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बुंदेलों के मैदान में बराबर की तलवारबाजी

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सभी दलों के नेताओं ने लगाया दम, लुप्त हुई साफ बहुमत की चेतना
चुनावी रैली में प्रधानमत्री मोदी

उत्तर प्रदेश को साल 2007 में 16 साल बाद त्रिशंकु विधानसभा के कलंक से मुक्ति मिली थी। 2007 में जब मायावती ने दलित-ब्राह्मण का कार्ड खेला था तो उप्र में विकसित मतदाताओं की सामूहिक चेतना ने यह अहसास करा दिया था कि यहां मुलायम सिंह राज से प्रदेश को मुक्ति मिलने वाली है। 2012 के विधानसभा चुनाव आए तो नौजवान चेहरे के रूप अखिलेश यादव के  पक्ष में यहचेतना फिर कामयाब होती दिखी। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के लिए फिर इसी ने काम किया और भाजपा ने सपा, बसपा और कांग्रेस को लगभग रौंदते हुए 'न भूतो न भविष्यति’ वाली जीत दिला दी। पहले दो चुनावों में चेतना इस बात के लिए थी कि हराना किसे है और हरा कौन सकता है। लेकिन मोदी के चुनाव में भाजपा को जिताने वाली चेतना दिखी।

पौने तीन साल भी नहींं हुए हैं। विधानसभा चुनाव के चार चरण हो चुके हैं। लेकिन प्रदेश के चुनावी फलक से मतदाताओं की यह सामूहिक चेतना नदारद सी दिख रही है। हर इलाके के अपने गणित हैं। भाजपा और सपा गठबंधन के साथ तीसरी पार्टी के रूप में बहुजन समाज पार्टी भी पूरी शिद्दत से मैदान में डटी है। कहीं पर सपा और भाजपा के बीच टक्‍कर है तो कहीं भाजपा के साथ सपा या बसपा मुकाबले में हैं। बुंदेलखंड में भाजपा के सामने बसपा टक्‍कर में है तो मध्य यूपी में भाजपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन के बीच मुकाबला चल रहा है। प्रतापगढ़ जिले तक यही हवा है। लेकिन पूर्वांचल में भाजपा के साथ सपा और बसपा दोनों से ही  मुकाबला हो रहा है। पारिवारिक विवादों से बाहर निकले अखिलेश के साथ राहुल का साथ पसंद वाले भाव मतदाता में जागे या नहीं कोई नहीं कह सकता। यानीबसपा या भाजपा में किसे जिताया जाए, वाली बात भी साफ तौर पर नहीं उभरी। भाजपा को पता है कि उसकी जीत की सबसे बड़ी वजह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो सकती है। लेकिन यह पूरे यूपी के बजाय शहरी या मुस्लिमबहुल आबादी वाले इलाकों तक सीमित है।

भाजपा और सपा ने प्रचार- प्रसार पर भारी धन लुटाया है। इसलिए सतही तौर पर दोनों ही दलों का जलवा दिख रहा है। लेकिन बसपा का हाथी भी छुपे रुस्तम वाले अंदाज में मदमस्त चल रहा है, गुपचुप और दबे पांव। बावजूद इसके तीनों ही दलों को स्पष्ट बहुमत की आस बंधी है तो इसके भी कई कारण हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने तो यूपी के इस चुनाव को नोटबंदी पर जनमत संग्रह बता डाला है। वजह साफ है। झांसी के लक्ष्मीबाई पार्क में घूमते मिले सेठ राधेश्याम नोटबंदी से परेशानी का जिफ् करने के बावजूद भाजपा को ही वोट डालने की बात कहते दिखे। गरीब नोटबंदी से भले ही परेशान दिखा लेकिन अमीर के परेशान होने की खुशी उसे मोदी के करीब ला रही है। फिर एक बात यह भी है कि बड़े लोगों में अपने कालेधन की बदली करा लेने का सुकून है तो गरीब को नौकरी खोने और काम धंधा बैठने के बावजूद दूसरों के लिए लाइन में लगकर पैसे कमाने के मिले मौके की खुशी है।

