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राज्यसभा नाकारा कतई नहीं

वर्तमान संसद के सबसे वरिष्ठ नेता डॉ. कर्ण सिंह ने हाल में राज्यसभा की नामजद सदस्यता से इनकार करने वाले डॉ. प्रणव पंड्या से मध्य प्रदेश फाउंडेशन के अजय मुश्रान स्मृति व्याख्यान के कार्यफ्म में कहा कि ‘आपका त्याग सम्मानजनक है लेकिन वास्तव में राज्यसभा इतनी खराब और नाकारा भी नहीं है।
गरिमामय सदनः राज्यसभा में गंभीर चिंतन मनन का समय मिलता है

राजनीति में गिरावट संपूर्ण सामाजिक स्थिति के साथ मानी जा सकती है। लेकिन संसद के उच्च सदन राज्यसभा में विभिन्न प्रदेशों का प्रतिनिधित्व होता है और संघीय व्यवस्था में इसकी विशेष उपयोगिता एवं महत्व है।डॉ. प्रणव पंड्या अखिल विश्व गायत्री परिषद के प्रमुख एवं देव संस्कृति विश्वविद्यालय के चांसलर हैं और गायत्री परिवार के अनुयायियों की संख्या दस-बारह करोड़ तक बताई जाती है। मोदी सरकार ने इस लोकप्रियता को ध्यान में रखकर राज्यसभा के नामांकित सदस्य के रूप में डॉ. प्रणव पंड्या से सदस्यता स्वीकारने का आग्रह किया। सरकार और पार्टी के निरंतर अनुरोध के बावजूद डॉ. पंड्या ने विनम्रता के साथ सदस्यता लेने से मना कर दिया। डॉ. पंड्या के अनुसार गायत्री परिवार के सदस्यों का तर्क था कि राज्यसभा के सदस्य बनने से उनका कार्य सीमित होगा। इसका कोई बड़ा लाभ समाज को नहीं मिल सकेगा।

बहरहाल, यह भावनात्मक और निजी फैसला हो सकता है। लेकिन इस घटना के अलावा राज्यसभा की उपयोगिता पर भारतीय जनता पार्टी के कुछ शीर्ष नेताओं ने भी प्रश्न चिह्नलगाए थे। राज्यसभा के वर्तमान स्वरूप में भाजपा गठबंधन के पास बहुमत नहीं है। इस कारण पिछले दो वर्षों के दौरान सरकार को अपने कुछ महत्वपूर्ण विधेयक पारित करवाने में कठिनाई हुई। खासकर भूमि अधिग्रहण एवं जीएसटी जैसे वित्तीय मामलों के विधेयक कांग्रेस की सहमति के बिना अटक गए। इससे विचलित सदन के नेता और वित्त मंत्री अरुण जेटली तक ने राज्यसभा की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठा दिया। उनका तर्क यह भी था कि जनता से सीधे चुने गए सदस्य जब बहुमत से लोकसभा में विधेयक पारित कर देते हैं, तब केवल प्रदेशों के विधायकों से चुने गए सदस्यों से बनी राज्यसभा का दीवार के रूप में खड़ा होना ठीक नहीं है। भाजपा नेताओं की राय का सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस के.टी. थॉमस ने भी समर्थन कर दिया और कहा कि राज्यसभा ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स की तर्ज पर बनी है लेकिन उसके अधिकार सीमित हैं। मतलब एक नया विचार यह रखा जा रहा है कि राज्यसभा के अधिकारों में कटौती कर दी जाए। वह लोकसभा के पारित प्रस्तावों पर चर्चा भले ही कर ले, उसको अस्वीकार करने का अधिकार न हो। यदि इस सुझाव को मान लिया जाए तो राज्यसभा एक डिबेटिंग सोसायटी की तरह भाषणबाजी तक सीमित रह जाएगी।

