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पिता-पुत्र

हिंदी साहित्य संसार के बहुआयामी रचनाकार। गद्य और पद्य पर समान रूप से अधिकार। साहित्य अकादमी पुरस्कार, अब तक नौ कविता संग्रह।
रामदरश मिश्र

आज अखबार में दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय पढ़ा कि मां-बाप के मकान पर बेटे का अधिकार नहीं है। पढ़ कर बड़ा सुकून मिला। बेटों द्वारा बहिष्कृत कर दिए जाने वाले मां-बाप को अपने अधिकार का बोध होगा और वे चाहेंगे तो अपने अधिकार का सम्‍यक प्रयोग कर सकेंगे। समाचार पढक़र कितनी ही घटनाएं साकार हो गईं। जिनमें मां-बाप अपने ही मकान से बहिष्कृत कर दिए गए। निष्कासित होकर वे या तो वृद्धाश्रम चले गए या भिखारी की जिंदगी जीने को अभिशप्त हो गए।

हाल ही में यह घटना घटी है। सर्वजीत सिंह एक दफ्तर में बड़े बाबू थे। उन्होंने एक-एक पैसा जोड़ कर मकान बनवाया था। वह बहुत ईमानदार हेड क्‍लर्क थे। चाहते तो काफी कमा सकते थे लेकिन वह ईमानदारी से प्राप्त पैसे ही संजोते रहे। उन्होंने अपने बेटे शिवनाथ की पढ़ाई में पैसे की कोई रुकावट नहीं आने दी और घर खर्च भी सामान्य ढंग से अच्छा ही चलता रहा। किंतु बेटे में पिता का संस्कार व्याप्त नहीं हुआ था। वह देखता था कि अन्य बाबुओं के घरों में शान-शौकत की तमाम चीजें इतरा रही हैं और एक उसके पिता हैं कि जो कठिनाई से उसकी पढ़ाई का खर्च निकाल सके। अत: बाप के प्रति उसके मन में चिढ़ पनपती रही।

वह बुदबुदाता रहता, 'दुनिया कमाकर घर भर रही है और ये हरिश्चन्द्र बने हुए हैं। आधुनिक कोई वस्तु ही नहीं घर में। यह चाहते तो सब कुछ हो गया होता और मैं साइकिल पर नहीं दूसरे बाबुओं के बच्चों की तरह कार या मोटर साइकिल पर चलता।’ एक दिन उसने पिता से अपने मन की बात कह दी तो पिता ने उसे भी ईमानदारी का उपदेश दे डाला और मन ही मन अपने पुत्र को दूसरी ओर जाते हुए देख कर दुखी हुए।

समय बीता सर्वजीत ने अवकाश ग्रहण कर लिया। दफ्तर के उन लोगों को खुशी हुई जो सर्वजीत के कारण घूस नहीं ले पाते थे। किंतु ईमानदार बाबू लोग और सामान्य लोग दुखी हुए। अवकाश-प्राप्ति के दिन सर्वजीत की भावभीनी विदाई हुई। बड़े पदाधिकारियों ने उनकी ईमानदारी, कर्मठता और सहृदयता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। सबने उनके सुखमय भविष्य की शुभकामना की तथा हार्दिक दुआएं दीं।

अवकाश प्राप्त कर सर्वजीत सुखी हुए और भार-मुक्त जीवन बिताने की कामना ने उनमें खुशी भर दी। सोचने लगे कि अब वह पत्नी के साथ घूमेंगे-फिरेंगे, निश्चिंत होकर बतियाएंगे। पुत्र और पुत्र-वधू की सेवाएं प्राप्त कर उन पर आशीष बरसाएंगे। लेकिन आदमी का सोचा हुआ कहां फलीभूत होता है। कुछ समय बाद पत्नी का निधन हो गया। बेटे-बहू होने पर भी वह बड़ा अकेलापन अनुभव करने लगे। उनकी पत्नी उनकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखती थीं। उन्हें ज्ञात होने लगा कि अब उनकी उपेक्षा होने लगी है। अब न वक्त से चाय मिलती थी न खाना। खाना भी सामान्य से समान्यतर होता जा रहा था। शाम का दूध भी बंद कर दिया गया।

एक दिन उन्होंने बहू से कहा, 'उनके खान-पान से चीजें क्‍यों हटती जा रही हैं।’ बहू ने झल्ला कर कहा, 'जो मिलता है खा लीजिए, मीन-मेख निकालने की जरूरत नहीं। मुझे घर भी देखना होता है और नौकरी भी। जितना कर देती हूं वही बहुत है।’ बहू एक कॉलेज के ऑफिस में कार्यरत थी और उसके पतिदेव शिवनाथ गृह-मंत्रालय में किसी पद पर थे। दोनों को नौ बजे निकलना होता था तो अपने लिए कुछ ठीक-ठाक बना लेते थे और कुछ रोटी-सब्‍जी सर्वजीत के लिए छोड़ जाते थे। दोपहर का झाडू-पोछा करने नौकरानी आती थी वह रोटी-सब्‍जी गरम करके दे देती थी। नौकरानी सर्वजीत के दर्द को समझती थी अत: वह कुछ देर उनसे बातचीत करके उनका अकेलापन थोड़ी देर के लिए दूर कर देती थी। कभी-कभी सर्वजीत घर में ताला लगाकर पास के बगीचे में जा बैठते थे। वहां कोई जान-पहचान का मिल जाता था तो उसके साथ कुछ समय कट जाता था। उनके दाहिने पांव के घुटने में काफी दर्द रहने लगा था। इसलिए प्राय: घर पर रहते थे और कभी रामचरित मानस कभी गीता पढ़ते रहते थे।

