सीपीआई(एम) की केंद्रीय कमेटी ने पिछले चुनाव में पश्चिम बंगाल इकाई द्वारा अपनाई गई लाइन को पार्टी-विरोधी करार दिया है। इसके बावजूद केंद्रीय कमेटी की एक सदस्या जगमती सांगवान ने यह कह कर पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी कि केंद्रीय कमेटी की इतनी-सी भर्त्सना काफी नहीं है। जगमति के इस एकतरफा फैसले का जो परिणाम निकलना था, वही निकला। पार्टी की बैठक के फैसले की खुली निंदा के साथ ही उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया।
फिर भी, सीपीआई(एम) में यह जो चल रहा है, बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इन घटनाओं से उसमें एक अजीब प्रकार के अस्तित्वीय संकट के संकेत दिखाई दे रहे हैं। थोड़ी-सी गहराई से देखने पर ही कोई भी यह समझ सकता है कि पार्टी की केंद्रीय कमेटी में एक अजीबोगरीब बहुमत और अल्पमत का खेल बड़े दिनों से चल रहा है। यह एक प्रकार से किसी अनिश्चित भविष्य की खाई में जा गिरने के डर का संकेत है। इसके साथ पार्टी के विकास में साफ तौर पर दिखाई दे रहे गतिरोध को तोड़ने की कोई बहुत गंभीर चिंता जुड़ी हुई नहीं दिखाई देती है। जिस ढर्रे पर चल कर पार्टी अभी के गतिरोध में फंस गई है, उस पर तो केंद्रीय कमेटी का बहुमत कभी विचार भी करने के लिए तैयार नहीं रहा है। यह वही पुराना रोग है जिसके कारण ज्योति बसु, यूपीए -1 और सोमनाथ चटर्जी के सवालों पर भारी भूलें की गईं।
जब कोई भी व्यक्ति या संगठन एक ही प्रकार की हरकतों को उनकी व्यर्थता के साफ प्रमाणों के बावजूद बार-बार दोहराता हुआ दिखाई देता है, तभी यह साफ हो जाता है कि उसको आगे का रास्ता डरा रहा है और ऐसे अवसरों पर ही हमेशा धर्म अपने विधि-निषेधों, पाबंदियों और प्रतिबंधों के साथ आदमी के जीवन में प्रवेश करता है। जब मनुष्य किसी भी वजह से किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर दिशा हारा हो जाता है, तभी धर्म की भूमिका आती है और बाइबल में यीशू यह विधि-निषेध जारी करते हैं कि ‘ज्ञान के वृक्ष से कुछ भी मत खाओ’। भारतीय उपनिषदों में भी धर्म की भूमिका की चर्चा ऐसे विधि-निषेधों के जरिये ही की गई है। अस्तित्ववादी दार्शनिक किर्केगार्द ने इसी डर को आदमी के जीवन का वह सत्य बताया है जो उसे एक ही जगह खड़े रह कर हाथ-पैर हिलाने की अंतहीन कसरत में फंसा कर रख देता है।
सीपीआई (एम) की हालत यह कर दी गई कि जब पार्टी के कार्यक्रम में संशोधन करके केंद्रीय सरकार तक में शामिल होने की संभावना को मान लिया गया, तब भी ज्योति बसु को प्रधानमंत्री न बनने देने के विषय की कोई समीक्षा नहीं की गई। जिस समय यूपीए-1 से समर्थन वापस लिया गया उस समय यूपीए-1 को समर्थन देने के कारणों को विचार के लायक भी नहीं समझा गया। इसी ढर्रे पर अब, जब पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ किए गए गठबंधन के विषय में चर्चा की जा रही है, तब कौन सी परिस्थितियों में कांग्रेस से सीटों के बारे में समझौता करने और सभी जनतांत्रिक ताकतों को एकजुट करने का केंद्रीय कमेटी ने निर्णय लिया था , उसे बिलकुल भुला दिया जा रहा है। आज जो विचार किया जा रहा है, उसका कोई सैद्धांतिक आधार नहीं है, शुद्ध रूप से पश्चिम बंगाल का चुनाव परिणाम है, वाम मोर्चा को मिली सीटों की संख्या। एक बार के लिए भी इस बात पर विचार नहीं किया जा रहा कि पश्चिम बंगाल में जो नया प्रयोग किया गया और उसे जिस प्रकार से वहां की जनता ने अपनाया, वह पहले से ही भारी गतिरोध में फंस चुके भारतीय वामपंथ के आगे बढ़ने के रास्ते का संधान दे सकता है, उसे उसके अस्तित्वीय संकट से निकाल सकता है। सीपीआई (एम) में आगे भी इन बहुमतवादियों का यही खेल चलता रहेगा, जगमती की सार्वजनिक घोषणा इसी का एक प्रमाण है।
जहां तक जगमती की बातों का सवाल है, उनकी सबसे पहली समस्या तो यह है कि वह पार्टी की राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन को उसकी जान मानती हैं, जबकि यह एक घोषित सच है कि उसमें हमेशा नई-नई परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार उनके अनुसार तो पार्टी रोज मरती है और फिर रोज एक नई जान में पैदा होती है!
