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कलह की कीचड़ में धंसी साइकिल

असमंजस में उम्मीदवार लेकिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव विकास के मुद्दे को लेकर जनता के बीच जाने की कर रहे तैयारी
रामकृपाल यादव, अ‌ख‌िललिश यादव, श‌िवपाल यादव, मुलायम स‌िंह यादव और अमर स‌िंह

सभी की निगाहें उत्तर प्रदेश पर हैं। विधानसभा चुनावों की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है लेकिन सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी (सपा) की आपसी कलह पर सभी की निगाहें आकर टिक गई हैं। पार्टी के इस सत्ता संघर्ष में एक ओर पार्टी के 90 प्रतिशत से अधिक विधायकों तथा पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं के समर्थन की लहर पर सवार मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव हैं तो दूसरी ओर उनके पिता और समाजवादी राजनीति के पुरोधा सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव। सवाल कई हैं? क्‍या सपा बिखर जाएगी? क्‍या पार्टी का चुनाव चिह्न साइकिल चुनाव आयोग जब्‍त कर लेगा? क्‍या पार्टी का राष्ट्रीय स्वरूप समाप्त हो जाएगा? क्‍या पिता-पुत्र के राजनीतिक भविष्य के लिए अगला विधान सभा चुनाव विध्वंसकारी होगा? ऐसे में तमाम सवालों से जूझते सपा के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों सहित पूरी पार्टी उद्वेलित है। लगभग तीन महीने से चल रहा संघर्ष मुख्‍यमंत्री अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती है। हालांकि कार्यकर्ताओं का समर्थन अखिलेश को हासिल है पर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद को लेकर मुलायम सिंह झुकने को तैयार नहीं हैं।

सपा के चुनाव चिह्न साइकिल को लेकर दोनों पक्ष दावा कर रहे हैं। 'साइकिल’ पर मुलायम सिंह, शिवपाल और अमर सिंह ने दावा किया है, तो मुख्‍यमंत्री समर्थक रामगोपाल यादव का दावा भी मजबूत है। एक दावे में मुख्‍यमंत्री के पिता मुलायम सिंह यादव को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष और चाचा शिवपाल यादव को उत्तर प्रदेश का प्रदेश अध्यक्ष बताते हुए 'साइकिल’ मांगी गई है। उधर दो सौ से अधिक विधायकों के समर्थन के साथ अखिलेश समर्थकों ने भी साइकिल पर अपना दावा पेश किया है। साइकिल किस खेमे को मिलेगी, मुलायम-शिवपाल खेमे को या फिर अखिलेश खेमे को? या दोनों में से किसी को नहीं? चुनाव चिह्न किसी को मिले या न मिले लेकिन कार्यकर्ताओं में एक असमंजस बन गया है। अगर कलह खत्म भी हो गई तब भी जो मनमुटाव हुआ है उसका असर चुनावों पर पड़ सकता है। 

बैठकों, समझौतों और मान-मनौवल के कई दौर चले। अंतिम परिणाम का इंतजार सभी को है। वैसे इस बात की संभावना भी प्रबल है कि पार्टी को बचाये रखने के लिए पिता-पुत्र का जुडऩे-टूटने का सिलसिला कहीं न कहीं जरूर थमेगा। लखनऊ में 11 जनवरी को मुलायम सिंह ने साफकहा कि पार्टी को टूटने नहीं देंगे। इससे पहले उन्होंने 8 जनवरी को पार्टी नेताओं से दिल्ली में भी कहा था, 'अखिलेश मेरा ही बेटा है। अब क्‍या कर सकते हैं? वह जो कर रहा है, करने दो। मार थोड़े ही देंगे। अब सब कुछ तो उसके ही पास है। मेरे पास तो गिनती के विधायक हैं। जाओ चुनाव की तैयारी में जुटो। अखिलेश और शिवपाल ने भी विकास का बहुत काम किया है।’

अंतिम क्षणों में (9 जनवरी को) अखिलेश को ही उत्तर प्रदेश में मुख्‍यमंत्री का चेहरा घोषित कर चुके मुलायम ने कहा कि वे अखिलेश के समर्थन में पूरे प्रदेश में सभाएं भी करेंगे और यह भी मत व्यक्‍त किया कि पार्टी न टूटी है न टूटेगी। सुलह की कोशिशों के परिणाम सामने आये ही थे कि अगले दिन मुलायम ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर अपनी दावेदारी को लेकर नये सवाल खड़े कर दिए। जाहिर है संशय बरकरार है। पार्टी कार्यकर्ता और दोनों खेमों से टिकट पाये प्रत्याशी असमंजस में हैं। एक बात अच्छी है कि दोनों खेमों से टिकट पाने वालों में अधिकांश नाम कॉमन हैं। यदि नया सुलह समझौता होता है तो प्रत्याशियों की सूची में बड़ा फेरबदल  भी हो सकता है।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों की दृष्टि में सपा में चल रहे आंतरिक संघर्ष का स्वरूप 1995 में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्‍यमंत्री एन.टी. रामाराव के दामाद और आंध्र प्रदेश के वर्तमान मुख्‍यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के बीच विवाद जैसा ही है। एन.टी. रामाराव की दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती के बढ़ते हस्तक्षेप के कारण चंद्रबाबू नायडू ने विधायकों के सहयोग से एन. टी. रामाराव की सत्ता पलट दी थी और आज यही चंद्रबाबू नायडू आंध्र के विकासपुरुष के रूप में जाने जाते हैं।

