Advertisement

एक प्रतिष्ठित संरचना का ध्वंस होना

प्रगति मैदान की इमारतों का टूटना शुरू हो गया है और इसके साथ ही 90 के दशक में तैयार भारतीय वास्तुकला की शान भी जमींदोज होने को है
प्रगत‌ि मैदान का हॉल ऑफ नेशंस वास्तुश‌िल्प का बेजोड़ नमूना

प्रगति मैदान वह जगह है जहां दिल्ली के सभी निवासी एक-दूसरे से मिलते और जुड़ते हैं। इसका उद्घाटन 3 नवंबर, 1972 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेला, एशिया 72 के मौके पर किया था। भारत की आजादी के 25 साल पूरे हुए थे। इसी का उत्सव मनाने के स्थल के रूप में इसे चुना गया था। इस संरचना ने जब आकार लिया तो हर भारतीय ने गौरवान्वितमहसूस किया था। आजादी और बंटवारे की त्रासदी के बाद अब तक भारत ने खासी प्रगति कर ली थी और वह आखिरकार पटरी पर लौट रहा था। यह निर्माण साहस, दृढ़ निश्चय और हर आदमी के अंदर देशभक्ति की भावना का प्रतीक बना।

लेकिन समय ने लगातार बढ़ती आबादी के साथ एक बड़ा पलटा खाया है। कुछ खास मौकों को छोड़ दें तो इतनी बड़ी जगह का पूरे साल बमुश्किल उपयोग होता है। यह एक तरह से जगह की बर्बादी ही है। प्रगति मैदान करीब 150 एकड़ (6,25,000 वर्ग मीटर) में फैला हुआ है। दिल्ली का यह सबसे बड़ा प्रदर्शनी केंद्र है। यह भारत सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय के कारोबार को फैलाने वाली एजेंसी भारत व्यापार प्रसार संगठन (आईटीपीओ) की मिल्कियत है। यही संगठन इसका प्रबंधन और नियंत्रण करता है।

इस संरचना में स्टील के उपयोग की योजना बनी थी लेकिन आजादी मिले कुछ ही साल हुए थे, इसलिए देश के पास इसके लिए पर्याप्त कोष नहीं था। इसलिए इसे क्रंक्रीट से बनाया गया। इस परियोजना के संरचना इंजीनियर महेंद्र राज कहते हैं- औद्योगिक दुनिया में कहीं भी किसी ऐसे स्थल का ढांचा स्टील के जोड़ से बना होता है। भारत में उस समय हमारे पास पर्याप्त स्टील नहीं था। इसलिए हमने फटाफट काम चलाऊ स्थल का निर्माण कंक्रीट में किया। तैयार भवनों में पर्यावरणीय नियंत्रण की प्रभावी एवं आधुनिक पद्धति लगी हुई थी। मंडपों में हुमायंू के कब्र एवं ताजमहल की तर्ज पर झुके हुए कोने थे। समसामयिक प्रौद्योगिकी के सहारे भवन तत्वों की नई व्याख्‍या ने अलग तरह के भवनों की शक्‍ल दी जो भारत में स्वदेशी आधुनिकता की अलहदा मिसालें बनीं। कई ऐसे लोग हैं जो यह महसूस करते हैं कि प्रगति मैदान को जस का तस बनाए रखा जाना चाहिए क्‍योंकि यह स्वतंत्र भारत का प्रतिनिधत्व करता है।

फोटोग्राफर और क्‍यूरेटर राम रहमान को इस बात का गहरा एहसास है कि प्रगति मैदान भारत के आधुनिक वास्तुशिल्प के हिसाब से बेहद ऐतिहासिक महत्व की संरचना है। 1960 तक राज रेवल (आर्किटेक्‍ट), महेंद्र राज ( इंजीनियर) और इनके जैसे वास्तुशिल्पियों की दूसरी पीढिय़ां डिजाइन तैयार करने में बेहद प्रयोगधर्मी हो गई थीं और वे महत्वाकांक्षी डिजाइन का अक्‍स बुनने के लिए जाने जाते थे। प्रगति मैदान को तैयार करने में तकनीक की कोई मदद नहीं ली गई। यहां तक कि स्टील की छड़ों को भी हाथ से मोड़ा गया। पूरी संरचना पहले से ढले कंक्रीट से तैयार हुई। भारत को छोड़ कर दुनिया में और कहीं भी उस समय ऐसी संरचना तैयार होना असंभव था। नेहरू मंडप पहली ऐसी संरचना थी जिसे एमआईडी ने मदद दी, इसलिए यह पढ़ाने के लिए पहले संकाय का आधार बना।

पूरी दुनिया में इस भवन को आधुनिक डिजाइन का उत्कृष्ट नमूना माना जाता है। रहमान कहते हैं- यह विंडबना ही है कि जब दोनों (रेवल और महेंद्र) को पहचान मिल रही है, उनकी सबसे चर्चित कृति को सरकार ही नष्ट कर रही है। प्रगति मैदान के वास्तुविद रेवल कहते हैं- इस संरचना का निर्माण एक महान राजनेता के सम्मान में किया गया था। वास्तु शिल्पियों की पूरी जमात का मानना है कि यह नई दिल्ली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। अगर इन्हें धवस्त नहीं किया जाए तो यह सबके हित में होगा। पूरी दुनिया की प्रदर्शनियों में इसे 20वीं सदी के वास्तुकला के एक मॉडल के रूप में पेश किया जा चुका है। यह 1970 के दशक के भारत की छवि है। इन्हें नष्ट करना किसी ऐतिहासिक भवन को नष्ट करने जैसा होगा।

जब भारत और पूरी दुनिया की कला और वास्तुशिल्प का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्थाओं, मसलन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ आर्किटेक्‍ट्स, पेरिस स्थित सेंटर डी आर्ट एट डी कल्चर जोर्जेज पां पीडू एवं न्यूयार्क के म्यूजियम ऑफ माडर्न आर्ट को प्रगति मैदान के ढाहे जाने के प्रस्ताव की खबर मिली तो उनके पदाधिकारियों ने केंद्रीय वाणिज्य मंत्री सीतारमण को चि_ियां लिखीं और प्रगति मैदान की वास्तुकला को संरक्षित रखने की गुजारिश की।

म्यूजियम ऑफ माडर्न आर्ट ने पत्र में लिखा है कि अमेरिका और यूरोप में प्रगति मैदान का हाल ऑफ नेशंस दुनिया में कंक्रीट से इतने बड़े पैमाने पर बना पहला स्थानिक संरचना है। ये वास्तुकला के नायाब नमूने हैं और भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण अध्याय के गवाह हैं। यूरोप में आधुनिक कला के सबसे बड़े म्यूजियम सेंटर पां पीडू के ऑरेलियन लेमोनियर ने अपने पत्र में लिखा है- जहां तक हमारी समझ है, हाल ऑफ नेशंस और नेहरू मंडप को आजादी के बाद की बड़ी विरासत के रूप में देखा जाना चाहिए। इसे संरक्षित रखने की जरूरत है। हालांकि निर्मला सीतारमण के कार्यालय या भारत व्यापार प्रसार संगठन की तरफ से इन चि_ियों का कोई जवाब अब तक नहीं दिया गया है।

(लेखिका वास्तुकला अकादमी में वास्तुशिल्प की छात्रा हैं)

Advertisement
Advertisement
Advertisement