एक दिन सर्वजीत चकित रह गए जब उनसे कहा गया कि वह अपना कमरा छोड़ कर सामान रखने वाले कमरे में चले जाएं। उनसे कहा गया, 'अकेले आदमी के लिए छोटा कमरा ही काफी है।’ वह मन मार कर उस कमरे में चले गए और देखा कि उनका कमरा तथा एक और कमरा किसी किराएदार कोदे दिया गया है। 'तो यह बात है।’ उन्होंने मन ही मन सोचा। पति-पत्नी ऊपर की मंजिल पर बने कमरे में चले गए थे। अब दोपहर को जब नौकरानी आती थी तब ऊपर से खाना गरम कर लाती और उन्हें दे जाती थी। वह सोचते थे कि बेटे और बहू को खरी-खोटी सुना दें लेकिन उनके नाराज होने पर किसका सहारा पाएंगे, यह सोच कर चुप लगा जाते। कुछ भी हो अपना घर तो अपना घर है।

एक दिन वह फिर चकित हुए जब उन्हें बताया गया कि उनकी चारपाई बरामदे में डाली जा रही है। 'अब इस कमरे में नंदिता शाम को ट्यूशन पढ़ाएगी।’ बहू ने जैसे फरमान सुना दिया सर्वजीत समझ गए कि उनके गृह-निष्कासन की प्रक्रिया है। किंतु क्‍या करते, झक मार कर बरामदे में रहने लगे। जाड़े के दिनों में उन्हें ठंड लग गई, अचानक खांसी से पीडि़त हो उठे। रात भर खांसते रहते। किराएदार ने शिवनाथ से कहा, 'इनकी खांसी का इलाज क्‍यों नहीं कराते? रात भर खांसते हैं हम सो नहीं पाते।’ शिवनाथ को उनकी खांसी का इलाज सूझ गया। उसने पिता को आदेश दिया, 'आप यह घर छोड़ कर जहां जाना हो चले जाइए और खूब खांसिए।’ सर्वजीत विस्मय से खड़े रहे तो शिवनाथ ने उन्हें पकड़ कर बरामदे से बाहर कर दिया। आश्चर्य तो यह कि किराएदार भी चुपचाप यह सब कुछ देखते रहे। घर से निष्कासित होकर सर्वजीत सोचते रहे, 'कहां जाएं?’ कुछ दूर एक झोपड़ी दिखी जिसे बनाकर कोई मजदूर कहीं और चला गया था। वह उसी में जाकर बैठ गए। आसपास के घरों के लोगों को अखरा लेकिन दूसरे के परिवार के मामले में दखल दें तो कैसे? हां इतना जरूर हुआ कि कभी कोई कभी कोई उन्हें भोजन दे जाया करता था। लेकिन एक पड़ोसी से रहा नहीं गया। वह साहित्यकर्मी थे। कुछ दिन तो वह दुख और क्रोध पीते रहे। एक दिन वह सर्वजीत से गुस्से में बोल उठे, 'आपने अपनी यह क्‍या हालत बना रखी है?’ सर्वजीत बोले, 'मैंने

क्‍या मेरे बेटे-बहू ने मेरी यह हालत बना दी है?’ पड़ोसी बोले, 'तो आपने उन्हें यह हालत बनाने क्‍यों दी?’ 'क्‍या करता? मैं बूढ़ा अकेला आदमी उनसे कैसे लड़ता?’ सर्वजीत दयनीय स्वर में बोले।

'हां आप सोचते रहे कि कुछ कहेंगे तो वह आपको घर से निकाल देंगे। लेकिन उन्होंने तो आपके कुछ किए बिना उस घर से निकाल दिया जो आपका है और जिसमें वह आपकी कृपा से रह सकते हैं।’ सर्वजीत जी चुप रहे तो पड़ोसी बोले, 'आपकी स्वीकृति हो तो मैं कुछ करूं।’ सर्वजीत ने स्वीकृति दे दी। पड़ोसी ने पुलिस को फोन किया। पुलिस आई तो उसके आगे सर्वजीत ने सारी घटनाएं बयान कीं। छुटï्टी का दिन था शिवनाथ और नंदिता घर पर ही थे। पुलिस ने उन्हें धमका कर कहा, 'दो दिन में यह मकान छोड़ दो नहीं तो बहुत बुरा अंजाम होगा। समझ रहे हो न।’

बेटे-बहू सर्वजीत के पांव पर गिर कर रोने लगे और क्षमा-याचना करने लगे। पड़ोसी ने समझा रखा था कि बेटे-बहू के आंसुओं से पसीजिएगा नहीं। दोनों बाद में फिर वहीं सलूक करेंगे। और अब तक जो कुछ उन्होंने किया है वह क्षमा योग्य है क्‍या? सर्वजीत ने दोनों को लात से धकेल दिया। दोनों को झक मार कर घर छोडऩा पड़ा। सर्वजीत ने उन किराएदारों को भी निकाल दिया जिनके कारण उन्हें अपना कमरा छोडऩा पड़ा था। और जो उनकी दुर्दशा में मूक दर्शक बने रहे। उन्होंने जान-पहचान के किराएदार को बसा लिया जिनके साथ उन्हें परिवार-सा अपनापन महसूस होने लगा और उस पेंशन का मन के अनुसार उपयोग करने लगे जिसे उनके बेटे-बहू हथिया लेते थे।

अब बहू-बेटे किराए के मकान की तलाश में घूम रहे हैं।

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