैं। संभव है कि आनंद मायावती की सियासी विरासत को आगे बढ़ाएं। मायावती भले ही अपने परिवार को राजनीति से दूर रखे हुए हैं लेकिन बसपा के कई नेता अपने बेटे-बेटी और पत्नी को सियासत के मैदान में सक्रिय करने में जुटे हैं। पार्टी के पूर्व सांसद कादिर राणा जहां पत्नी को विधानसभा चुनाव में टिकट दिलवाने में सफल रहे हैं वहीं राणा के विधायक भाई भी इस बार चुनाव लड़ रहे हैं। पार्टी के बड़े नेता रामवीर उपाध्याय के परिवार में भाई और पत्नी दोनों राजनीति में हैं। बसपा की सरकार में रामवीर मंत्री थे तो भाई एमएलसी और पत्नी सीमा सांसद थीं। वहीं बसपा का मुस्लिम चेहरा माने जाने वाले नसीमुद्दीन सिद्दकी के परिवार में भी तीन लोग सक्रिय राजनीति में हैं।

अज‌ित स‌िंह और जयंत चौधरी

उत्तर प्रदेश की सियासत में परिवारवाद का एक और उदाहरण है। अमेरिका में 15 साल तक नौकरी करने के बाद सियासत के मैदान में कूदे पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी की सक्रियता पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है। राष्ट्रीय लोकदल के संस्थापक अजित सिंह ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत राज्यसभा सदस्य के रूप में की। कई बार लोकसभा के सदस्य और केंद्र सरकार में मंत्री रहे अजित सिंह की सियासी पारी इस समय कुछ ठीक नहीं चल रही है लेकिन बेटे जयंत के साथ पार्टी को मजबूत करने में जुटे हुए हैं। जयंत चौधरी भी साल 2009 में मथुरा लोकसभा सीट से सांसद थे और वर्तमान में राष्ट्रीय लोकदल के महासचिव हैं। जयंत वर्तमान में पार्टी का प्रमुख चेहरा बने हुए हैं और अजीत सिंह बेटे को स्थापित करने के लिए कई अन्य सियासी दलों से गठजोड़ की संभावना तलाश रहे हैं। इस बार उत्तर प्रदेश में सभी की निगाहें कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष राज बब्‍बर पर लगी हुई हैं। बॉलीवुड में नायक-खलनायक दोनों ही तरह के किरदार निभा चुके राज बब्‍बर की बेटी जूही बब्‍बर उनके साथ चुनावी सभाओं में दिखती रही हैं। अभिनेत्री जूही को देखने के लिए ही बहुत भीड़ जुट जाती है। वह अपने पिता की लाड़ली होने के साथ बहुत हाजिर जवाब हैं। इंसाफ का तराजू नाम की फिल्म में खलनायक बन चुके बब्‍बर चाहते हैं कि इस बार वोटर उनके साथ नाइंसाफी न करें। सुनने में आ रहा है कि सन 1989 में राजनीति में आने वाले बब्‍बर अपनी बेटी जूही और उनके पति अनूप सोनी को आम सभा में लाने की तैयारी कर रहे हैं। यह दिलचल्प होगा कि जिस समाजवादी पार्टी से वह तीन बार सांसद चुने गए उसी पार्टी में अब परिवार के वर्चस्व की लड़ाई है। इस लड़ाई में वह अपने परिवार का कैसा इस्तेमाल कर पाते हैं।