दिलचस्प बात यह है कि अरुण जेटली मंजे हुए कानूनविद होने के साथ अच्छे वक्ता और स्वयं राज्यसभा के वरिष्ठ सदस्य हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव भी लड़ा लेकिन विजयी नहीं हो सके। इसी तरह देश के प्रधानमंत्री रह चुके डॉ. मनमोहन सिंह 1991 से राज्यसभा के सदस्य हैं। नेहरू युग के डॉ. कर्ण सिंह राजनेता और विद्वान हैं। कभी अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, शरद यादव, भूपेश गुप्ता, राजनारायण, पीलू मोदी जैसे नेता भी राज्यसभा के सदस्य रहे हैं। विभिन्न प्रदेशों और राजनीतिक दलों के साथ नामजद श्रेणी में 12 सदस्य विभिन्न क्षेत्रों में सेवा देने वाले ख्यातिप्राप्त व्यक्ति समय-समय पर राज्यसभा में महत्वपूर्ण योगदान करते रहे हैं। नामी वैज्ञानिक, पूर्व न्यायाधीश अथवा कानूनवेत्ता, लेखक-संपादक, सिने सितारे-गायक, विश्वविख्यात खिलाड़ी राज्यसभा में नामित होते रहे हैं। राज्यसभा में प्रारंभिक 65 वर्षों के दौरान ही नहीं, हाल के दो वर्षों में भी महत्वपूर्ण विषयों पर गंभीर बहस हुई हैं। राज्यसभा में कुछ विधेयकों पर चर्चा के बाद आए संशोधनों के आधार पर लोकसभा में भी पुनर्विचार हुआ है।

भारत के संविधान निर्माताओं ने ब्रिटेन के अतिरिक्त अन्य बड़े लोकतांत्रिक देशों के संविधान के अध्ययन एवं वहां के ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर भारतीय लोकतंत्र और संसद के दोनों सदनों की नींव रखी है। भारी बहुमत पाने वाले सत्ताधारियों की मनमानी पर अंकुश के लिए ही प्रादेशिक प्रतिनिधित्व के आधार पर राज्यसभा का प्रावधान किया गया। संविधान वेत्ताओं का मानना है कि लोकसभा में बहुमत वाली सरकार कभी जल्दबाजी में कुछ फैसला करवा सकती है। राज्यसभा में उस पर चिंतन-मनन का समय मिल सकता है और समाज के अनुभवी लोग सही दिशा भी दे सकते हैं। अमेरिका में भी संघीय ढांचे के आधार पर हर प्रदेश से दो सदस्यों के प्रतिनिधित्व के साथ संसद का एक सदन काम करता है। फिर यह पहला अवसर नहीं है, जबकि राज्यसभा में सत्तारूढ़ दल का बहुमत नहीं है। पहले भी कांग्रेस के सत्ताकाल में राज्यसभा में विपक्ष का बहुमत रहा है। इसी कारण पहले 40 वर्षों तक लोकपाल विधेयक पारित नहीं हो सका। भारी जद्दोजहद के बाद लोकपाल कानून बना। यह बात अलग है कि वर्षों तक हाय तौबा करने वाली भाजपा सत्ता में आने के दो साल बाद भी लोकपाल का गठन नहीं कर पाई है। आधार वैधानिक प्रक्रिया बताया जाता है लेकिन असलियत यही है कि विधेयकों-कानूनों पर अमल की जिम्मेदारी सत्तारूढ़ दल की ही होती है। भारत में राज्यसभा के अधिकारों में कटौती से वैसी ही स्थिति हो जाएगी, जैसे अमेरिकी कांग्रेस के उच्च सदन सीनेट के निर्णय पर राष्ट्रपति को वीटो का विशेषाधिकार बना रहता है। अमेरिकी लोकतंत्र वैसे भी भारत से भिन्न है एवं उसकी समस्याएं,चुनौतियां भी भिन्न हैं। ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स में भी कई सदस्य शोभा और गरिमा के लिए होते हैं। संसद भवन पुराना है और हाउस में एक साथ सभी सदस्यों के बैठने की सुविधा तक नहीं हो पाती। इसलिए अधिकांश बहसों में सारे सदस्य बैठ भी नहीं पाते। हां, संसदीय समितियों से भी बहुत सहायता मिलती है। भारत में भी लोकसभा और राज्यसभा की संयुक्त संसदीय समितियों में महत्वपूर्ण विषयों पर अच्छा-खासा मनन होता है। इसलिए केवल राजनीतिक शोरगुल, व्यवधान, वॉक आउट या कुछ विधेयकों के अटकने से राज्यसभा को अनुपयोगी बताना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। राजनीतिक दल अपनी और संसदीय आचार संहिता का पालन करेंगे, तभी संसद और लोकतंत्र की गरिमा बढ़ सकती है।

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