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आरक्षण पर संघ की दृष्टि

अभिमत
प्रो. राकेश सिन्हा

जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल में आरक्षण के मुद्दे पर संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य की टिप्पणी को लेकर गैर-जरूरी विवाद को जन्म दिया गया कि संघ अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के आरक्षण को समाप्त करना चाहता है। जबकि न तो वैद्य ने ऐसा कहा था न ही संघ का ऐसा मत है। फिर इस विवाद के पीछे कौन सी ताकत और मानसिकता काम कर रही है इसे जानना और समझना जरूरी है।

जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल में संघ के दो प्रतिनिधियों को आमंत्रित किए जाने पर ऐसा लगा जैसे कोई जुल्म हो गया हो। कई लोगों ने इस कार्यफ्म का बहिष्कार करने का निर्णय ले लिया तो अनेक लोगों ने संघ को बुलाए जाने की आलोचना की। ये वही लोग हैं जो 'आइडिया ऑफ इंडिया’ के सबसे बड़े पैरोकार बनते हैं। लेकिन विमर्श पर अपना एकाधिकार बनाए रखना चाहते हैं और वैचारिक विविधता जो भारतीय परंपरा का अभिन्न अंग रहा है उसके प्रति घोर असहिष्णुता दिखाते हैं। संघ के प्रतिनिधियों के आने पर उनके मन-मस्तिष्क में सहज रूप से जो प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई वह 'आइडिया ऑफ  इंडिया’ का निषेध नहीं तो और क्‍या है? ऐसी ही ताकतें संघ के बारे में मनगढ़ंत धारणा बनाने का काम करती रही हैं। 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से पूर्व भी ऐसा ही मनगढ़ंत बवाल मचाया गया था कि संघ आरक्षण विरोधी है।

किसी भी विमर्श में तथ्य, व्याख्‍या और धारणा तीन चीजें होती हैं। इसमें सबसे महत्वपूर्ण तत्व तथ्य होता है, फिर उसकी व्याख्‍या होती है और तीसरा तत्व धारणा का लघु रूप होता है। लेकिन संघ विरोधियों ने इस फ्म को उल्टा कर दिया है। धारणा को वृहत रूप दे दिया और उसी के आइने में जनमत बनाने और बिगाडऩे का काम शुरू कर दिया है। ऐसा करते हुए वे तथ्यों और व्याख्‍या दोनों की उपेक्षा तथा दमन करते रहे हैं। संघ एक अखिल भारतीय संगठन है जिसका लंबा इतिहास है और उसमें निर्णय लेने की अपनी विशिष्ट प्रक्रिया है जो व्यक्ति आधारित न होकर सामूहिक है। ऐसा नहीं है कि यह बात संघ विरोधियों को पता नहीं है। परंतु असली को नकली और नकली को असली साबित करने वाले ये बौद्धिक सौदागर संघ के प्रश्न पर पूर्वाग्रह के चश्मे से ही काम करते हैं। तभी तो उन्होंने इस बात की अवहेलना कर दी कि संघ ने 1981 में आरक्षण की व्यवस्था को सामाजिक, आर्थिक जरूरत मानते हुए बिना शर्त समर्थन दिया था। इसके बाद संघ ने इसके पक्ष में कई बार प्रस्ताव पारित किया। संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर आवश्यकता पड़ी तो आरक्षण अगले 100 वर्षों तक जारी रहना चाहिए। उनका आशय यह था कि जब तक समाज में गैर-बराबरी और भेदभाव विद्यमान है तब तक आरक्षण की व्यवस्था एक आवश्यक प्रावधान है जो इस गैर-बराबरी को खत्म करने में मदद करता है।

संघ सिर्फ  शब्‍दों से इस गैर-बराबरी को समाप्त करने की बात नहीं करता है बल्कि कर्म के द्वारा अनुसूचित जाति और जनजातियों के सशक्तिकरण को प्रतिबद्ध है। इसका एक बड़ा उदाहरण इसके द्वारा संचालित सेवा भारती तथा वनवासी कल्याण आश्रम द्वारा दलित एवं आदिवासी क्षेत्रों में चलाया जा रहा सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक उपफ्म है। एकल विद्यालय लगभग 55 हजार स्कूलों के द्वारा गरीब एवं शिक्षा से वंचित लोगों तक, जहां न तो राज्य पहुंच पाया और न ही निजी संस्थाएं पहुंच पाईं, शिक्षा का संचार कर रहा है। संघ के लगभग तीन दर्जन संगठन किसी न किसी रूप में जमीनी स्तर पर दलितों एवं आदिवासियों के बीच सक्रिय हैं। इस बात को संघ के घोर विरोधी माक्‍र्सवादी कम्‍युनिस्ट पार्टी ने अपने 2008 के राजनीतिक, वैचारिक दस्तावेज में स्वीकार किया कि संघ ने बड़े पैमाने पर इन आर्थिक एवं शैक्षणिक उपफ्मों के कारण दलितों एवं आदिवासियों में अपनी पैठ बनाई है।

आरक्षण का प्रावधान तभी अपने उद्देश्य में सफल होगा जब दलितों एवं आदिवासियों को आरक्षण का पूर्ण हक पाने के योग्य बनाने में सरकार और समाज सहयोग करेगा। गरीबी और अशिक्षा से जूझ रहे अधिकांश दलित और आदिवासी आज आरक्षण के अवसर का उपयोग करने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं। इसलिए संघ का मानना है कि आरक्षण की व्यवस्था के साथ-साथ दलित एवं आदिवासियों का आर्थिक एवं शैक्षणिक सशक्तिकरण राज्य एवं राज्येत्तर संस्थाओं के द्वारा किया जाना चाहिए। मूल उद्देश्य गैर-बराबरी और भेदभाव को समाप्त कर एक समानतामूलक समाज की स्थापना है। यही कारण है कि गत वर्ष मोहन भागवत जी ने देश में व्याप्त अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए 'एक कुआं, एक श्मशान और एक मंदिर’ का नारा दिया था। संघ बड़े पैमाने पर सभी प्रांतों में अस्पृश्यता को लेकर सर्वेक्षण कर रहा है। यह संघ की रणनीति में बदलाव का एक बड़ा संकेत है। संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस ने अस्पृश्यता को 'पाप’ कहा था तो द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने जाति एवं वर्ण व्यवस्था को 'कालवाह्य’ बताया था। संघ की प्रगतिशीलता न तो प्रस्तावों तक सीमित है और न ही कर्मकांड तक। यह उसके चरित्र का अभिन्न अंग है। तभी तो 1934 में महात्मा गांधी संघ के वर्धा शिविर में आए और वहां अस्पृश्यता का कोई स्थान न देखकर उन्होंने संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार का इस चमत्कार के लिए अभिनंदन किया था। जो संगठन जमीनी स्तर पर काम करता है तथा उसका उद्देश्य राजनीतिक नहीं है तो उसे मनगढ़ंत धारणाओं एवं दुष्प्रचार से परास्त नहीं किया जा सकता है।

(लेखक भारत नीति प्रतिष्ठान के मानद निदेशक हैं)

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