दिल की बंद नली को खोलने के इलाज के उपकरण स्टेंट की कीमतों पर अंकुश के कदम की सुनकर इसे बनाने वाली कंपनियों, कॉरपोरेट अस्पतालों, एंजियोप्लास्टी के विशेषज्ञ डॉक्टरों का दिल धक से रह गया होगा। उन सबों को जो स्टेंट के जरिए मालामाल हो रहे थे, सरकार के इस कदम से वैसा ही झटका लगा जैसा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नोटबंदी से धन कुबेरों को लगा था। स्टेंट चाहे कोई भी हो, उसकी कीमत अब 30,000 रुपये से ज्यादा नहीं हो सकती।
जब जब स्टेंट की कीमत में कमी कर दिल की बंद नली को खोलने के इलाज एंजियोप्लास्टी को सस्ता करने की कोशिशें हुईं, इस नन्हें से ट्यूब के कारोबार से पैसा छाप रहे दिल के डॉक्टरों -कारपोरेट अस्पतालों ने इसे बाइपास करने का हर संभव प्रयास किया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति स्व. ए.पी.जे अब्दुल कलाम की दिली इच्छा थी कि स्टेंट की कीमत कम हो। इसीलिए उन्होंने डिफेंस रिसर्च एंड डेवेलपमेंट आर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) के अपने कार्यकाल में कलाम-राजू नामक सस्ते स्टेंट की नींव रखी। 1994 में यह स्टेंट तैयार होकर बाजार में आ गया। जिस समय स्टेंट के दाम आसमान छू रहे थे, एक लाख रुपये से कम में कोई स्टेंट उपलब्ध नहीं था, उस समय कलाम-राजू स्टेंट की कीमत मात्र 8 हजार रुपये रखी गई। दिल के 3000 से अधिक मरीजों ने इस स्टेंट का लाभ भी उठाया और उसके बेहद अच्छे परिणाम भी आए। इस स्टेंट को और बेहतर बनाने की प्रक्रिया भी शुरू हो गई। लेकिन इसी बीच स्टेंट बनाने वाली मल्टीनेशनल कंपनियों की शह पर दिल के
डॉक्टरों की लॉबी सक्रिय हो गई। उन्होंने इस स्टेंट को लगाने में कोई रुचि तो नहीं ही दिखाई, गुणवत्ता का सवाल उठा कर कलाम-राजू स्टेंट को हतोत्साहित भी किया। नतीजतन, उस स्टेंट ने दम तोड़ दिया।
स्टेंट की कीमत कम करने के लिए इस बार केंद्र सरकार ने जो कदम उठाया है, उसे इलाज के क्षेत्र में सर्जिकल स्ट्राइक की संज्ञा दी जा रही है। इसे दूसरी तरह की नोटबंदी का नाम भी दिया जा रहा है। स्टेंट से धन कुबेर बन रहे डॉक्टरों-अस्पतालों ने सरकार की तरफ से ऐसे कदम की कल्पना नहीं की थी। वैसे इसका असल श्रेय अदालत को जाता है जिसने सरकार को ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया।
लेकिन दिल के मरीजों को इससे कितनी राहत मिल पाएगी, इसको लेकर आशंकाएं जताई जा रही हैं। आशंका है कि कहीं स्टेंट की कीमत कम करने का सरकार का यह कदम भी जेनेरिक दवा की तरह स्टंट ही साबित न हो जाए। स्टेंट की कीमत कम कराने के लिए सक्रिय संस्थाओं का कहना है कि कॉरपोरेट अस्पतालों को अपना मुनाफा बचाने का तरीका मालूम है। इधर से नहीं तो वे मरीजों से किसी न किसी बहाने अपनी भरपाई कर ही लेंगे। स्टेंट कमाई का ऐसा खून अस्पतालों के मुंह लग चुका है कि कोई छाती के दर्द के साथ किसी अस्पताल में पहुंचा तो समझिए वह वहां बंधक बन गया। उसकी एंजियोप्लास्टी होनी तय ही मानिए। एक स्टेंट है जिसकी कीमत आसमान छूती थी- वह है ड्रग इल्यूटिंग स्टेंट। इस स्टेंट से दवा रिसती रहती है लेकिन दवा से ज्यादा इससे डॉक्टरों- अस्पतालों के लिए पैसा रिसता था। पिछले साल इस देश में 5 लाख स्टेंट लगाए गए। देश में अभी स्टेंट का 1400 करोड़ रुपये का कारोबार है जिसमें आयातित स्टेंटों की संख्या बहुत ज्यादा है।
वैसे कहने को तो डॉक्टरों के संगठन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने इसका समर्थन किया है, एंजियोप्लास्टी विशेषज्ञ भी व्यक्तिगत तौर पर सरकार के इस कदम का समर्थन कर रहे हैं लेकिन सरकार के इस कदम की जड़ में म_ा डालने की कोशिशें भी शुरूहो गई हैं। गुणवत्ता और शोध व विकास का हौवा फिर खड़ा करने की कोशिश हो रही है। आईएमए ने सिर्फ दिल के डॉक्टरों को लुटेरा करार दिए जाने पर एतराज जताया है।