राजनैतिक पार्टियों में परिवार का खेल पुराना है। यह अलग बात है कि अब जनता जागरूक हो गई है और यदा-कदा इसके खिलाफ आवाज भी उठाती है। पर जनता तो जनता ठहरी। वह तो और भी कई बातों के लेकर हल्ला मचाती है लेकिन उसकी सुनता कौन है। अब शायद इस पर असर पड़े क्‍योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आम सभा में आह्वान किया है कि नेता अपने रिश्तेदारों के लिए टिकट न मांगें। लेकिन जिन नेताओं का परिवार पहले से ही राजनीति में आ गया है वे बेचारे क्‍या करें। अब इस आह्वान के बाद तो भारतीय जनता पार्टी में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज सिंह का भविष्य खटाई में पड़ेगा या फिर वह प्रदेश महासचिव के पद से आगे दौड़ पाएंगे। वैसे पंकज सिंह अपने पिता का बहुत बड़ा संबल हैं। पंकज सिंह सन् 2001 से भारतीय जनता पार्टी में सक्रिय हैं। उनकी सक्रियता को देखते हुए पार्टी ने उन्हें सन् 2004 में भाजपा युवा मोर्चा की प्रदेश कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। फिर सन् 2007 में वह भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष बन गए। पंकज पिता की सलाह के बिना कुछ नहीं करते और अपने पिता के राजनीति के कामों में हाथ बंटाते हैं। सिंह परिवार के जुड़े सूत्र बताते हैं कि पंकज को चुनाव लडऩे की कोई हड़बड़ी नहीं है। वह अभी पार्टी में रह कर काम करना चाहते हैं और उनके काम के बदले टिकट मिले यही उनकी इच्छा है, ताकि उनके पिता पर किसी तरह का दबाव न आए। सन् 2007 में जब विधानसभा चुनाव में चिरईगांव सीट, वाराणसी से उनकी उम्‍मीदवारी की घोषणा भी हो गई थी लेकिन पिता राजनाथ सिंह की सलाह पर ही उन्होंने चुनाव लडऩे के बजाय पार्टी के काम को तरजीह दी। गांव और किसान पंकज सिंह के दिलचस्पी वाले क्षेत्र हैं। यही वजह है कि भाजपा के गांव चलो अभियान में शामिल हो कर उन्होंने 100 से ज्यादा गांवों का दौरा किया था। 

बेटे साकेत बहुगुणा के साथ ‌व‌िजय बहुगुणा

सियासत में पारिवारिक जुगलबंदी में उत्तराखंड भी पीछे नहीं है। राज्य के मुख्‍यमंत्री हरीश रावत भी पत्नी रेणुका रावत को सियासी मैदान तक तो ले आए लेकिन बड़ी सफलता नहीं दिला सके। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में रेणुका रावत को उम्‍मीदवार बनाया गया था लेकिन वे चुनाव हार गईं। उसके बावजूद रेणुका रावत की राजनीतिक सक्रियता बरकरार है। स्वास्थ्य कारणों से जब कभी रावत अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं जा पाते तो वहां रेणुका ही सक्रिय रहती हैं। आज हरीश रावत के परिवार में पत्नी रेणुका के अलावा पुत्र आनंद और पुत्री अनुपमा भी राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं। कांग्रेस के कद्दावर नेता रावत का राजनीतिक जीवन काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा है। उत्तर प्रदेश से जब उत्तराखंड अलग हुआ उस समय से रावत का नाम कांग्रेस की ओर से मुख्‍यमंत्री पद के लिए लिया जाता रहा लेकिन समय ने उनका साथ नहीं दिया। पहले कांग्रेस ने नारायण दत्त तिवारी को मुख्‍यमंत्री बना दिया और बाद में जब सरकार बनी तो विजय बहुगुणा को प्रदेश की कमान सौंप दी। फिर भी रावत ने अपनी राजनीतिक पकड़ को मजबूत बनाए रखा। साल 2009 में लोकसभा चुनाव जीतकर केंद्र सरकार में मंत्री बने। कुछ समय बाद ही उत्तराखंड की सियासत करवट लेने लगी और बहुगुणा को हटाकर रावत को प्रदेश की कमान सौंप दी गई। रावत परिवार के अलावा उत्तराखंड में सतपाल महाराज और उनकी पत्नी अमृता रावत, महाराजा मनुजयेंद्र शाह और उनकी पत्नी महारानी राज्यलक्ष्मी, विजय बहुगुणा और उनके बेटे साकेत बहुगुणा की सियासी जुगलबंदी भी चर्चा में रहती है।