कांग्रेस के साथ सपा के चुनावी तालमेल या गठबंधन के सवाल पर अभी खामोशी है। कांग्रेस के नीति नियामकों में प्रमुख प्रशांत के गठबंधन के फार्मूले पर अभी दोनों ओर से चुप्पी जारी है। सपा का आंतरिक संघर्ष थमते या समाप्त होते ही इस प्रस्तावित गठबंधन का स्वरूप और भविष्य सामने आ जाएगा।  वैसे कांग्रेस अखिलेश के विकास कार्यों के कारण उनकी विकासपुरुष छवि के साथ जुडऩे में ही अपनी बेहतरी मानती है। यह अनेक अवसरों पर पार्टी द्वारा स्पष्ट किया जा चुका है।

 

सिर्फ  तीन महीने दे दें : अखिलेश यादव

मुख्‍यमंत्री अखिलेश यादव ने 'आउटलुक’ को बताया कि 'नेताजी’ समाजवादी पार्टी के साथ ही उनके पूरे परिवार के भी एकमात्र गुरु हैं - 'उन्होंने ही मुझे समाजवाद का ककहरा सिखाया है, मैं तो उन्हीं के आदर्शों को आगे बढ़ा रहा हूं। मैंने जो भी किया है, सब उन्हीं की साख को बचाने और बरकरार (यथावत) रखने के लिए किया और कर रहा हूं। 'नेताजी’ मेरे और मेरे परिवार के सुप्रीमो थे, हैं और सदैव रहेंगे। कुछ लोग उन्हें गलत तथ्य बताकर ऐसे फैसले करा लेते हैं, जो पार्टी के लिए अच्छे नहीं हैं। 'कुछ’ लोग अपना स्वार्थ साधने के चक्‍कर में उनसे बड़े और गलत फैसले करवा सकते हैं। यह सरकार और पार्टी सब उन्हीं की है और 'मैं भी उन्हीं का हूं! तीन महीने मुझे दे-दें दोबारा सरकार बनाकर उन्हें दे दूंगा, फिर जैसा नेता जी को उचित लगे वैसा करें, सब मंजूर!’

   

तुम्‍हारा बाप बहुत जिद्दी है !

सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और उनके राजनैतिक उत्तराधिकारी -पुत्र अखिलेश के बीच राजनीतिक मतभेद भले ही हों पर इन सारी बातों से परिवार बिलकुल अलग है। अखिलेश के बच्चे अदिति, टीना और अर्जुन हर रोज शाम को अपने 'दादू’ (मुलायम सिंह) के पास ही रहते हैं। बहू डिंपल भी सांसद से कहीं अलग बिलकुल 'बहू’ की तरह बच्चों और उनके दादा के बीच होती हैं। एक शाम बातों-बातों में दादू ने अपनी पोती से कहा- तुम्‍हारा बाप बड़ा जिद्दी है। दादू की यह बात पोती ने अपने पापा (अखिलेश) से कही तो पहले वे हंसे और फिर कहा 'दादू तो हमेशा ठीक ही कहते हैं।’ इस तरह की बातों से सियासत में अब कयास ही लगाया जा सकता है।

 

प्रियंका-अखिलेश की जोड़ी दिखाएगी कमाल!

प्रियंका वाड्रा में लोग उनकी दादी इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि प्रियंका कांग्रेस में फिर से जान फूंक सकती हैं। पिछले दिनों 2 अगस्त 2016 को बनारस में रोड शो के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की तबियत खासी खराब हो गई थी। अपने 'विश्वस्त सूत्रों’ से इस खबर के मिलते ही अखिलेश और उनका पूरा सचिवालय हरकत में आ गया था। एक मीटिंग से बाहर निकल कर अलग कमरे में जाकर अखिलेश मिनट-टू-मिनट अपडेट लेने लगे। उन्होंने वाराणसी के मंडलायुक्‍त नितिन रमेश गोकर्ण को तत्काल मोबाइल आईसीयू और चिकित्सकों को लेकर सोनिया गांधी के पास पहुंचने और अतिशीघ्र उपचार की मुकम्‍मल व्यवस्था सुनिश्चित करने के निर्देश दिए थे। बाद में अखिलेश के ही निर्देश पर वाराणसी के मुख्‍य चिकित्साधिकारी डॉ. वी. बी. सिंह और मुख्‍य नगर चिकित्साधिकारी डॉ. ओ. पी. तिवारी को भी सोनिया गांधी के साथ दिल्ली भेजा गया था। सूत्रों के अनुसार इसी दौरान प्रियंका और अखिलेश के बीच कई बार बातचीत हुई थी। सूत्रों का मानना है कि तभी से अखिलेश और प्रियंका लगातार संपर्क में हैं। अगर गंठबंधन होता है तो यह जोड़ी निश्चित तौर पर असर और कमाल दिखा सकती है, खासकर युवा मतदाताओं पर!

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