सोचा था कि दिल्ली में अब जंग थम गई है। लेक्रिटनेंट गवर्नर नजीब जंग के अकस्मात त्यागपत्र और रुखसत होने के बाद लगा कि अब दिल्ली की जनता को तू-तू-मैं-मैं से निजात मिलेगी। लेकिन केंद्र ने म्यान से एक तलवार निकाल कर दूसरी धारदार तलवार डाल दी। अनिल बैजल ने आते ही संदेश दिया कि जंग के जाने के बाद भी जंग जारी रहेगी। दरअसल इस मैदान में सिर्फ खिलाड़ी बदले हैं। डी.टी.सी. भाड़े में कमी को लेकर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रस्ताव को ठुकरा दिया गया। कभी-कभी तो ऐसा लगता है मानो दिल्ली में उपराज्यपाल की नियुक्ति ही इसलिए हुई है कि जो भी आदेश मुख्यमंत्री कार्यालय से निकले उसे पलक झपकते ही खारिज कर दिया जाय। पता नहीं कब तक ये सिलसिला जारी रहेगा।
बहरहाल, दिल्ली के झगड़े का एक विस्तार काउंटर अब सुदूर दक्षिण में खुल गया है। अब एक नए मोर्चा का अगाज हुआ है पुडुचेरी में। पिछले दिनों पुडुचेरी के मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी भागे-भागे दिल्ली आए और सीधे नार्थ ब्लॉक का रुख किया। उनकी मुलाकात तय थी गृह सचिव राजीव महर्षि से। सत्ता के गलियारों में ये खबर थी कि नारायणसामी गृह सचिव के समक्ष उपराज्यपाल किरण बेदी के खिलाफ शिकायतों का पुलिंदा खोलेंगे। हो सकता है शिकायत की भी हो। लेकिन बाहर निकल कर उन्होंने सिर्फ ये कहा कि गृह सचिव से आई.ए.एस. अधिकारियों की पोस्टिंग के बारे में बातचीत हुई। शायद उन्होंने उपराज्यपाल पद की गरिमा रखी।
लेकिन दूसरी तरफ, पुडुचेरी में किरण बेदी डबल रोल में हैं, एक उपराज्यपाल और दूसरा मुख्यमंत्री। शायद जो ख्वाहिश दिल्ली में पूरी नहीं हो पाई वो अब पुडुचेरी में पूरी करने की कोशिश कर रही हैं। मोहतरमा बेदी अपनी अधूरी चाहत को अंजाम तक ले जा रही हैं या फिर किसी के दिशा-निर्देश का पालन कर रहीं, ये कहना मुश्किल होगा। लेकिन पिछले कुछ दिनों के उनके किरदार को अगर बारीकी से देखा जाए तो ये कहने में कतई संकोच नहीं होगा कि वो एक चुनी हुई सरकार के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही हैं। पुडुचेरी में इसी साल 5 जनवरी को जनता द्वारा निर्वाचित नारायणसामी की सरकार के उस आदेश को बेदी ने खारिज कर दिया जिसके तहत मुख्यमंत्री ने आधिकारिक कार्य-कलापों के लिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर रोक लगा दी थी। हद तो तब हो गई जब नारायणसामी के आदेश को खारिज करने का फरमान किरण बेदी ने ट्वीटर पर जारी किया। राज्य के काम-काज में उनकी दिलचस्पी ने बेताबी की सूरत इस तरह अक्चितयार कर ली कि आनन-फानन में अलग-अलग विभागों के सचिवों को ये आदेश दे डाला कि वो सभी उनके साथ मिलकर एक वाट्सएप गु्रप बनाएं ताकि राज्य सरकार के फैसलों की जानकारी उनको मिलती रहे। उनकी इसी दखलअंदाजी की आदत से परेशान नारायणसामी की सरकार ने सोशल मीडिया के इस्तेमाल पर पाबंदी लगाई थी। इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री नारायणसामी ने ये भी कहा कि किसी भी तरह के सरकारी काम-काज के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए और अगर इसकी काफी जरूरत हो भी जाए तो बिना मुख्य सचिव की इजाजत के सोशल मीडिया का इस्तेमाल नहीं हो सकता।