सुखबीर स‌िंह बादस संग हरस‌िमरत कौर

पंजाब में भी चुनावी रण तैयार है। पार्टियों की जीत के अलावा इस बार तीन जोड़ों पर सभी की नजर है। तीनों जोड़े जीवनसाथी होने के अलावा एक दूसरे को चुनाव में किस प्रकार मदद कर रहे हैं, एक-दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए किस प्रकार तीनों ने आपस में काम बांट रहे हैं यह बेहतरीन जुगलबंदी की जिंदा मिसाल हैं। कांग्रेस में मुख्‍यमंत्री पद के दावेदार और पूर्व मुख्‍यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और उनकी पत्नी पूर्व केंद्रीय मंत्री परणीत कौर को करीब से देखें तो राजनीतिक जीवन में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जहां एक और कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब में कांग्रेस को अंदरूनी राजनीति से उबारने, विरोधियों को करारा जवाब देने, केंद्र में पार्टी संबंधी कामकाज में मसरूफ रहते हैं वहीं परनीत कौर विधानसभा इलाके में कैप्टन साहब के काम और पार्टी लाइन पर काम करती हैं। परनीत कौर के जिम्‍मे महिलाओं को जोडऩे का मुख्‍य काम रहता है। वे जगह-जगह महिलाओं से मिलती हैं, उनकी समस्याएं जानने की कोशिश करती हैं, दूर-दराज मतदाताओं के साथ बैठक करती हैं। उनकी चूल्हे-चौके से लेकर खेत-खलिहान तक कि समस्याएं जानने की कोशिश करती हैं। परनीत कौर का मानना है कि घर महिलाओं को चलाना होता है, चूल्हे के खर्च से वे ही दो दो-चार होती हैं इसलिए महिलाओं को कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। परणीत कौर मुख्‍यतौर पर महिलाओं की समस्याएं सुनती हैं। कैप्टन अमरिंदर के सिंह के बेटे रणइंदर सिंह राजनीति में कई दफा किस्मत आजमा चुके हैं लेकिन सफल नहीं हो पाए। अंतत: वह कैप्टन अमरिंदर सिंह के राजनीतिक कामों में हाथ बंटाते हैं, उनके लिए प्रचार करते हैं, सोशल मीडिया

के काम को संभालते हैं और चुनावी क्षेत्र पर नजर रखते हैं।

इसी प्रकार पंजाब के उप मुख्‍यमंत्री सुखबीर सिंह बादल और उनकी पत्नी केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर हैं। जहां एक ओर सुखबीर बादल राज्य में पार्टी का मोर्चा संभाले हुए हैं वहीं हरसिमरत कौर केंद्र में पार्टी की मौजूदगी दर्ज करवा रही हैं। पंजाब के मुख्‍यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की पत्नी राजनीति में न होते हुए भी सरकार में दखल रखती थीं। वह अहम जिम्‍मेदारी अदा किया करती थीं उसी भूमिका में अब हरसिमरत कौर हैं। वह अपने विधानसभा क्षेत्र की समस्याएं, सामाजिक कामकाज, सामाजिक मुद्दे चाहे वह कन्या भ्रूण हत्या हो या वृक्षारोपण जैसे मुद्दों के जरिये जनता तक पहुंच रखती हैं, उनसे जुड़ी हुई हैं। कन्या भ्रूण हत्या पर नन्ही छांव के जरिये पूरे पंजाब में हरसिमरत कौर के काम को सभी जानते हैं। वहीं सुखबीर बादल राज्य शासन की नीति पर ध्यान देते हैं। 

नवजोत सिंह सिद्धू और उनकी पत्नी नवजोत कौर सिद्धू तो एक-दूसरे का इतना सहयोग है कि उनके बारे में कहा जाता है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। नवजोत सिंह सिद्धू राजनीति में होते हुए भी टीवी शो में ज्यादा नजर आते रहे हैंं। बीते लोकसभा चुनावों में जब उनका टिकट काटकर भारतीय जनता पार्टी ने अरुण जेटली को वहां से टिकट दिया था तभी से नवजोत सिंह सिद्धू पार्टी से नाराज हो गए थे। उन्होंने अमृतसर में ज्यादा समय न देकर छोटे पर्दे के लिए भरपूर समय निकाला। हमेशा कॉमेडी शो में दिखाई दिए लेकिन उनके विधानसभा हलके में कभी नवजोत सिंह सिद्धू की कमी महसूस नहीं की गई। उनकी पत्नी ने न केवल भारतीय जनता पार्टी की नाक में दम कर दिया बल्कि अकाली दल से गठबंधन के मसले पर पूरी ताकत के साथ खुलेआम पार्टी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। यही नहीं किस प्रकार से अकाली नेता और राज्य के मंत्री ड्रग्स की तस्करी में, ट्रांसपोर्ट बिजनेस में लिप्त हैं और किस प्रकार राज्य में भ्रष्टाचार व्याप्त है उसके बारे में खुलकर बोलीं। उन्होंने भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर किए। स्थानीय लोगों के काम करवाना,उनकी दिक्‍कतें सुनने जैसे कामों को नवजोत कौर सिद्धू ही बखूबी अंजाम देती रही हैं। यह तो राजनीतिक परिवारों की बानगी भर है। देश के कई राज्यों में ऐसे सियासी परिवार खूब फल-फूल रहे हैं और नई पीढ़ी को सियासत के नए हुनर भी सिखा रहे हैं।