उनकी दूसरी सबसे बड़ी समस्या है कि वे संगठन को महत्वहीन मानती हैं। पार्टी का सांगठनिक सिद्धांत उसकी राजनीतिक-कार्यनीतिक लाइन से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण, रणनीतिक लाइन के समकक्ष होता है। बिना संगठन के और कुछ भी हो सकता है, पार्टी नहीं हो सकती। लाइन का राग अलापने वाले इस सबसे बुनियादी महत्व के विषय के प्रति पूरी तरह उदासीन या अनभिज्ञ होते हैं और इसीलिए सही ढंग से अपने क्षेत्रों में पार्टी नहीं बना पाते हैं।
यह सारी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के साथ जुड़ी बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि उनके पास गैर-क्रांतिकारी परिस्थिति में संगठन और उसके प्रभावशाली संचालन के सिद्धांतों संबंधी कोई साफ अवधारणा नहीं है, जो पार्टी के विस्तार के रास्ते में हमेशा सहयोगी बने, न कि बाधक। इसमें एक ऐसे लचीलेपन की जरूरत है जिससे व्यापकतम जनता के साथ पार्टी का बराबर संवाद बन सके। कथित क्रांतिकारियों की गिरोहबंदी का स्वरूप पार्टी के जनतांत्रिक विस्तार के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। पार्टी में जनतंत्र जनता की भूमिका से परिभाषित होना चाहिए, न कि मुट्ठी भर विशेषाधिकार-प्राप्त पार्टी सदस्यों से। बंगाल की सीपीआई (एम) ने पिछले विधानसभा चुनाव में किसी भी किताब या पूर्व-प्रस्ताव की बेड़ियों को अस्वीकार कर ठोस परिस्थिति के अनुरूप कांग्रेस के साथ गठबंधन की लाइन अपनाई और जनता की आवाज को तरजीह दी। राजनीतिक लाइन के निर्धारण में और सांगठनिक मामलों में भी जनता की आवाज के लिए आगे रास्ता खोलेगी और कहना न होगा, वही सीपीएम के नवोन्मेष का आधार बन सकेगा।
अभी की परिस्थितियों में, सीपीआई (एम) की केंद्रीय कमेटी में बहुमतवादियों और अल्पमतवादियों के बीच लंबे समय से चल रही तकरार रूस की बोल्शेविक पार्टी में बोल्शेविकों और मेशेविकों के बीच की तकरार की ही एक प्रहसनात्मक पुनरावृत्ति जैसी लगती है। रूस के कम्युनिस्टों के एजेंडा पर तब तत्काल क्रांति के जरिये राजसत्ता पर कब्जा करने का सवाल था। यहां ऐसा कुछ नहीं है और आज की देश और दुनिया की परिस्थिति में उस प्रकार की क्रांति की कोई संभावना भी नहीं है। इसीलिए यह सारा उपक्रम एक पार्टी को हाथ में लेने का सिद्धांतविहीन और स्वार्थपूर्ण उपक्रम जैसा भी कभी-कभी लगता है।
(लेखक माकपा के मुखपत्र स्वाधीनता के संपादक रह चुके हैं।)