गैंग्स ऑफ वासेपुर, डेल्ही बेल्ही, उड़ता पंजाब और ऐसी अनगिनत फिल्मों में पुरुष किरदार संवादों में गाली का प्रयोग करते हैं। ऐसे दृश्य सहजता से फिल्म का हिस्सा बनते हैं। इतनी सहजता से कि दर्शकों को पता भी नहीं चलता। खास बात है कि दर्शकों से पहले फिल्म प्रमाणन बोर्ड को भी पता नहीं चलता। अपशब्द या गाली देना पुरुषों के लिए आम बात है शायद। शायद नहीं, यकीनन।यही हरकत कोई स्त्री पात्र करे तो खबर बनती है। याद कीजिए इश्किया जिसमें विद्या बालन नसीरुद्दीन शाह को '...सल्फेट’ कहती हैं। उनका यह संवाद अलग तरह से गुदगुदाता है और खबर बनती है, बोल्ड विद्या ने फलां शब्द बिना झिझक के कहा। संदर्भ लिपस्टिक अंडर माई बुर्का यह झिझक का टूटना ही समाज को खतरे की घंटी लगने लगा है। गाली देना अब बहुत पीछे छूट चुका है, औरतें उससे भी बड़ा अपराध कर रही हैं। वे कल्पना कर रही हैं, सपने देख रही हैं। सपने भी ऐसे-वैसे नहीं अपने मनपसंद साथी के, मनपसंद कॅरिअर के, मनपसंद विषय पर बात करने के।
ये कौन लोग हैं जो औरतों की कल्पनाओं से डरे हुए हैं और दर्शकों के बीच किसी फिल्म को आने से इसलिए रोक दे रहे हैं क्योंकि अलग-अलग उम्र की तीन महिलाओं को इस फिल्म में अपनी फैंटेसी (तरह-तरह की कल्पनाएं, जिसमें यौनिकता भी शामिल है) के साथ दिखाया गया है। फिल्म प्रमाणन बोर्ड कहता है, इस फिल्म में कई विवादास्पद सीन हैं, सामान्य जीवन से आगे बढक़र कल्पनाएं हैं, गालियां हैं और फोन सेक्स को बढ़ावा देने वाली घटनाएं हैं। प्रमाणन बोर्ड ने जब यह बातें आपत्ति के रूप में लिख कर निर्माता प्रकाश झा और निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव को दी होंगी तो उन्हें देव डी में कल्कि द्वारा निभाए किरदार के फोन दृश्य संभवत: याद नहीं होंगे, गब्बर इज बैक का 'आओ राजा...’ गाना याद नहीं होगा, गोलमाल, धमाल जैसी फिल्मों के पोस्टर और उन फिल्मों के एक भी संवाद याद नहीं होंगे। यदि ऐसा होता तो लिपस्टिक अंडर माई बुर्का पर इस लेख की जरूरत ही नहीं पड़ती।
पीकू फिल्म में पीकू से एक लडक़ा दोस्ती की कोशिश में है और पिता बने अमिताभ बच्चन तपाक से उसके पास पहुंच कर कहते हैं, 'शी इज नॉट वर्जिन।’ भारत में अभी कौन-सा तबका इतना उन्नत है कि पिता बेटी के बारे में सार्वजनिक रूप से किसी तीसरे के सामने ऐसा कहे। लिपस्टिक अंडर माई बुर्का को मुंबई फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट फिल्म का ऑक्सफैम अवॉर्ड, टोक्यो इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में द स्पिरिट ऑफ एशिया प्राइज मिल चुका है। यह चार औरतों की कहानी है जो आजाद जीवन जीना चाहती हैं। बुर्का पहन कर कॉलेज जाने वाली एक लडक़ी ब्रिटनी स्पीयर्स बनना चाहती है, एक नितांत घरेलू किस्म की महिला को तस्वीरें खींचना पसंद है और वह जी भर कर सेल्फी खींचती है। तीन बच्चों की मां सिर्फ बच्चा पैदा करने वाली मशीन से ज्यादा अपने इंसान के तौर पर व्यवहार चाहती है और चौथी जो विधवा है लेकिन उसकी कल्पना में कम उम्र का एक लडक़ा है।
अलंकृता इनके बहाने बताना चाहती हैं कि शहर छोटा हो या बड़ा, महिलाएं कामकाजी हों या गृहस्थन, महिलाओं को जब मौका मिलता है अपने सपनों को पूरा कर लेती हैं। भारत कभी बेबाकी को लेकर आक्रामक नहीं रहा है। पुराण इस बात को प्रमाणित करते हैं। शिव जब कामदेव को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भस्म कर देते हैं तो सती उनसे कहती हैं कि जब काम (यहां अर्थ सेक्स से ही है) ही नष्ट हो गया तो फिर जीवन में क्या बचा। इस अपराध के लिए क्या पार्वती को भी देवी के पद से हटा देना चाहिए। या फिर कल्पनाओं की नई परिभाषा को जन्म लेने देना चाहिए।