बेटे दुष्यंत के साथ वसुंधरा राजे

 

सियासत के हमकदम

चाहे महिला नेता हो या पुरुष सभी अपने-अपने तरीके से सियासत के मैदान में कदम आगे बढ़ा रहे हैं। कई चेहरे आम जनता के बीच लोकप्रिय हैं तो कई अनजान बनकर भी परदे के पीछे काम करते हैं। लेकिन कुछ नाम ऐसे हैं जो सियासत में अपनी अगली पीढ़ी की जड़े मजबूत कर रहे हैं। राजस्थान की मुख्‍यमंत्री वसुंधरा राजे अपने बेटे दुष्यंत सिंह को सांसद बनाने में तो सफल रही हैं लेकिन बेटे को राजनीति में कहां तक स्थापित कर पाएंगी यह देखने वाली बात है। वहीं दूसरी ओर राजस्थान प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सचिन पायलट भी राजनीति में अपना कद बढ़ाने में जुटे हुए हैं। पायलट को राजनीति विरासत में मिली है। स्व. राजेश पायलट के बेटे सचिन को राजनीति में स्थापित करने के लिए मां रमा पायलट का भी बड़ा योगदान रहा है।  इसी तरह से सियासत में परिवारवाद के सहारे आगे बढऩे की ललक कई नेताओं में बढ़ी है। कोई पिता के सहारे सियासत में बढ़ रहा है तो कोई पति या फिर पत्नी के सहारे। 

 महाराष्ट्र के कद्दावर नेता शरद पवार की शर्मीले स्वभाव की बेटी सुप्रिया जब माइक्रोबायलॉजी से बीएससी कर रही थीं तब उनके पिता महाराष्ट्र के मुख्‍यमंत्री थे। उन्हें यह बताने में भी संकोच होता था कि वह महाराष्ट्र के मुख्‍यमंत्री की बेटी हैं। लेकिन जब वह संसद में आईं तो अपनी बातें इतने जोरदार ढंग से रखने लगीं कि उनके दोस्त और परिवार को भी यकीन नहीं होता था कि यह वही सुप्रिया हैं। सुप्रिया मजबूती से अपने पिता के साथ खड़ी रहती हैं और सुप्रिया के पीछे उनके पति सदानंद सुले खड़े रहते हैं। सदानंद अमेरिका में नौकरी करते थे और अपने किसी रिश्तेदार के यहां पुणे आए थे। यहीं उनकी मुलाकात सुप्रिया से हुई और कुछ मुलाकातों के बाद दोनों एक-दूसरे के हो गए। सदानंद बाला साहब ठाकरे के भांजे हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, कोई भी महिला पति के सहयोग के बिना आगे नहीं बढ़ सकती है। यह वाक्‍य ही उनके पति के सहयोग को दर्शाने के लिए काफी है।