लेकिन बतौर मुख्यमंत्री काम करने की उत्कट आकांक्षा ने किरण बेदी को इस तरह मजबूर किया कि वो जल्द ही जनता दरबार भी लगाने लगीं, समस्याओं का निष्पादन करने का दावा करने लगीं और जो काम मुख्यमंत्री के अधीन होते हैं उनमें दिलचस्पी लेने लगीं। मतलब पुडुचेरी में दो-दो सरकार काम कर रही है। एक निर्वाचित सरकार और दूसरी मनोनीत सरकार। किरण बेदी की समानांतर हुकूमत। गौरतलब है कि पुडुचेरी में यूनियन टेरीटरी एक्ट, 1963 के मुताबिक उपराज्यपाल भले ही राज्य का प्रशासक है लेकिन उसे हर काम के लिए पहले राज्य की निर्वाचित सरकार से इजाजत लेनी ही पड़ती है। इस बाबत मद्रास हाईकोर्ट ने भी स्पष्ट फैसला दे रखा है। उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के इस मुठभेड़ की कहानी काफी पुरानी है। शीला दीक्षित की भी उपराज्यपाल तेजेन्दर खन्ना के साथ तकरार हुई थी। 2011 में प्रापर्टी सर्किल रेट में बढ़ोतरी को लेकर दोनों के बीच तलवार ङ्क्षखच गई थी। शीला ने गृहमंत्री के समक्ष गुहार लगाई। गृह मंत्री ने शीला की बात मानी और एलजी को मना कर दिया। राव तुलाराम मार्ग फ्लाई-ओवर को लेकर भी दोनों में मतभेद हुए। मामला गृह-मंत्रालय तक पहुंचा। गृह मंत्रालय ने निर्वाचित सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया। इससे पहले, शीला दीक्षित और भूतपूर्व उपराज्यपाल विजय कपूर के बीच भी ठन गई थी।
जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला और राज्यपाल जगमोहन के बीच झगड़ा इस कदर बढ़ गया था कि मुखयमंत्री ने इस्तीफा तक दे डाला था। 19 जनवरी, 1990 को जगमोहन राज्यपाल नियुक्त हुए थे और अगले ही दिन पुलिस फायरिंग में तकरीबन 100 लोगों की मृत्यु हो गई थी। उस वक्त फारूख अब्दुल्ला के धुर राजनीतिक विरोधी मुफ्ती मोहम्मद सईद केंद्र में गृहमंत्री हुआ करते थे।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी बतौर मुख्यमंत्री राज्यपाल कमला बेनीवाल से लोकायुक्त बिल पर दो-दो हाथ कर चुके हैं। सितंबर, 2013 में कमला बेनीवाल ने लोकायुक्त बिल को ये कहकर लौटा दिया था कि ये राज्यपाल के अधिकारों में कटौती करता है। लेकिन आखिर में कमला बेनीवाल को दस्तखत करने पड़े जब मोदी सरकार ने विधानसभा में इसे पास करा दिया।
राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच ये नोक-झोंक हमेशा से खबरों की सुर्खियां बनती रही हैं। लेकिन सवाल ये उठता है कि क्यों ये झगड़ा सिर्फ उन्हीं राज्यों में होता है जहां परस्पर विरोधी दलों के राज्यपाल और मुख्यमंत्री हैं। क्या ये केंद्र के इशारे पर है। क्या केंद्र के कहने पर केंद्र द्वारा मनोनीत राज्यपाल जनता द्वारा निर्वाचित सरकार के लिए मुसीबत खड़ी करते हैं। यदि इतनी ही तनातनी होनी है तो राज्य सरकार के निर्वाचन पर करोड़ों-अरबों खर्च क्यों? अब समय आ गया है कि इस मुद्दे पर चिंतन किया जाए कि दिल्ली में जब उपराज्यपाल की ही चलनी है तो एक अलग सरकार क्यूं? क्यों तमाम सरकारी ताम-झाम पर करोड़ों रुपयों की बर्बादी हो? और सबसे बड़ी बात ये कि राज्यपाल और मुख्यमंत्री के इस अहम के टकराव में आम जनता को क्यों सजा दी जाए? वक्त आ गया है जब फौरन इसका एक विवेकपूर्ण निदान तलाशा जाना चाहिए। क्योंकि वो दिन दूर नहीं जब सारी मर्यादाओं को तिलांजलि देते हुए राज्यपाल और मुख्यमंत्री के रिश्ते अपने निम्नतम स्तर पर न पहुंच जाए।