कानपुर- लखनऊ हाईवे पर गंगा किनारे एचपी के पेट्रोल पंप पर मिले नौजवान इस कमाई को लेकर मोदी से खुश दिखे। लेकिन पूंछ कस्बे पर मुस्कान ढाबा चलाने वाले कुंअर सिंह यादव कहते हैं कि अखिलेश भैया नया चेहरा हैं। उन्होंने अच्छा काम किया है। उन्हें एक मौका और मिलना चाहिए। ललितपुर से लेकर झांसी और हमीरपुर से लेकर कानपुर, उन्नाव तक 2012 में सपा को जिताने वाला बड़ा वोट बैंक उसके पास आ चुका है। लेकिन सपा के सामने भाजपा से बड़ा खतरा बसपा का दिख रहा है। उसे डर है कि कहीं मुसलमान उसके पाले से न खिसक जाएं। उन्हें भरोसा दिलाने के लिए ही तो अखिलेश ने कांग्रेस को साथ लिया। इसलिए 'यूपी को ये साथ पसंद है’ के नारे केे साथ अखिलेश-राहुल के फोटोयुक्‍त बैनर लगे हैं। जनता इसे कितना पसंद करेगी यह तो वक्‍त बताएगा लेकिन अखिलेश की चिंता यह है कि बड़ी तादाद में सपाइयों को कांग्रेस और कांग्रेसियों को सपा का साथ पसंद नहीं आ रहा है। कांग्रेस को गठबंधन से सपा के मुकाबले ज्यादा फायदा होता दिख रहा है। अखिलेश ने कांग्रेस से गठजोड़ के साथ शिवपाल यादव को किनारे कर दिया। लेकिन अतिविश्वास के चलते उन्होंने शिवपाल की सूची में घोषित कई जिताऊ  उम्‍मीदवारों के टिकट भी काट दिए। विकास के नाम पर वोट मांगने वाले अखिलेश बाद के चरणों में पिछड़ते दिख रहे हैं। भाजपा को गैर यादव ओबीसी में सेंधमारी की अपनी रणनीति में कामयाबी मिली है। हालांकि कुर्मी वोट का भाजपा और बसपा में बंटवारा हुआ है।

 2007 में ब्राह्मणों को साथ लेकर 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’ के नारे के साथ जीती मायावती भी पूरी तरह आश्वस्त हैं कि मुसलमानों को 100 सीट देने से इस बार मुस्लिमों के सहारे उनकी नैया पार लग जाएगी। बसपा के साथ एक और अच्छा पहलू यह है कि चुनाव के पहले कमजोर पड़ती बसपा का दामन छोडक़र कई नेताओं ने दल बदले लेकिन टिकट घोषित होने के बाद बसपा ही ऐसी पार्टी है जिसमें कहीं बगावत के सुर नहीं गूंजे। जबकि सपा और भाजपा में ये खूब गूंजे हैं। राम की नगरी अयोध्या जिस फैजाबाद में आती है वहां एक भी टिकट मूल भाजपाइयों को नहीं मिले। सभी आयातित नेता टिकट पा गए। कुछ महीने पहले खुद के भावी मुख्‍यमंत्री के रूप में प्रोजेक्‍ट होने की कवायद में लगे सांसद वरुण गांधी भी चुनावी फलक से गायब हैं। मध्य यूपी से लेकर पूरब में बनारस तक पंडितों के कद्दावर नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी का तो भाजपा के आधिकारिक चुनावी अभियान के पोस्टर में फोटो तक नहीं छापा।  

रैली में बसपा सुप्रीमो मायावती

बावजूद इस सबके नोटबंदी पर जनमत संग्रह की बात कहने वाले अमित शाह की भाजपा को असली फायदा सपा-कांग्रेस और बसपा के अतिरेक भरे मुस्लिम प्रेम के चलते हो रहा है। मुस्लिम तुष्टीकरण से नाराज लोग भाजपा को इसलिए तवज्जो दे रहे हैं    क्‍योंकि वही ऐसी पार्टी है जिसने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का तवा तपते देख मोदी और शाह ने कसाईखाने बंद करने और गांवों में कब्रिस्तानों के साथ श्मशानघाटों के लिए जगह देने का राग छेड़ा है। भाजपा का गैर यादव ओबीसी के साथ गैर जाटव दलितों का कार्ड भी कहीं कहीं काम कर रहा है। तीनोंं ही प्रमुख दलों के जीत के बड़बोले दावों के बीच माहौल में एक अलग सी टीस या कसक भी मौजूद है। अखिलेश जीते तो शिवपाल का कॅरियर खत्म। यदि हारे तो सपा में नए सिरे से उठापटक तय। मायावती यदि यह चुनाव नहीं जीतीं तो उनकी बसपा और खुद मायावती का भी भविष्य डांवांडोल होगा। भाजपा जीती तो मोदी फिर तलवारें लहराएंगे। हारी तो उनके सीने की चौड़ाई और भी कम हो जाएगी।

 

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