महाराष्ट्र के बीड जिले के परली गांव में जन्में गोपीनाथ मुंडे का राजनैतिक कॅरिअर खूब चमकदार  था। जब तक वह थे उनकी तीनों बेटियां-पंकजा, प्रीतम और यशश्री को राजनीति की कोई चिंता नहीं थी। लेकिन उनकी असामयिक मृत्यु ने पंकजा मुंडे को राजनीति की जमीन पर खड़ा कर दिया। इक्‍का-दुक्‍का विवाद को छोड़ दिया जाए तो पंकजा ने राजनीति की जमीन पर मजबूती से अपने पैर जमाए हैं। अपने पति के अलावा वह अपनी सांसद बहन डॉ. प्रीतम मते और यशश्री पर भरोसा करती हैं। मुंडे की मृत्यु के बाद प्रीतम बीड लोकसभा उपचुनाव में 6.96 लाख वोटों के अंतर से जीती थीं। भाजपा शासित महाराष्ट्र सरकार में बाल कल्याण मंत्री पंकजा के पति अमित पालवे पेशे से आईटी इंजीनियर हैं। वह सार्वजनिक सभाओं में उनके साथ कम ही नजर आते हैं। लेकिन उनसे जुड़े सूत्र बताते हैं कि अमित पंकजा के दक्रतर पर पूरी नजर रखते हैं ताकि वह आराम से काम पर अपना ध्यान लगा पाएं।

चेहरे पर मुस्कान और सिर पर पल्लू साधना सिंह की स्थायी पहचान है। चुनावी सभा हो, कोई आयोजन, साधना सिंह कंधे से कंधा मिला कर अपने पति मध्यप्रदेश के मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ दिखाई देती हैं। वह भाषण नहीं देतीं, जोर-शोर से नारे नहीं लगातीं लेकिन उनकी उपस्थिति शिवराज सिंह चौहान को संबल देती है। मध्यप्रदेश के एक छोटे से गांव से उसी प्रदेश के मुख्‍यमंत्री बनने तक उनका सफर कम रोमांचक नहीं था। लेकिन उससे ज्यादा रोमांचक था उनकी जीवनसंगिनी साधना मतानी का उनके जीवन में आना। साधना सिंह ने समझा कि उनकी गृहस्थी ऐसी नहीं होगी कि पति काम खत्म कर शाम को घर आ जाएं। बस यही संबल शिवराज को आगे बढ़ाता रहा।

पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया की पत्नी प्रियदर्शिनी राजे राजनीति में तो सक्रिय नहीं हैं लेकिन सिंधिया के संसदीय क्षेत्र में कामकाज का लेखा-जोखा जरूर रखती हैं। प्रियदर्शनी देश की सबसे खूबसूरत 50 महिलाओं में शामिल हो चुकी हैं।

तेलंगाना के मुख्‍यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी कविता कलवाकुंतला निजामाबाद से सांसद हैं। सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय कविता पिता की विरासत को आगे बढ़ा रही हैं। सांसद बनने से पहले कविता ने तेलंगाना के कई गांवों को गोद लेकर उनके विकास का जिम्‍मा उठाया है। कविता के पति डी. अनिल कुमार भी उन्हें सियासत में आगे बढ़ाने में हर संभव मदद करते हैं। बिहार में लालू यादव ने राबड़ी देवी को मुख्‍यमंत्री बनाकर एक मिसाल कायम की और बताया कि सत्ता के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी नहीं है। राबड़ी ने न केवल बिहार की सत्ता संभाली बल्कि एकछत्र राज किया। झारखंड  के पूर्व मुख्‍यमंत्री मधु कोड़ा और उनकी पत्नी गीता कोड़ा राजनीति में सक्रिय हैं। गीता अपने पति के जेल में जाने के बाद उनके विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ती हैं। गीता अभी निर्दलीय विधायक हैं। झारखंड के लिए पूर्व मुख्‍यमंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी मीरा मुंडा सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहती हैं। उनका नाम चर्चा में तब आया जब भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी ने उन्हें राज्य कमेटी में बतौर उपाध्यक्ष शामिल किया। हालांकि मीरा ने पद लेने से इनकार कर दिया। बाद में ताला मरांडी भी विवादों में घिर जाने के बाद पद गंवा बैठे। केंद्र में वित्त और विदेश जैसे मंत्रालयों को संभालने वाले यशवंत सिन्हा की विरासत उनके बेटे जयंत सिन्हा ने संभाल ली है। वे हजारीबाद संसदीय सीट का प्रतिनधित्व करते हैं जहां से उनके पिता सांसद हुआ करते थे। वह मोदी सरकार में नागरिक उड्डयन राज्य मंत्री हैं।

Advertisement
Advertisement
Advertisement