फोर्टिस एस्कॉर्ट हार्ट इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली के चेयरमैन एवं कार्डियालॉजी काउंसिल ऑफ फोर्टिस ग्रुप ऑफ हॉस्पिटल्स के प्रमुख, जाने-माने एंजियोप्लास्टी विशेषज्ञ डॉ. अशोक सेठ ने वैसे सरकार के इस कदम का समर्थन किया है लेकिन वे थोड़ा संशोधन भी चाहते हैं। डॉ. सेठ ने आउटलुक हिंदी से इस सवाल पर बात करते हुए कहा कि दिल का रोग भारत में सबसे बड़ा हत्यारा साबित हो रहा है। शहर और गांव, दोनों जगह दिल के रोग का कहर लगातार बढ़ रहा है। इसलिए सरकार ने कोई गलत कदम नहीं उठाया है लेकिन इसमें कुछ संशोधन होता तो बेहतर होता। सरकार को स्टेंट के मामले में नवपरिवर्तन (इनोवेशन) का ध्यान रखना चाहिए था। कीमतों को तय करने में वर्गीकरण जरूरी था।
कानफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआईआई) ने सरकार के इस कदम का कड़ा विरोध किया है। सीआईआई ने कहा है कि स्टेंट की कीमतों पर इस तरह की बंदिश से विदेशी पूंजी निवेश एवं मेक इन इंडिया जैसे क्रलैगशिप कार्यक्रम के लिए प्रतिकूल माहौल बनेगा। वहीं दूसरी तरफ एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकल डिवाइस (एआईएमडी) के समन्वयक राजीव नाथ ने सरकार के इस कदम का समर्थन करते हुए कहा है कि इससे देशी स्टेंट मेकर कंपनियों को बढ़ावा मिलेगा।
सरकार ने स्टेंट को आवश्यक दवाओं की सूची में शुमार कर यह कदम उठाया। इससे स्टेंट की कीमतों में करीब 85 प्रतिशत की कमी आ गई है। सरकार के इस मरीज हितैषी कदम के लागू होने के पहले स्टेंट की कीमत की वजह से दिल की बंद नली को खोलने की विधि एंजियोप्लास्टी का खर्च आसमान छू रहा था। पता नहीं स्टेंट की ऐसी कीमत की वजह से दिल के कितने मरीज गरीबी रेखा के नीचे चले गए होंगे। स्टेंट के खास ब्रांड के नाम पर मरीजों को सिर्फ स्टेंट खरीदने के लिए 50 हजार रुपये से डेढ़ लाख रुपये तक खर्च करने पड़ते थे। स्टेंट लगाने का खर्च अलग। लेकिन 13 फरवरी के बाद चाहे कोई स्टेंट किसी भी ब्रांड का क्यों न हो, उसकी कीमत 30, 000 रुपये से ज्यादा नहीं हो सकती। जानकारों का कहना है कि एक स्टेंट के बनाने में अधिक से अधिक 2 हजार रुपये ही खर्च होते हैं।
हेल्थकेयर को मरीज हितैषी बनाने की दिशा में सक्रिय एआईडीएएन, अलायंस ऑफ डॉक्टर्स फॉर एथिकल हेल्थकेयर, थल्र्ड वल्र्ड नेटवर्क, जन स्वास्थ्य अभियान और नेशनल वर्किंग ग्रुप ऑन पेटेंट लाज आदि संगठनों ने जीवन रक्षक स्टेंट की आसमान छूती कीमतों का मुद्दा जोर-शोर से उठाया और केंद्र सरकार से लगातार मामले में हस्तक्षेप की मांग उठाई। लंबे समय के बाद अदालत के हस्तक्षेप से उनका यह अभियान रंग लाया।
नेशनल फर्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी
(एनपीपीए) द्वारा किए गए स्टेंट उद्योग के आंकड़ों के विश्लेषण से यह बात जाहिर हुई है कि स्टेंट के वितरण और आपूर्ति के हर कदम पर भारी मुनाफा उठाया जाता था। मरीज के पास पहुंचते-पहुंचते स्टेंट की मूल कीमत में 1000 से लेकर 2000 प्रतिशत तक का इजाफा हो जाता था। विश्लेषण का कहना है कि स्टेंट की इतनी ऊंची कीमतों की वजह से ज्यादातर दिल के मरीज इस जीवनरक्षक स्टेंट का उपयोग करते ही नहीं थे। वे अपने को राम भरोसे छोड़ देते थे। जिन आम लोगों ने स्टेंट लगवाने का साहस किया, उनका परिवार गरीबी के दलदल में फंस गया।
साथ ही इसमें कहा गया है कि स्टेंट की कीमत तय कर देना ही पर्याप्त नहीं है। यह कदम अधूरा है। अस्पताल स्टेंट के मुनाफे में कमी की भरपाई किसी दूसरे तरीके से न शुरू कर दें, इसलिए सरकार को कोई पूरक कदम उठाना पड़ेगा। कहा गया है कि जब तक एंजियोप्लास्टी की प्रक्रिया के खर्च का मानक तय नहीं होगा सरकार के इस कदम का दिल के मरीजों को कोई फायदा नहीं मिलेगा। विश्लेषण के अनुसार यह जरूरी है कि एंजियोप्लास्टी की प्रक्रिया के ऑडिट की व्यवस्था भी हो। विश्लेषकों के इस आरोप में भी काफी दम है कि जिन मरीजों को स्टेंट लगाने की जरूरत नहीं भी होती है, उन्हें भी लगा दिया जाता है। एक स्टेंट लगाने की जरूरत हो तो 2-3 लगा दिए जाते हैं।