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स्मार्ट सिटी और सपनों का सौदा

मकबूल अभिनेत्री हेमा मालिनी की पहली फिल्म थी सपनों का सौदागर। 1968 में रुपहले पर्दे पर दिखी इस फिल्म के नायक राज कपूर का लोकप्रिय संवाद था-मैं सपनों का सौदागर हूं, जी मैं सपने बेचता हूं। 60 के दशक के लोकतांत्रिक भारत के लोगों को तब हैरत में रहते हुए खुद से यह पूछना पड़ता था कि क्या सपने यकीनन बिकते हैं? अब ऐसा नहीं है। अब मायानगरी से लेकर देश की सरकार तक सपने बेचा करती है। बेधड़क और तामझाम के साथ।
सपनाः गुजरात के धोलेरा में प्रस्तावित स्मार्ट सिटी का सपना

तो चलें सपनों की मंडी में। शोर है हर तरफ। एक ही सपने का शोर। देश के 20 शहरों में यह मंडी सजने जा रही है और सपना बिकने जा रहा है। खरीदार है इन शहरों की आबादी। यकीन जानिए यह सपना है स्मार्ट सिटी का।

क्या है स्मार्ट सिटी? स्मार्ट सिटी की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं है। ऐसा हमारी सरकार भी मानती है। फिर भी आमजन के लिए इसकी परिभाषा है एक ऐसा शहरी क्षेत्र जो बुनियादी ढांचे, संचार और बाजार व्यावहारिकता के मामले में आगे हो, जिसकी बुनियादी संरचना इन्फॉरमेशन टेक्नोलॉजी हो और उस टेक्नोलॉजी के आधार पर निवासियों को पानी, बिजली, स्वच्छता और कचरा प्रबंधन, परिवहन, मकान विशेषकर गरीबों के लिए सस्ते मकान, डिजिटलीकरण, गुड गवर्नेंस और टिकाऊ पर्यावरण, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा मिल सके।

स्मार्ट सिटी की सबसे बड़ी चिंता लगातार पूंजी की जरूरत को लेकर है। अभी 20 शहरों को स्मार्ट बनाने का काम शुरू हो रहा है और पांच वर्षों में 98 शहरों को स्मार्ट बनाना है। इन 98 शहरों में भारत की 35 फीसद शहरी आबादी है। इस पर खर्च आएगा 50,802 करोड़ रुपये का यानी 7.6 बिलियन डॉलर का। यह धन कहां से आएगा? धन जुटाने के सरकार के रास्ते असीमित नहीं हैं। यह धन तभी आएगा जब भारत का निजी क्षेत्र खुलकर धन लगाएगा। स्मार्ट सिटी के लिए केंद्र और राज्य जो राशि देंगे वह तो निवेश प्रस्ताव का महज 20 प्रतिशत होती है। सरकार की योजना पहले साल में प्रत्येक शहर को 200 करोड़ रुपये और फिर बाद के प्रत्येक वर्ष के लिए 100 करोड़ देने की है। राज्य सरकारें 500 करोड़ देंगी और शेष धन की जरूरत को स्थानीय निकाय पूरा करेंगे। क्या यह काफी है? नहीं, ऐसा सलाहकार एजेंसियां नहीं मानतीं। उनका कहना है कि स्मार्ट सिटी को बनाने के लिए अगले पांच वर्षों में 150 बिलियन डॉलर से अधिक धन की आवश्यकता होगी और इतना बड़ा निवेश निजी क्षेत्र से ही आ सकता है। भारत में भी मंदी का असर है। अपेक्षा के मुताबिक निजी निवेश नहीं होने से अर्थव्यवस्था की चाल सुस्त है। ऐसे में इतनी भारी पूंजी को जुटाना स्मार्ट सिटी योजना के लिए सिरदर्दी है।

स्मार्ट सिटी योजना के अध्ययन से यह जाहिर होता है कि इसकी परिभाषा के दायरे को नए तकनीकी ज्ञान तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। तकनीक से कहीं अधिक बात स्मार्ट सिटी की परिभाषा में आती है। स्मार्ट सिटी योजना नई सिटी बनाने के बाबत कम और किसी शहर के एक क्षेत्र को स्मार्ट सिटी में बदलने से संबंधित अधिक है। एक शहर के क्षेत्र को नए सिरे से सुधार कर, नए पुर्जे लगाकर, नए सिरे से विकसित कर और हरित क्षेत्र के साथ स्मार्ट सिटी बनाना है। एक कंपैक्ट शहर विकसित करना है। यह क्षेत्र 50 एकड़ भी हो सकता है और अधिक भी। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या ऐसे क्षेत्र विकसित करने से देश की शहरी समस्याएं दूर हो जाएंगी? ऐसा करने से तो एक ही शहर में दो क्षेत्र होंगे। एक स्मार्ट कहा जाएगा तो दूसरा अन-स्मार्ट के नाम से पुकारा जाएगा। एक ही शहर के दो नाम होंगे। एक गरीब शहर और एक जगमग शहर होंगे। एक ही शहर के दायरे में दोनों।

स्मार्ट सिटी सपने का सारा दारोमदार स्थानीय निकायों पर है। देश की महानगरपालिकाओं से लेकर नगरपालिकाओं तक की हालत हमेशा बेहतर होने के बजाय बदतर होते ही देखी गई है। देश में विकेंद्रीकरण पर जितना बल दिया गया है उसके अनुरूप नतीजे विकेंद्रित इकाइयों ने नहीं दिए हैं। स्थानीय निकायों की हालत अच्छी नहीं। देश की राजधानी में तो निगम कर्मियों को वेतन भी समय से नहीं मिल रहे। स्थानीय निकाओं की वित्तीय सेहत भी अच्छी नहीं। किसी कार्यफ्म को लागू करने के लिए स्थानीय  निकायों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं होते। स्मार्ट सिटी के बारे में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम और प्राइसवाटरहाउसकूपर्स की रिपोर्ट कहती है कि स्मार्ट सिटी योजना को लागू करने में सभी भागीदारों (केंद्र सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय सरकार, निजी क्षेत्र, गैर-सरकारी संगठन तथा अकादमी) में से सबसे कम तैयारी स्थानीय सरकारों की है। स्थानीय निकायों की दो समस्याएं हैं। उनका प्रशासन बेहद लचर रूप से संगठित है और उनके पास धन की कमी है। भारत में स्थानीय निकाय जीडीपी का 0.9 प्रतिशत राजस्व वसूल करता है। ब्राजील में स्थानीय निकाय की राजस्व वसूली 7.4 प्रतिशत है तो दक्षिण अफ्रीका में 6 फीसदी। ऐसे में स्मार्ट सिटी के लिए आवश्यक निरंतर धन प्रवाह में स्थानीय निकायों का योगदान क्या और कैसे होगा यह चिंताजनक प्रश्न है।

स्मार्ट सिटी की बात करते समय अपनी आबादी की बात लाजिमी है। शहरी आबादी का अनुपात बढ़ना तय है। वजह यह है काम की तलाश में अधिक संख्या में लोगों का शहरों की ओर पलायन बढ़ता जा रहा है। यह सिलसिला निकट भविष्य में थमते नहीं दिखता। पलायन का कारण शहरों का ग्रोथ इंजन होना है। देश की शहरी आबादी जीडीपी में 60 फीसद से अधिक का योगदान करती है और अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले 15 वर्षों में यह योगदान 70 प्रतिशत हो जाएगा। शहरी आबादी से जुड़ा सच यह भी है कि हमारी नीति में शहरों से बाहर जा कर बसने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं है। रहने की दृष्टि से पहले नए टाउनशिप की अवधारणा आई लेकिन टाउनशिप रहने योग्य विकसित नहीं किए गए। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि कामयाब एसईजेड को भी शिक्षा, स्वास्थ्य, कला और खेलकूद जैसी समाजिक बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल पाईं। अब तक एसईजेड इन सुविधाओं का अभाव झेल रहे हैं।

शहरीकरण हमारी समस्या है। इस समस्या के निदान पहले भी ढूंढ़े गए थे। पहले के निदान आधे-अधूरे रहे। अनेक शहरी नवीकरण कार्यफ्म चलाए गए और नतीजे शून्य निकले। अब बारी है स्मार्ट सिटी के लागू होते देखने की। तेल और तेल की धार देखने की बारी। सनद रहे स्मार्ट होने के लिए सोच के स्तर पर भी नागरिकों, प्रशासकों और राजनीतिक व्यवस्था से जुड़े लोगों का स्मार्ट होना जरूरी है। अन्यथा यह सपना ही है।

(लेखक प्रिंट और टी.वी. से जुड़े वरिष्ठ संपादक एवं संगीत विशेषज्ञ हैं)

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